लेकिन पिछले दो सौ सालों में मुस्लिम समाज में कोई सामाजिक सुधार का आंदोलन हुआ ही नहीं। हिन्दू समाज में जाति व्यवस्था के खिलाफ भी आंदोलन हुआ, लेकिन मुस्लिम समाज में इसके खिलाफ भी आंदोलन नहीं हो रहा है, जबकि जाति व्यवस्था की स्थिति आज मुस्लिम समाज में हिन्दू समाज से भी बदतर है। महिलाओं की स्थिति तो उसमें बेहद खराब है। हो सकता है कभी हिंदू समाज में महिलाओ की स्थिति मुस्लिम महिलाओ संे बदतर रही हो, लेकिन हमारे समाज सुधारकों ने और खुद महिला आंदोलनों ने उनकी स्थिति में काफी सुधार कर दिया है। पर मुस्लिम महिलाएं आज भी मध्ययुगीन व्याधियों से ग्रस्त हैं।

तीन तलाक, जिसके तहत पुरूष एक ही सांस में तीन बार तलाक बोलकर अपनी पत्नी को तलाक दे देता है, मुस्लिम समाज की सबसे बड़ी समस्या के रूप में देखा जा रहा है। अब तो सामने रहकर बोलने की जरूरत भी नहीं रही। फोन पर तीन बार बोलकर भी तलाक दी जा सकती है और एसएमएस या ईमेल के द्वारा भी ऐसा किया जा रहा है। यानी आधुनिकता और आधुनिक संचार के माध्यमों ने महिलाओं को और भी बेहाल कर दिया है। शायरा बानो का मामला कुछ ऐसा ही है।

तीन तलाक की व्याधि से त्रस्त शायरा बानो ने अदालत की शरण ली है और कुछ मुस्लिम महिला संगठन भी उनका साथ दे रहे हैं। मामला सुप्रीम कोर्ट मे है। उम्मीद की जाती है कि कोर्ट इस मध्ययुगीन सामाजिक रोग को समाप्त कर देगा। मुस्लिम समाज को इस बदलाव के लिए मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। लेकिन जिस तरह की प्रतिक्रयाएं मुस्लिम समाज का नेतृत्व करने का दावा करने वाले कुछ लोगों की तरफ से आ रही हैं, वे न केवल आपत्तिजनक हैं, बल्कि शर्मनाक भी हैं।

यह अच्छी बात है कि मुस्लिम समाज में सुधार के स्वर मुस्लिम समाज से ही उठ रहे हैं। शिक्षा के साथ मुस्लिम महिलाओ के अंदर से एक ऐसा नेतृत्व खड़ा होना ही था, जो उसकी खामियों के खिलाफ आवाज उठाए। आज जागरूक मुस्लिम महिलाएं मुखर हो गई हैं और वे तीन तलाक और बहुपत्नीवाद के खिलाफ सक्रिय रूप से बोल रही हैं। मुस्लिम समुदाय के सभ्य लोगों को उनका साथ देना चाहिए और बाहर से उनपर कोई दबाव देकर उन्हें अपने हिसाब से मोड़ने की कोशिश करे, उसके पहले ही उन्हें खुद अपने अंदर सुधार करना चाहिए।

कुछ मुस्लिम कठमुल्ले कुरान और हदीस का हवाला देकर तीन तलाक को सही ठहरा रहे हैं, लेकिन जब उसी कुरान और उसी हदीस के हवाले से भारत में चल रही इस प्रैक्टिस के खिलाफ बोला जाता है और कुरान को उद्घृत किया जाता है, तो उनकी बोलती बंद हो जाती है। कुरान मे क्या लिखा हुआ और उसकी क्या व्यवस्था है, उसके बारे में गैर मुस्लिम लगभग नही ंके बराबर जानते हैं। मुस्लिम समुदाय मंे भी अशिक्षा के कारण कुरान के बारे में अधिकांश लोगों के पास बहुत ही कम जानकारी है। उनकी जानकारी के स्रोत यह कठमुल्ले हैं, जो अपनी सुविधा के अनुसार उन्हें बताते हैं और अपनी सुविधा के अनुसार ही अनेक बातें उनसे छिपा भी लेते हैं। लेकिन इन कठमुल्लों के खिलाफ कुछ प्रगतिशील और अच्छी मंशा के लोग भी हैं, जो कुरान की व्यवस्थाओं को जानते हैं और उनके आधार पर कठमुल्लों द्वारा फैलाई जा रही भ्रांतियों को चुनौती भी देते हैं। आज टी वी मीडिया इस तरह की बहसों के मैदान बने हुए हैं और प्रायः देखा जाता है कि कुरान को इन प्रगतिशील लोगों द्वारा उद्धृत किए जाने पर वे कठमुल्ले गाली गलौज पर उतर आते हैं, जो उनकी और उनकी दलीलों की कमजोरी को ही दर्शाता है।

भारत कोई इस्लामिक देश नहीं है। इसका संविधान धर्मनिरपेक्ष है। इसका मतलब है कि यहां के कानून धार्मिक व्यवस्थाओं से प्रभावित नहीं होता, हालांकि सभी को अपने धर्मो को मानने की आजादी भी दी गई है। इसी आजादी को ढाल बनाकर धर्मनिरपेक्ष संविधान की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। लेकिन जो इस्लामिक देश हैं, उनमें भी कई देशों में भारत की तरह तीन तलाक देने की आजादी नहीं है। पड़ोसी पाकिस्तान में भी ऐसी व्यवस्था नहीं है। बांग्लादेश की मुस्लिम महिलाएं भी उतनी असुरक्षित नहीं हैं, जिनती भारत की मुस्लिम महिलाएं हैं। जब पाकिस्तान जैसे इस्लामी देश में तीन तलाक पर बंदिशें हैं, तो धर्मनिरपेक्ष भारत में धार्मिक आजादी का हवाला देकर पुरुष मनमानी करने का अधिकार कैसे हासिल कर सकते हैं?

मुस्लिम महिलाओ में शिक्षा का स्तर जितना ऊंचा होगा और महिलाएं स्वतंत्र होकर जितना सोंचेगी, तीन तलाक, हलाला और बहुपत्नी प्रथा के खिलाफ वे उतना ही ज्यादा आंदोलित होंगी। आज भी वे इनके खिलाफ बोल रही हैं। ये प्रथाएं सिर्फ महिलाओं के खिलाफ ही नहीं हैं, बल्कि इनसे मानवता भी शर्मसार होती है। धार्मिक अधिकारों की आड़ मे पुरुष समाज इनके द्वारा अपने लिए अय्याशी का आधार तैयार करता है और इसका शिकार वे महिलाएं होती हैं, जो मुसलमानों में भी कमजोर वर्गों की है। इसके कारण अनेक घर भी बर्बाद हो जाते हैं, क्योंकि आवेश में आकर तलाक देने के बाद अनेक बार पुरुष भी पछताता है, लेकिन तब उसके पास सीमित विकल्प बच जाते हैं और उन्हें हलाला जैसी अमानवीय रश्म का शिकार होना पड़ता है। यहां भी शिकार महिलाएं ही होती हैं। वे अपने पति के गुनाह की सजा भोगती है।

अब केन्द सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में अपनी राय रख दी है और तीन तलाक के पक्ष और विपक्ष में दिए गए तर्को को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि अब इस सामाजिक बुराई के अंतिम दिन शुरू हो गए हैं। मुस्लिम समाज को इसे स्वीकार करने के लिए अभी से मानसिक रूप से तैयार रहना चाहिए। (संवाद)