लेकिन क्या अपराध के बाद अपराधियों को तत्परता से कानून के शिकंजे में दबोच लेना ही नीतीश सरकार की छवि को बेहतर करने के लिए काफी है? इसका जवाब कोई भी व्यक्ति सकारात्मक लहजे में नहीं दे सकता, क्योंकि बिहार में अपराध और भ्रष्टाचार रुकने का नाम नहीं ले रहा है। पुलिस सख्ती दिखा रही है। वह तत्परता से अपराधियों को पकड़ रही है। वह अपराधियों को आत्मसमर्पण करने के लिए भी बाध्य कर रही है, लेकिन इसके बावजूद संगीन अपराध रुकने का नाम नहीं ले रहे। आखिर क्या कारण है कि अपराधियों पर पुलिस को खौफ काम नहीं कर रहा है?

इसका एक कारण तो पुरानी व्यवस्था का हैंगओवर है, जिसके तहत अपराधियों को लगता है कि अपराध करके वे बच जाएंगे। एक बात और है। वहा यह है कि जिस घटना को मीडिया में पब्लिसीटी मिलती है, पुलिस उसी घटना में ज्यादा सक्रियता दिखाती है। और अपराधियों को लगता है कि उनका अपराध मीडिया का ध्यान नहीं खींच पाएगा और उनके पीछे पुलिस नहीं पड़ेगी। जाहिर है, पुलिस को सभी आपराधिक मामलों में समान सक्रियता दिखानी पड़ेगी। तभी उनका खौफ अपराधियों को दहला पाएगा और वे अपराध करने से डरेंगे।

बिहार का टाॅपर घोटाला भी एक बड़ा अपराध है। यह चूुकि सरकारी संस्था से जुड़ा हुआ है, इसलिए इस अपराध को भ्रष्टाचार कहा जाता है। वैसे सारे भ्रष्टाचार अपराध होते हैं और सारे अपराध भ्रष्टाचार हैं।

बिहार का टाॅपर घोटाला नीतीश सरकार पर लगा एक बहुत बड़ा काला धब्बा है। इसने बिहार की परीक्षा व्यवस्था पर ही सवाल खड़ा दिया है। उसकी संस्थाओं द्वारा ली गई परीक्षाओं के नतीजों पर अब पूरे देश में सवाल खड़े किए जाएंगे। भ्रष्ट तरीके अपना कर कुछ दर्जन या कुछ सौ लोगों ने ही अपने अंक बढ़वाएं होंगे, लेकिन उनके कारण वे लोग भी शक की निगाहों से देखे जाएंगे, जो वास्तव में अपनी योग्यता के कारण अच्छे अंक पा सके हैं। इस तरह इस घोटाले ने न केवल अयोग्य लोगों को बेहतर प्रमाण पत्र दिलवा दिए हैं, बल्कि योग्य लोगों को भी उन्हीं घोटालेबाजों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर दिया है।

घोटाला इस साल पकड़ा गया। एक टीवी चैनल ने दो टाॅपरों का इंटरव्यू किया और लोगों ने देखा कि उन दोनों को अपने विषयों के बारे में भी ज्यादा कुछ जानकारी नहीं है। फिर घोटाले पर हंगामा हुआ, लेकिन इस हंगामे में इस तथ्य को नजरअंदाज कर दिया गया है कि घोटाले के लाभान्वित सिर्फ वे ही दो या तीन लोग नहीं हैं, जिनके नतीजे रोक दिए गए हैं। बल्कि उनकी संख्या सैंकड़ों या हजारों में होगी। घोटाला कोई एक साल से नहीं चल रहा है, बल्कि यह कई सालों से चल रहा है। हर साल टाॅपर करने वाले बच्चे और बच्चियां उन घोटालों में शामिल हो भी सकते हैं और नहीं भी हो सकते हैं। यह एक पुरानी बीमारी है। और इसकी जांच सिर्फ पुलिस नहीं कर सकती। इसके लिए व्यापक जांच बैठाने की जरूरत है और जब से लालकेश्वर सिंह बिहार विद्यालय परीक्षा समिति के अध्यक्ष बने हैं, तब से जारी किए गए 10वीं और 12वीं के नतीजों और खासकर उनके टाॅपरों की जांच की जानी चाहिए।

लालकेश्वर सिंह को बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का अध्यक्ष किसी और ने नहीं, बल्कि खुद नीतीश कुमार ने बनाया था। उनकी पत्नी उषा सिन्हा नीतीश कुमार के जनता दल(यू) की विधायक रह चुकी हैं और वह भी इस घोटाले से जुड़ी हुई बताई जा रही हैं। उषा सिन्हा 2010 से 2015 तक हिलसा विधानसभा क्षेत्र की विधायिका भी थी। पिछले विधानसभा चुनाव में यह सीट राष्ट्रीय जनता दल के खाते में चली गई, इसलिए उनको टिकट नहीं मिला, अन्यथा वह आज भी विधानसभा की सदस्य होतीं।

जाहिर है, लालकेश्वर सिंह को अध्यक्ष बनाने की निर्णय ही गलत था और वह निर्णय ख्ुाद नीतीश कुमार का था। उन्हें यह बताना चाहिए कि आखिर उन्होंने उन्हें क्यों अध्यक्ष बनाया? कहा जा रहा है कि लालकेश्वर सिंह का अतीत भी अच्छा नहीं था और उनमें इस पद पर बैठने की योग्यता भी नहीं थी। फिर भी उन्होंने उन्हें अध्यक्ष बनाया, तो दाल में जरूर कुछ काला दिखाई पड़ता है। इतने महत्वपूर्ण पद पर किसी व्यक्ति को बैठाने के पहले उसके बारे में अच्छी तरह से जांच पड़ताल करने की जरूरत क्यों नहीं समझी जाती?

सच कहा जाय, तो बिहार में भ्रष्टाचार पहले से ज्यादा बढ़ गया है। बिहार विद्यालय परीक्षा समिति का भ्रष्टाचार सिर्फ एक उदाहरण मात्र है। अन्य तमाम महकमों में भ्रष्टाचार है और किसी को यह कहने में बिहार में संकोच नहीं होता कि नीतीश सरकार बनने के बाद बिहार में भ्रष्टाचार और बढ़ गया। वैसे भ्रष्टाचार के मामले में बिहार हमेशा कुख्यात रहा है, लेकिन नीतीश सरकार में इसने सभी सीमाएं तोड़ दी हैं और उसका एक ताजा उदाहरण बिहार का यह टाॅपर घोटाला है। (संवाद)