लेकिन अंतिम मुकदमे में जमानत मिलने के बाद जैसे ही वे जेल से निकले, सबकी भवें तन गईं। हंगामा शुरू हो गया। नीतीश सरकार को उस जमानत के लिए जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। कहा जाने लगा कि शहाबुद्दीन की जमानत की अर्जी का सही तरीके से सरकार के वकीलो ने विरोध नहीं किया और उसके कारण ही जमानत मिल गई।
नीतीश सरकार को उस आलोचनाओं से भी कुछ बिगड़ना नहीं था, क्योंकि अनेक नरसंहारों में नीचली अदालतों द्वारा मुजरिमों को सुनाए गए फैसले नीतीश सरकार के कार्यकाल में ही उच्च न्यायालय द्वारा बदल दिए गए थे। तब भी नीतीश सरकार के खिलाफ विरोधी बहुत आग बबूला हुए थे। उन पर आरोप लगाया गया था कि सरकार के वकीलों ने उच्च न्यायालय में सही तरीके से पक्ष नहीं रखा और सारे के सारे आरोपी रिहा कर दिए गए। गौरतलब हो कि उन नरसंहारों मे दलितों और पिछड़ों की हत्या की गई थी और हत्यारे जमींदारों के आदमी थे।
पर नीतीश सरकार की स्थिति उस समय और खराब हो गई, जब जेल से निकलते ही शहाबुद्दीन ने नीतीश पर हमला करना शुरू कर दिया और कह दिया कि वे जननेता नहीं हैं, बल्कि परिस्थितियों के कारण प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बैठे हुए हैं। उन्होंने यहां तक कह दिया कि नीतीश अकेले अपनी पार्टी को 20 से ज्यादा सीटें विधानसभा चुनाव में नहीं दिलवा सकते।
एक तो शहाबुद्दीन को जेल से बाहर निकालने का आरोप लग रहा हो और एक कमजोर मुख्यमंत्री की छवि बन रही हो, उसी बीच शहाबुद्दीन द्वारा उन्हें और भी कमजोर बताने के कारण नीतीश की स्थिति वास्तव में अटपटी हो गई। उन्हें उम्मीद थी कि लालू यादव शहाबुद्दीन की बात का खंडन करेंगे, लेकिन लालू ने भी कहा कि शहाबुद्दीन ने कुछ भी गलत नहीं कहा है और यदि वे अपने नेता लालू यादव में अपनी आस्था व्यक्त कर रहे हैं, तो इससे किसी को परेशानी क्यों होनी चाहिए।
नीतीश के लिए बात यहीं समाप्त नहीं हुई। राजद के उपाध्यक्ष रघवंश प्रसाद सिंह ने शहाबृद्दीन की बातों को दुहरा दिया और कह दिया कि वे शुरू से ही नीतीश को मुख्यमंत्री बनाए जाने के खिलाफ थे, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। रघुवंश प्रसाद सिंह बीच बीच मे नीतीश के खिलाफ अपनी भड़ास निकालते रहते हैं और नीतीश कुमार उनसे परेशान भी नहीं होते, लेकिन शहाबुद्दीन के जेल से बाहर आने के बाद हो रही बदनामियों के बीच इस तरह की बयानबाजी उनको राजनैतिक रूप से बेहद कमजोर करने वाली थी। नीतीश कुमार देश के प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा रखते हैं और अपनी एक राष्ट्रीय छवि बनाने में लगे हुए हैं, लेकिन पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम से उनकी छवि राष्टीªय स्तर पर भी खराब हो रही है।
यही कारण है कि नीतीश कुमार ने भी पलटवार करना शुरू कर दिया है। पहले तो उन्होंने यह कहा कि चुनाव में महागठबंधन ने उनके नाम पर ही जनादेश मांगा था और जनादेश उनको ही मिला है। इसलिए कोई उसे परिस्थितियोंका मुख्यमंत्री नहीं कह सकता। इसमें सच्चाई भी है। राबड़ी देवी के नाम पर अथवा खुद लालू यादव के नाम पर महागठबंधन सत्ता में नहीं आ सकता था। नीतीश के चेहरे पर ही लालू पिछड़े वर्गों के लोगों को एकजुट कर पाए थे।
नीतीश ने दूसरा वार अपने दो मंत्रियों द्वारा प्रेस कान्र्फेंस करवाकर किया। मंत्रियों ने लालू से कहा कि रघुवंश प्रसाद सिंह पर वे लगाम लगवाएं। उस कान्फ्रेंस से भी बड़ा हमला नीतीश ने कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष मंत्री अशोक चैधरी द्वारा किया। अशोक चैधरी ने तो लालू को महागठबंधन से बाहर होने की ही चुनौती दे डाली। यह चुनौती इस तथ्य के बावजूद दी गई कि लालू के महागठबंधन से बाहर होते ही नीतीश की सरकार गिर जाएगी और खुछ अशोक चैधरी भी मंत्री नहीं रह पाएंगे।
अशोक चैधरी की चुनौती का अभी तक लालू ने कोई जवाब नहीं दिया है। वे दे भी नहीं सकते हैं, क्योंकि नीतीश सरकार के बने रहने में ही उनका स्वार्थ सिद्ध होता है। यदि नीतीश लालू के कारण आज प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं, तो नीतीश के कारण लालू के दो बेटे बिहार में मंत्री हैं। नीतीश का अपना कद है और रुतबा है। बिना किसी पद के भी उनका यह रुतवा भले थोड़ा कम हो जाय, पर वह समाप्त नहीं हो सकता, लेकिन यदि लालू के दोनों बेटे मंत्री नहीं रहें, तो फिर उन्हें कौन पूछेगा?
यही कारण है कि लालू यादव ने अब चुप्पी साध रखी है और उसके बाद नीतीश सरकार को शहाबुद्दीन के खिलाफ अपील करने में किसी प्रकार के संशय का सामना नहीं करना पड़ेगा। मामला अब सुप्रीम कोर्ट में जाएगा और ज्यादा उम्मीद यह की जाती है कि शहाबुद्दीन की जमानत रद्द हो जाएगी और उन्हें एक बार फिर जेल जाना पड़ जाएगा। यदि सुप्रीम कोर्ट से जमानत नहीं मिलती है, तो क्राइम कंट्रोल एक्ट (गुंडा एक्ट) के तहत बिहार सरकार फिर से जेल में डाल सकती है।
जब से नीतीश सरकार 2015 में चुनाव के बाद सत्ता में आई है, बिहार के कानून व्यवस्था की स्थिति बिगड़ी है। इसके लिए नीतीश की लालू पर निर्भरता को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। जद(यू) के नेता इस तरह के आरोपों का खंडन करते आ रहे थे, लेकिन शहाबुद्दी प्रकरण ने इस तरह के आरोपों की तीव्रता को बढ़ा दिया है और एक आम आदमी भी इसे सच मानने लगा है।
पर यह नीतीश सरकार के लिए अच्छा मौका लेकर आया है। उन्हें शहाबुद्दीन के खिलाफ न केवल सुप्रीम कोर्ट में जाकर जमानत रद्द करवाना चाहिए, बल्कि चल रहे मुकदमों को भी फास्ट ट्रैक कोर्ट में लाकर उनका जल्दी से जल्दी निबटारा करवा देना चाहिए। (संवाद)
शहाबुद्दीन पर घमसान: सीमित हैं लालू के विकल्प
उपेन्द्र प्रसाद - 2016-09-15 18:23
सीवान के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के जेल से बाहर निकलते ही बिहार की नीतीश सरकार की उलझनें बढ़ गई हैं। शहाबुद्दीन पर अनेक मुकदमे चल रहे हैं। दो मुकदमों मंे तो निचली अदालतो से उन्हें सजा भी सुनाई जा चुकी है और उन्होंने सजा के खिलाफ ऊपरी अदालत में अपील कर रखी है। वे पिछले 11 सालों से जेल में थे और एक एक कर उन्हें जमानत मिलती जा रही थी। एक को छोड़कर अन्य सभी मुकदमों में वे पहले ही जमानत पा चुके थे, लेकिन जमानत के उन फैसलों पर कभी भी किसी ने हंगामा नहीं किया, क्योंकि जमानत मिलने के बाद भी उन्हें जेल में ही रहना था।