लोग कष्ट सहने के लिए भी तैयार थे, लेकिन दो नोटों को गैरकानूनी घोषित करने के बाद जो स्थिति पैदा हुई, उसकी सही तरीके से तैयारी केन्द्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक ने नहीं की थी। भारत एक बाजार आधारित अर्थव्यवस्था है और बाजार करेंसी नोटों से चलता है। मुदा के अभाव में बाजार चल ही नहीं सकता। पर एक झटके में प्रधानमंत्री ने बाजार में प्रचलित मुद्रा के 85 फीसदी हिस्से को गैरकानूनी घोषित कर दिया। इसके कारण बाजार का 85 फीसदी विमुद्रीकरण हो गया।

नोटबंदी के निर्णय से बाजार का जो विमुद्रीकरण हुआ था, उससे उत्पन्न समस्या को हल करने के लिए उसका तेजी से मुद्रीकरण किया जाना जरूरी हो गया था और उसके लिए नयी वैध मुद्रा की जरूरत थी। उस मुद्रा को बैंकिंग व्यवस्था द्वारा ही बाजार में डाला जा सकता है। अब साफ हो गया है कि विमुद्रीकरण से उत्पन्न समस्या से हल करने के लिए न तो बैंकिंग व्यवस्था को तैयार किया गया था और न ही पर्याप्त पैमाने पर कैश उपलब्ध था।

करीब 14 लाख करोड़ रुपये के नोटों के चलने पर एकाएक पाबंदी लगा दी गई। जिनके पास पुरान नोट थे उन्हें बदलने की गारंटी तो सरकार ने दे दी, लेकिन मुद्रा के अभाव में सारी आर्थिक गतिविधियां ठप हो जाती है, और आर्थिक गतिविधियांे को बनाए रखने के लिए क्या किया जाएगा, इसके बारे में सरकार ने विचार ही नहीं किया। जाहिर है, सरकार ने एक बड़े आर्थिक पक्ष पर विचार ही नहीं किया।

सरकार ने विमुद्रीकरण की समस्या को नोट धारकों की ही समस्या मान लिया और धारकों को 31 दिसंबर तक का समय दे दिया गया कि तब तक उनके सारे नोट बदल दिए जाएंगे। धारकों में भी उन्होंने उपभोक्ता धारकों पर ही ध्यान दिया और सोचा कि वे अपनी उपभोक्ता जरूरतो को कुछ दिनों तक स्थगित रखकर नई परिस्थितियों का सामना कर सकते हैं। उपभोक्ता इस तरह के कष्ट को बर्दाश्त कर सकता है, लेकिन जहां उत्पादन हो रहा है,वस्तुओं का परिवहन हो रहा है और अन्य आर्थिक गतिविधियां हो रही हैं, वे 50 दिनों का इंतजार नहीं कर सकती। अनेक आर्थिक गतिविधियों को तो एक दिन के लिए भी बंद नहीं किया जा सकता है। और उन आर्थिक गतिविधियों को चलते और चलाते रहने के लिए मुद्रा चाहिए ही चाहिए। पर एकाएक 85 फीसदी मुद्रा बाजार से बाहर हो गई।

सरकार ने एक हजार और पांच सौ रुपये की मुद्रा के बदले 2 हजार रुपये की मुद्रा जारी करना शुरू कर दिया। बाजार में किसी एक मूल्य की मुद्रा नहीं होती। अनेक मूल्यों की मुद्राएं होती हैं और सब मिलकर बाजार को चलाती हैं। सच कहा जाय तो मुद्रा सिर्फ बाजार को ही नहीं चलाती बल्कि खुद मुद्रा को भी चलाती है। 500 और एक हजार रुपये के नोट न रहने पर 2000 रुपये के नोट कैसे चलेंगे, इसके बारे में न तो सरकार ने और न ही भारतीय रिजर्व बैंक ने सोचा। उसका ध्यान सिर्फ इस बात पर था कि लोगों को पुराने नोटों की जगह कुछ नए नोट दे डालो और उनकी तात्कालिक समस्या हल हो जाएगी, लेकिन जब 85 फीसदी मुद्रा बाहर हो जाने के कारण छोटे मूल्यों की मुद्रा 15 फीसदी ही रह गई थी, तो फिर वह 2000 रुपये के नोट को कैसे चला सकती थी? 2000 रुपये के नोट के बाद सबसे बड़ा नोट 100 रुपये था और उसकी संख्या बहुत कम थी। जाहिर है 2000 के नोट ने उपभोक्ताओं की तात्कालिक आवश्यकता को पूरा नहीं किया, क्योंकि वह अपने से कम कीमत वाली मुद्राओं के अभाव में चल ही नहीं सकता था। हमारे नीति निर्माताओं ने इस तथ्य को कैसे नजरअंदाज कर दिया, यह आश्चर्य की बात है।

जाहिर है बाजार और अर्थव्यवस्था की फौरी आवश्यकता को नजरअंदाज करते हुए यह निर्णय लिया गया। दो हजार की जगह पहले 500 का नोट जारी किया जाना चाहिए था। 2000 का नोट तभी बाजार में लाया जाना चाहिए था, जब 500 के नोट पर्याप्त संख्या मे बाजार में आ जाते, क्योंकि 2000 रुपये के नोट का 500 के नोट ही चला सकते थे।

लेकिन अब यह साफ हो गया है कि जिस दिन इस निर्णय को लागू किया गया, उस दिन तक 500 के नोट या तो छपे ही नहीं थे या नाम मात्र के छपे थे। उसे बाजार में लाने में एक सप्ताह लग गए और जब तक बाजार तबाह हो चुका था। सरकार के इस अच्छे निर्णय का समर्थन करने वाले लोग परेशान होने लगे।

एटीएम बैंकिंग व्यवस्था की लाइफलाइन बन गई है। इसके वजूद में आने के बाद अब अनेक लोग इससे ही पैसे निकालने लगे हैं जो अब अपने खर्च के लिए चेक का भुगतान नहीं करते, उनमें से अधिकांश तो अपना नमूना हस्ताक्षर तक भूल जाते हैं, जो उन्हें अपने बैंकों में रिकाॅर्ड कर रखा है, क्योंकि वे लंबे समय तक अपने चेक से पैसा निकालते ही नहीं। और बैंकिग व्यवस्था की लाइफलाइन एटीएम मशीने भी अपनी कारगरता खो रही हैं, क्योंकि उनसे सिर्फ सौ रुपये ही निकाला जा सकता है। यदि सरकार को यह निर्णय लेना ही था और उसे एटीएम संचालित करने वाले लोगों से भी गुप्त रखना था, तो उसे 500 का नया नोट उसी साइज और वजन का बनाना चाहिए था, जिस साइज और वजन का पुराना 500 का नोट था। ऐसा करने पर एटीएम मशीनें पहले दिन से ही 500 के नोटों को बांट सकती थीं और बाजार के मुद्रीकरण की गति को वह 5 गुना तेज कर सकती थी। लेकिन हमारे नीति निर्माताओं ने इस पर भी ध्यान नहीं दिया और आज वह हो रहा है, जिससे बचा जा सकता था। (संवाद)