1990 के मंडल आंदोलन की पृष्ठभूमि में हुए चुनावों में ही जाति को सार्वजनिक सभाओं में इतना तूल दिया था। बाद में चारा घोटाला में फंसने के बाद जब लालू यादव का पतन शुरू हो गया, तो उन्होंने अगड़ी जातियों पर भी डोरा डालना शुरू कर दिया था और उनकी कोशिश अगड़ी जातियों के साथ गठबंधन करने की थी। वे पिछड़े वर्ग की राजनीति से निकलकर यादव, मुस्लिम और राजपूत का गठबंधन भी करना चाहते थे। अपनी जाति के बाहर के पिछड़ों के प्रति लालू का रवैया सही नहीं था और वे उन्हें सत्ता में भागीदारी नहीं देना चाहते थे। इसलिए उन्होंनें यादवों के साथ मुसलमानों के साथ समीकरण बनाकर उसमें राजपूतों को भी शामिल करने की कोशिश की। उसमें वे सफल नहीं हुए, तो फिर उन्होंने भूमिहारों के साथ यादवों के रोटी-बेटी संबंध की बात करनी शुरू कर दी। लेकिन वे भी उनके साथ नहीं जुडे़।
यादववाद की जातिवादी राजनीति और मुस्लिमों में सांप्रदायिक भाव पैदा कर उसके साथ एक जातिवादी सांप्रदायिक गठबंधन पर निर्भर रहने के कारण गैर यादव ओबीसी लालू से दूर होते गए। सबसे पहले दूर होने वाला तो नीतीश की कुर्मी जाति के लोग ही थे। उसके कारण नीतीश ने भी लालू का साथ छोड़ दिया। समय के साथ साथ अन्य गैर यादव ओबीसी भी लालू से दूर होते गए, जिसका फायदा नीतीश कुमार और भाजपा को मिला। गैर यादव ओबीसी समर्थन से वंचित हो जाने के बाद लालू एक के बाद एक चुनाव हारते रहे। पिछले 10 साल में उनकी पार्टी 5 चुनाव हार चुकी है। वे खुद भी दो बार लोकसभा के चुनाव हारे। उनकी पत्नी राबड़ी देवी पिछले विधानसभा चुनाव में दो सीटों से लड़ी और दोनों जगहों से भारी मतों से हार गईं। पिछले लोकसभा चुनाव मंे भी राबड़ी देवी और उनकी बड़ी बेटी चुनाव लड़ रही थीं और दोनों की पराजय हुई।
बार बार पराजित होने के बाद लालू का आत्मविश्वास टूट गया है। उसका फायादा नीतीश कुमार उठा रहे हैं। अपने इस बुरे दौर में भी लालू यादव बिहार के यादवों के सबसे बड़े नेता हैं और उनका एक बड़ा हिस्सा उनके इर्द गिर्द चुनावों में गोलबंद हो जाता है। यह दूसरी बात है कि उनका समर्थन लालू की जीत सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त नहीं है और लालू चुनाव हार जाते हैं। मुस्लिम- यादव समीकरण का जातिवादी सांप्रदायिक गठजोड़ भी लालू को जीत दिलाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
कहा जाता है ’मरता क्या न करता’। यानी मरने वाला अपनी जान बचाने के लिए क्या नहीं करता है। यही कहावत लालू के ऊपर लागू हो रहा है। अब वे एकबार फिर पिछड़ा पिछड़ की रट लगा रहे हैं। पिछड़ा पिछड़ा के साथ वे यादव यादव का भी शोर कर रहे हैं। इसका कारण यह है कि उन्हें पप्पु यादव जैसे लोगों से अपने यादव जनाधार में भी सेंध लगने का खतरा है। उधर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बिहार आकर जबतक यदुवंश की चर्चा कर जाते हैं। इसलिए लालू को डर लगता है कि कहीं उनका यादव जनाधार थोड़ा बहुत भाजपा की ओर खिसक न जाय। इसलिए वे साफ साथ अपनी जाति का नाम लेकर भाषण कर रहे हैं।
लालू यादव तो अपनी जाति पर पूरी तरह उतर आए है, लेकिन नीतीश कुमार अब भी अपने आपको सब वर्गों का नेता दिखने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन उन्हें पता है कि लालू जिस तरह की राजनीति करने पर उतारू हो गए हैं, उसे देखते हुए उनके साथ जो कुछ भी अगड़ा समर्थक हैं, वे उनसे दूर भाग जाएंगे। नीतीश की त्रासदी यह है कि वे दलितों को भी नाराज कर चुके हैं। उन्होंने दलितों में दलित और महादलित का विभाजन कर सबसे ताकतवर पासवान समुदाय को पहले ही नाराज कर दिया था। पासवानों के खिलाफ कथित महादलितों का हितैषी बनकर वे उनका समर्थन पा रहे थे, लेकिन जीतनराम मांझी प्रकरण ने नीतीश का पूरा का पूरा दलित खेल बिगाड़ दिया है। गैर पासवान दलितों मंे अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए नीतीश ने पहले जीतन राम मांझी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया। फिर उन्हें अपने रबर स्टांप की तरह इस्तेमाल करने लगे। पर जब जीतन राम मांझी के सब्र का बांध टूट गया और वे हुक्म उदूली करने लगे, तो उन्हें अपमानित कर उन्होंने मुख्यमंत्री पद से ही हटवा दिया। इसके कारण बिहार का पूरा दलित समुदाय आज नीतीश से नाराज है। उनके नाममात्र वोट ही उन्हें और उनके समर्थित उम्मीदवारों को मिल पाएंगे। अगड़ी जातियों को तो उनके खिलाफ जाना ही है। जो थोड़े बहुत उनके साथ अगड़े रह गए हैं, वे भी लालू की धमकियों के कारण उन्हें छोड़कर भाग खड़े होंगे।
इसलिए नीतीश के पास भी ओबीसी के अलावा और कोई विकल्प नहीं रह गया है। मुस्लिम उनके साथ हैं, लेकिन उतने वोट से काम नहीं चलेगा। अब मतदान का प्रतिशत ज्यादा हो गया है। जैसे जैसे मतदान का प्रतिशत ज्यादा हो रहा है, मुस्लिम वोटों का महत्व घटता जा रहा है। यदि गैर यादव गैर कुर्मी ओबीसी मत अच्छी खासी संख्या में नहीं मिले, तो यादव, कुर्मी और मुस्लिम मत नीतीश के कुछ काम के नहीं साबित होंगे।
यही कारण है कि विशुद्ध जातिवादी पर उतर आने के अलावा नीतीश कुमार के पास कोई अन्य विकल्प नहीं है। लेकिन अपने 10 साल के शासनकाल में उन्होंने ओबीसी की जो उपेक्षा की है, उसके कारण उसका बहुत बड़ा हिस्सा उनसे नाराज है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी ओबीसी ही हैं और कुछ महीने पहले ही नीतीश कुमार ने बिहार में नरेन्द मोदी की जाति तेली को पिछड़े वर्ग की सूची से निकालकर अत्यंत पिछड़े वर्ग की सूची मंे डाल दिया है। इसके कारण अब नरेन्द्र मोदी को वहां के भाजपा नेता अति पिछड़ा बताकर उनका वोट पाने की कोशिश करेंगे। इस तरह भाजपा और नीतीश गठबंधन के बीच ओबीसी मतों को लेकर भारी संग्राम छिड़ने वाला है। ये दोनों विकास की बातें बहुत करते रहे हैं, लेकिन इस चुनाव में सिर्फ जाति की बातें होंगी। (संवाद)
नीतीश की स्वाभिमान रैली में विकास की गंगा पर जाति की गंगा हावी
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-08-31 11:38
नीतीश के नेतृत्व वाले राजनैतिक गठबंधन ने पटना में एक रैली आयोजित कर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर दिया और चुनाव प्रचार किस दिशा में जाएगा, इसे भी तय कर दिया। बहुत सालों के बाद किसी सभा में लालू यादव ने अपनी पिछड़ों और खासकर अपनी जाति का नाम इस तरह से लिया, जिससे अगड़ी जातियों के लोग उनसे दूर भाग जाएं।