पिछली बार जब केदारनाथ और कश्मीर में भीषण तबाही हुई थी, तब तमाम अध्ययनों के बाद चेतावनी दी गई थी कि अगर पहाडों की अंधाधुंध कटाई और नदियों के बहाव से अतार्किक छेडछाड या उसके दोहन पर रोक नहीं लगाई गई तो नतीजे भयावह होंगे। कुछ समय पहले पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद केंद्रीय गृह मंत्रालय के आपदा प्रबंधन विभाग से जुडे वैज्ञानिकों ने भी चेतावनी दी थी कि पहाडों और नदियों से छेडछाड का सिलसिला रोका नहीं गया तो आने वाले समय में समूचे उत्तर भारत में भीषण तबाही मचाने वाला भूकंप आ सकता है।
सारी आपदाओं और उनके मद्देनजर दी गई चेतावनियों का एक ही केंद्रीय संकेत है कि हिमालय को लेकर अब हमें गंभीर हो जाना चाहिए। दुनिया के जलवायु चक्र में तेजी से हो रहे परिवर्तन के चलते हिमालय का मामला इसलिए भी बहुत ज्यादा संवेदनशील है कि यह दुनिया की ऐसी बड़ी पर्वतमाला है, जिसका अभी भी विस्तार हो रहा है। इस पर मंडराने वाला कोई भी खतरा सिर्फ भारत के लिए ही नहीं बल्कि चीन, नेपाल, भूटान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार आदि देशों के लिए भी संकट खड़ा कर सकता है।
हिमालय पर्वतमाला को भले ही दुनिया में सबसे नई पर्वतमाला माना जाता हो, लेकिन तथ्य यह भी है कि इसी हिमालय की गोद में दुनिया की कई महान सभ्यताओं का जन्म और विकास हुआ है। कॉकेशश से लेकर भारत के पूर्वी छोर से भी आगे म्यांमार में अराका नियोमा तक सगरमाथा यानी माउंट एवरेस्ट की अगुवाई में फैली हुई विभिन्न पर्वतमालाएं हजारों-लाखों वर्षों के दौरान विभिन्न सभ्यताओं के उत्थान और पतन की गवाह रही हैं। इन्हीं पर्वतमालाओं के तले सिंधु घाटी की सभ्यता से लेकर मोअनजोदड़ो की सभ्यता तक का जन्म हुआ। इन्हीं पर्वत श्रृंखलाओं की बर्फीली चट्टानों ने साईबेरिया की बर्फीली हवाओं के थपेड़ों से समूचे दक्षिण एशिया के बाशिंदों की रक्षा की और इस इलाके में दूर-दूर तक फैले हुए किसानों, वनवासियों और अन्य समूहों को फलने-फूलने में भी भरपूर मदद की। विडंबना यह है कि जिन पर्वतमालाओं की छांह तले यह सब संभव हो पाया, आज वही पर्वतमालाएं मनुष्य की खुदगर्जी और सर्वग्रासी विकास की विनाशकारी अवधारणा की शिकार होकर पर्यावरण के गंभीर खतरे से जूझ रही हैं। इस खतरे से न सिर्फ इन पहाड़ों का बल्कि इनके गर्भ में पलने वाले प्राकृतिक ऊर्जा और जैव संपदा के असीम स्रोतों और इन पहाड़ों से निकलने वाली नदियों का अस्तित्व भी संकट में पड़ गया है।
भारतीय उपमहाद्वीप की विशिष्ट पारिस्थितिकी की कुंजी हिमालय का भूगोल है। लेकिन हिमालय की पर्वतमालाओं के बारे में पिछले दो-ढाई सौ बरसों में हमारे अज्ञान का लगातार विस्तार हुआ है। इनको जितना और जैसा बर्बाद अंग्रेजों ने दो सौ सालों में नहीं किया था उससे कई गुना ज्यादा इनका नाश हमने पिछले साठ-पैंसठ सालों में कर दिया है। इनकी भयावह बर्बादी को ही दक्षिण-पश्चिम एशिया के मौसम चक्र में बदलाव की वजह बताया जा रहा है, जिससे हमें कभी भीषण गरमी का कहर तो कभी जानलेवा सर्दी का सितम झेलना पड़ता है और कभी बादल फट पड़ते है तो कभी धरती दरकने या डोलने लगती है पहाड़ धंसने लगते हैं। समूचे भारतीय उपमहाद्वीप को बुरी तरह हिला देने वाले हाल के समय में नेपाल और पूर्वोत्तर के भूकंप और उससे पहले उत्तराखंड और कश्मीर में आई प्रलयंकारी बाढ़ को इसी रूप में देखा जा सकता है। हजारों-हजार जिंदगियों को लाशों में तब्दील कर गई तथा लाखों लोगों को बुरी तरह तबाह कर गई इन त्रासदियों को दैवीय आपदा कहा गया लेकिन हकीकत यह है कि यह मानव निर्मित आपदाएं थी।
दरअसल, कुछ अपवादों को छोड़ दें तो कभी भी हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं, क्योंकि हम इसकी भव्यता और इसके सौंदर्य में ही खो गए। हिमालय को हमेशा देश के किनारे पर रखकर इसके बारे में बड़े ही सतही तौर पर सोचा गया है, जबकि यह हमारे या अन्य एक-दो देशों का नहीं, बल्कि पूरे एशिया के केंद्र का मामला है। हिमालय एशिया का वाटर टावर माना जाता है और यह बड़े भू-भाग का जलवायु निर्माण भी करता है। देश की ही बात करें तो हमारे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल के 16.3 फीसद क्षेत्र मे फैले हिमालयी क्षेत्र को समृद्ध वाटर टैंक के रूप में जाना जाता है। इसमे 45.2 फीसद भूभाग में घने जंगल है। लिहाजा हिमालय क्षेत्र की प्राकृतिक संपदा से ज्यादा छेड़छाड़ घातक साबित हो सकती है। अगस्त, 2011 मे साइंस जर्नल मे छपे एक शोध 'हिमालय पर बढ़ रहा दबाव’ में स्पष्ट चेतावनी दी गई है कि हिमालयी क्षेत्र में चारों ओर हो रही छेड़छाड़ हिमालयी राज्यों को बुरी तरह तबाह कर सकती है।
हिमालय को बचाने की बातें तो बहुत होती हैं, लेकिन सब कुछ कागजों पर अंकित होकर ही रह जाती है। केंद्रीय जल और मृदा संरक्षण अनुसंधान एवं प्रशिक्षण संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक विकास के नाम पर बड़े बांध बनाने की होड में भारत आज पूरे विश्व में तीसरे स्थान पर है। बिजली बनाने के लिए नदियों को बंधक बनाने का यह उपक्रम प्राकृतिक असंतुलन और बार-बार होने वाली तबाही का सबसे बड़ा कारण है। हिमालयी राज्यों में बीते एक दशक में तीन गुना बिजली उत्पादन बढ़ा है। पर्यावरण के लिए काम करने वाली संस्था सेंटर फॉर साइंस ऐंड इनवायरमेंट ने 2013 में केदारनाथ त्रासदी के बाद हिमालयी राज्यों में पनबिजली योजनाओं और विकास के नाम पर जारी अन्य गतिविधियों पर भी शिकंजा कसने की बात कही थी लेकिन इस सलाह पर किसी ने कान नहीं दिए। भारत सरकार ने हिल एरिया डेवलपमेंट नाम से एक योजना अवश्य चलाई, लेकिन इसके विकास के मानक आज भी मैदानी हैं, जिसकी वजह से हिमालय का शोषण बढ़ा है। हालांकि नीति आयोग के समक्ष यह बात रखी गई है कि हिमालय के विकास का मॉडल अलग से बने। इस पर नीति आयोग सैद्धांतिक रूप से अपनी सहमति भी प्रदान कर चुका है, लेकिन इससे आगे कुछ नहीं हो पाया है। नेशनल एक्शन प्लान ऑन क्लाइमेट चेंज में हिमालयी ग्लेशियरों पर उत्पन्न संकट का समाधान करने के लिए समुदाय आधारित वन भूमि संरक्षण पर जोर दिया गया है। लेकिन इस दिशा में भी कोई काम नहीं हो रहा है। यूपीए सरकार ने हिमालय इको मिशन बनाया था ताकि हिमालय में भूमि प्रबंधन के साथ ही वन संरक्षण और जल संरक्षण के काम को मजबूती दी जा सके। लेकिन इको मिशन कागजों पर ही धरा रहा गया। वर्तमान राजग सरकार ने गंगा को बचाने के लिए योजनाएं बनाई हैं, लेकिन महज योजनाओं से काम नहीं चलने वाला है। गंगा को बचाने से भी ज्यादा जरूरी है हिमालय को बचाना। हिमालय बचेगा तो ही गंगा भी बचेगी। (संवाद)
हिमालयी राज्यों पर तबाही के बादल
हिमालय और इससे जुड़े मसलों पर कोई गंभीर विमर्श हुआ ही नहीं
अनिल जैन - 2016-07-28 17:40
हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड पर कुदरत फिर कहर बरपा रही है। वहां पिछले दिनों बादल फटने और जमीन धंसकने से जान-माल का भारी नुकसान हुआ है। इस वक्त भी कई इलाकों में जल प्रलय जैसे हालात बने हुए हैं। वैसे भी अब तो बरसात के मौसम में भारतीय उपमहाद्वीप के पहाडी इलाकों खासकर हिमालय की गोद में बसे राज्यों में बादल फटने, पहाड धंसने, जमीन दरकने और कभी भूंकप के झटकों की वजह से भारी जान-माल का नुकसान अब आम बात हो गई है। अभी मानसून अपने शुरुआती दौर में ही है और उत्तराखंड को कुदरत के प्रकोप से दो-चार होना पड रहा है, जिसके चलते आम जनजीवन ठप है और बडी संख्या में लोग बेघर हो गए हैं। इस तरह की तबाही को हिमाचल प्रदेश, जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर के राज्य भी अक्सर भुगतते रहते हैं।