उदाहरण के लिए मणिपुर को लें। इस राज्य में पहाड़ी और घाटी का अंतर साफ देखा जा सकता है। घाटी में प्रदेश की कुल 66 प्रतिशत आबादी रहती है वहां रहने वाले लोगांे को मेइती कहते हैं। एक फीसदी आबादी अनुसूचित जातियों की है और इनके अलावा 33 प्रतिशत आबादी अनेक जनजातियों की है, जो पहाड़ों में रहते हैं। पहाड़ी और घाटी के लोगांे के बीच संघर्ष चलते रहता है। मेइतियों को इस बात को लेकर गुस्सा है कि उन्हें पहाड़ी इलाकों में जमीन खरीदने की मनाही है और वह वहां जाकर नहीं बस सकते हैं। लेकिन पहाड़ी लोग घाटी में जमीन खरीद सकते हैं और वहां आकर बस सकते हैं। इसके कारण घाटी में पहाड़ी लोगों की आबादी बढ़ रही है।
दूसरी तरफ पहाड़ी लोगों का कहना है कि सरकार मे मेइतियों का दबदबा है और वे पहाड़ी इलाकों के विकास में दिलचस्पी नहीं दिखा रहे हैं। इसके कारण पहाड़ी लोगों को विवश होकर घाटी में आकर बसना पड़ता है, क्योंकि वहीं उन्हें काम मिलता है और शिक्षा भी मिलती है।
पहाड़ी जनजातियों मंे दो प्रमुख जनजाति हैं- कुकी और नगा। दोनों आपस में लड़ते रहते हैं, लेकिन पिछले साल विधानसभा द्वारा पास किए गए तीन विधेयकों के खिलाफ एकजुट हो गए हैं। उनका कहना है कि वह कानून पहाड़ी लोगों के खिलाफ है। उनका कहना है कि प्रदेश सरकार एक और विधेयक ला रही है, जो पहाड़ी लोगों के हितों के साथ नाइंसाफी करने वाला है।
पिछले साल सितंबर महीने में जब पहाड़ी लोग उन तीनों विधेयकों का विरोध कर रहे थे, तो पुलिस ने गाली चलाई, जिसमें 9 लोग मारे गए थे। मारे जाने वाले लोगों मे एक बच्चा भी था। वे शव अभी भी शवघर में सड़ रहे हैं और लोगों ने उनका संस्कार करने से मना कर दिया है। उनका कहना है कि वे शवों को तभी गाड़ेंगे, तक केन्द्र सरकार उनका आश्वासन देगी कि उन विधेयकों को राष्ट्रपति की सहमित नहीं मिलेगी।
पहाड़ी और घाटी के लोगों के बीच की दरार चैड़ी होती जा रही है। अब पहाड़ी लोग बोल रहे हैं कि विधानसभा में उन्हें समान प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। यानी जितने विधायक घाटी से चुनकर आते हैं, उतने ही विधायक पहाड़ से भी चुनकर आने चाहिए।
यह मांग उन जनजातियों के बीच एकता का कारण बनी है, जो आपस में लड़ती रहती हैं। उदाहरण के लिए कुकी और नगा जनजातियां आपस मे लड़ती रहती थीं, लेकिन अब दोनों मे इस मसले पर एकता हो गई है।
केन्द्र सरकार जनजातियों के आपसी झगड़े का इस्तेमाल कर उन्हें कमजोर करने का काम करती रहती थी। लेकिन अब वे इस डर से एक हो गए हैं कि यदि इन तीनों विधेयकों को राष्ट्रपति की सहमति मिल गई, तो उनकी अपनी जमीन खतरे में पड़ जाएगी। अब उनकी यह एकता केन्द्र सरकार को भारी भी पड़ सकती है।
उनको इस बात पर भी एतराज है कि वे तीनों विधेयकों को वित्तीय विधेयक के रूप में विधानसभा से पास कराया गया, जबकि उनमें वित्तीय प्रावधान ही नहीं हैं। यह पहाड़ी क्षेत्र समिति के हस्तक्षेप से बचने के लिए किया गया, क्योंकि गैर वित्तीय विधेयकों को उस समिति से भी सहमति लेनी होती है।
केन्द्र सरकार को पहाड़ियों और घाटी वासियों के बीच तालमेल बैठाने की कोशिश करनी चाहिए, अन्यथा वहां की समस्या जटिल से जटिलतर होती जाएगी। (संवाद)
मणिपुर में अपने को बेगाना पा रही हैं पहाड़ी जनजातियां
केन्द्र को मैदानी भागों से उनका तालमेल बैठाना चाहिए
बरुण दास गुप्ता - 2016-09-15 18:18
पूर्वाेत्तर राज्यो को आमतौर पर सात बहनें कहा जाता है। ऐसा कहकर यह साबित करने की कोशिश की जाती है कि इन सातों राज्यों में आपस मे सामंजस्य है। ये सात राज्य हैं- असम, मेघालय, मिजोरम, मणिपुर, नगालैं, अरुणाचल प्रदेश और त्रिपुरा। लेकिन सामंजस्य की बात कहना पूरी तरह से गलत है। प्रत्येक राज्य दूसरे राज्य से सांस्कृतिक रूप से अलग है। सांस्कृतिक रूप से ही नहीं, बल्कि उनकी भाषा और आबादी की संरचना भी अलग अलग है। सामाजिक व्यवस्था भी अलग है और राजनैतिक परिस्थितियां भी भिन्न भिन्न हैं। सभी राज्यों के आर्थिक विकास का स्तर भी अलग अलग है। सच कहा जाय, तो एक राज्य के अंदर भी बहुत सारी विषमताएं हैं।