कीमतें तो बढ़ ही रही हैं। लेकिन बढ़ रही कीमतों पर सरकार का शुरुआती रवैया गैर जिम्मेदाराना रहा। कृषि मंत्री की बयानबाजी कीमतों को और बढ़ाने में मददगार रही। जमाखोरों को उनकी बयानबाजी से प्रोत्साहन मिला। योजना आयोग के उपाध्यक्ष ने तो महंगाई को स्वीकार करने से ही इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि महंगाई के बारे में मध्यवर्ग बेवजह हंगामा मचा रहा है, वास्तव में महंगाई है ही नहीं।

महंगाई को तर्कसंगत ठहराने की कोशिशें भी हुईं। कहा गया कि मानसून की विफलता के कारण महंगाई को बढ़ना ही था। यह भी कहा गया कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में भी कीमतें बढ़ी हैं तो फिर भारत इसका अपवाद कैसे रह सकता है। खाद्य मंत्री शरद पवार ने तो यहां तक कह दिया कि भारत में अन्य देशों की अपेक्षा अभी भी खाने पीने की चीजें सस्ती हैं। इससे ज्यादा गैर जिम्मेदाराना बयान तो हो ही नहीं सकता था, क्योंकि जिन देशों की चर्चा श्री पवार कर रहे थे, वहां की आमदनी भारत के लोगांे की औसत आमदनी से 100 गुना से भी ज्यादा है।

जाहिर है, केन्द्र सरकार ने बढ़ती कीमतों के मसले पर गैर जिम्मेदाराना रवैया अपनाया। यह सच है कि मानसून खराब रहा है और फसल का उत्पादन प्रभावित हुआ है। लेकिन यह तो हमारे नीति निर्माताओं को पहले से ही पता था। उन्होंने मानसून की विफलता के कारण कम अनाज की पैदावार से उपजने वाली समस्या के हल के लिए कोई उपाय किया ही नहीं। निर्यात पर समय पर रोक नहीं लगाई गई। खाद्य सुरक्षा की सरकार खूब चर्चा करती है। मनमोहन सरकार ने दूारी बार सत्ता संभालने के बाद 100 दिन के अपने कार्यक्रम में खाद्य सुरक्षा की भी चर्चा की थी, लेकिन उसके लिए कुछ किया ही नहीं गया।

भारतीय रिजर्व बैंक ने पहली बार जब महंगाई के खतरे से देश को आगाह कराया तो केन्द्र सरकार की नींद टूटी। उसके पहले विपक्ष सरकार के खिलाफ महंगाई पर बोल रहा था, तो उसे उसकी राजनीति मानकर नजर अंदाज किया जा रहा था। कांग्रेस के प्रवक्ता भी महंगाई पर बोल रहे थे। उनकी आवाज को भी केन्द्र सरकार अनसुनी कर रही थी। लेकिन जब भारतीय रिजर्व बैंक ने खाद्यान्नों की बढ़ती कीमतों के कारण अर्थतंत्र के अन्य मोर्चों पर भी तबाही आने की भविष्यवाणी की, तब सरकार की नींद खुली। कांग्रेस अघ्यक्ष सोनिया गांधी को भी महंगाई के खतरे पर बोलना पड़ा।

उसके बाद केन्द्र सरकार में दोषारोपण का दौर शुरू हो गया। कांग्रेस ने शरद पवार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराना शुरू किया, तों पवार ने पलट कर कहा कि कोई भी फेसला पूरी सरकार की तरफ सक ही किसा जाता है, इसलिए सिर्फ उन्हें महंगाई के लिए जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने प्रधानमंत्री को भी महंगाई के लिए जिम्मेदार लोगों में शामिल करना शुरू कर दिया।

उसके बाद फिर केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों पर दोषारोपण शुरू कर दिया। राज्यों का खाद्य उत्पादन बढ़ाने की नसीहत दी जाने लगी। जमाखोरों और मुनाफाखोरों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए उनसे कहा जाने लगा। यही नहीं यह भी कहा जाने लगा कि राज्य सरकारें केन्द्र सरकार के गोदामों से अनाज उठाने में देरी कर रही है। यानी केन्द्र सरकार ने राज्य सरकारों को महंगाई के लिए जिम्मेदार ठहराने मे कोई कोर कसर नहीं छोड़ी, जबकि केन्द्र की गलत नीतियों के कारण महंगाई बढ़ रही है। सट्टा बाजार अनाज के बाजार पर हावी हो गया है। यह सट्टा बाजार केन्द्र की नीतियों की तहत अस्तित्व में आया है।

आश्चर्य की बात है कि केन्द्र के प्रधानमंत्री खुद एक अर्थशास्त्री हैं। वे पिछले 6 साल से खाद्य सुरक्षा के लिए दूसरी हरित क्रांति की रट लगा रहे हैं, लेकिन इसके लिए कुछ भी नहीं किया जा रहा है। बढ़ रही महंगाई और वर्तमान खाद्य संकट से सबक लेते हुए केन्द्र को चाहिए कि वह 12वीं पंचवर्षीय योजना को कृषि केन्द्रित रखे। (संवाद)