भारतीय दर्शन में ज्ञान विज्ञान शब्दों का भी बहुत प्रयोग हुआ है। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को योगसिद्धि के बाद की चेतना का आकर्षण बताया, जिस व्यक्ति की आत्मा ज्ञान विज्ञान से तृप्त हो गयी है और जो कूटस्थ (अपरिवर्तनशील) है, जिसने इन्द्रियों को जीत लिया है उसके लिए मिट्‌टी का ढेला, पत्थर या स्वर्णखण्ड एक जैसे हैं, उसे योगयुक्त कहा जाता है (गीता ६.८., डॉ० राधाकृष्णन्‌ का अनुवाद)। जीवन के भोग आकर्षित करते हैं, विषाद भी देते हैं। प्रकृति रहस्यपूर्ण है। ज्ञान विज्ञान चेतना का स्तर उठाते हैं। यहां ज्ञान विज्ञान से आत्मा की तृप्ति का मतलब है कि जानने योग्य सब कुछ जान लिया गया है। सबकुछ जान चुका व्यक्ति मिट्‌टी और सोने को एक समान समझता है। यहां योगयुक्त होने की शर्तों में ज्ञान विज्ञान में तृप्ति, चेतना की अपरिवर्तनशील दशा और इन्द्रिय विषयों से मुक्ति ही है। ईश्वर आस्था की कोई शर्त नहीं है।

सामान्य व्यक्ति स्वाभाविक ही अपना-पराया देखता है। वह प्रीति का उत्तर प्रीति से, द्वेष का उत्तर द्वेष से देता है। वह संतों और पापियों के प्रति अलग-अलग भाव रखता है लेकिन योगयुक्त व्यक्ति सामान्य नहीं होता। कृष्ण ने अर्जुन को बताया कि जो व्यक्ति सुहृद, मित्र, शत्रु, उदासीन, मध्यस्थ, द्वेष करने योग्य लोगों और साधुओं व पापियों के सम्बंध में भी 'समबुद्धि' रखता है वही विशेष व्यक्ति है (वही श्लोक ९) योग समबुद्धि का मार्ग है, समभाव का उपकरण है। योग के माध्यम से उतम तल पर पहुंच गई चेतना को समूची सृष्टि सम्पूर्णता में ही दिखाई पड़ती है और सम्पूर्णता के तल पर कोई भी वस्तु या प्राणी शुभ या अशुभ नहीं होते। लेकिन योग साधना आसान कर्म नहीं है। गीता में योग पद्धति के सामान्य सूत्र हैं। कृष्ण कहते हैं, योगी एकांत में अकेले रहते हुए चित्त और आत्मा का संयम करें। इच्छा त्यागे हुए चित्त को निरंतर आत्मा में लगाए (वही, श्लोक १०)। यहां चित्त और आत्मा अलग-अलग तल हैं । पतंजलि योगसूत्र की शुरुआत अथ योगानुशासन से होती है। अनुशासन स्वयं का संयम है। पतंजलि का दूसरा सूत्र चित्तवृत्ति के नाश को उद्‌देश्य बताता है। उनका तीसरा सूत्र बड़ा मजेदार है तदा द्रष्टु स्वरूपेऽवस्थानम्‌ - तब द्रष्टा स्वयं में स्थापित हो जाता है। वे चौथे सूत्र में कहते हैं वृत्ति सारूप्यमितरत्र - अन्य स्थितियों में चित्तवृत्ति के साथ तादात्म्य रहता है।

सामान्य व्यक्ति मन और मन के कार्य व्यापार के साथ एकात्म रहता है। योगारूढ़ व्यक्ति की चेतना स्वयं में स्थापित हो जाती है। गीता के उपरोक्त श्लोक में पतंजलि और उनके पहले से चली आ रही योग परम्परा की ध्वनि है। योग 'योगा' नहीं है। शारीरिक व्यायाम या एक्सरसाइज भी नहीं है। यह सम्पूर्ण व्यक्तित्व की इकाई ऊर्जा को सम्पूर्ण प्रकृति/विराट की ऊर्जा से जोड़ने का अद्‌भुत भारतीय विज्ञान है। कृष्ण योग पद्धति भी समझाते हैं और योग की प्राचीन परम्परा को दोहराते हैं - स्वच्छ स्थान हो, स्थान ऊंचा या नीचा न हो। उस पर कुशा (घास), मृगचर्म या कपड़े को बिछाकर, उस पर बैठकर मन एकाग्र करे - तत्रेकाग्रं मन। फिर चित्त और इन्द्रियों को संयम में रखते हुए सम्पूर्ण ऊर्जा को चेतना शुद्धि के लिए लगाना चाहिए (वही श्लोक ११ व १२)। राधाकृष्णन्‌ का अनुवाद है कि योगी को आत्मा की शुद्धि के लिए योगाभ्यास करना चाहिए। श्लोक में युंज्याद्योग शब्द है। युंज्य का मतलब जोड़ना समेटना होता है। योग शब्द भी इसी से बना है। श्रीकृष्ण योग की मोटी-मोटी बातें भी बताते हैं। शरीर, सिर और गर्दन को सीधा रखना चाहिए। अन्य किसी भी दिशा को न देखते हुए नासिका (नाक) के अग्र भाग पर दृष्टि लगानी चाहिए। (वही श्लोक १३) यहॉं योग के आसन के संकेत हैं। किसी एक केन्द्र पर ध्यान लगाने का निर्देश है।

पतंजलि ने मन को प्रभावित करने वाली बाधाएं बताई हैं रोग, प्राणहीनता, संशय, प्रमाद, आलस्य, विषयों के प्रति आसक्ति, भ्रांति, कमजोरी और अस्थिरता मनविक्षेप लाती है (३०वां सूत्र)। उन्होंने दुख, निराशा, कंपकंपी और अनियमित श्वसन को चंचल मन का लक्षण बताया है। उन्होंने इन बाधाओं को दूर करने के लिए एक तत्त्व पर ध्यान का आग्रह किया है। पतंजलि के योग विज्ञान की पद्धति में ध्यान केन्द्रित करने के लिए किसी भी तत्त्व का प्रयोग हो सकता है। वह तत्व कोई भी कुछ भी हो सकता है। पतंजलि ने ईश्वर का विकल्प भी दिया है - ईश्वरप्रणिधनद्वा। लेकिन पतंजलि अद्‌भुत भाषा विज्ञानी भी हैं। वे एक-एक शब्द की परिभाषा भी करते हैं। जीवन के दुख, कर्म और परिणाम से पृथक पुरुष विशेष ईश्वर है - क्लेश कर्म विपाकाशयैरपरामृष्ट पुरुष विशेष ईश्वर। उनका ईश्वर जगत का शासक नहीं है। वह कार्य और कारण के परिणाम से पृथक सम्पूर्ण चेतना है। कृष्ण अर्जुन से कहते हैं प्रशांत मन, निर्भय चित्त होकर ब्रह्‌मचर्यव्रत का पालन करते हुए संयमित चित्त से मन को मुझमें लगाए - मन संयम्य मतिो युक्त आसीत मत्पर (गीता ६.१४)। यहां ध्यान के आग्रह का केन्द्र मत्पर - मेरी ओर, मुझमे है। श्रीकृष्ण का यह आग्रह शरीरी कृष्ण में ध्यान केन्द्रित करने के लिए नहीं है। कृष्ण द्वारा प्रयोग किया । मत्पर शब्द 'सम्पूर्ण चेतना' का पर्यायवाची है। लेकिन भक्ति मार्गी लोगों के लिए यहां शरीर कृष्ण की ओर ही इशारा है।

योग आसन तकनीकी नहीं है। ब्रह्‌मचर्य भी एक बड़ी शर्त है। योग ही क्यों जीवन की सभी उपलब्धियों के लिए ब्रह्‌मचर्य एक अपरिहार्य शर्त रही है। प्रश्नोपनिषद्‌ में छह जिज्ञासु ऋषि पिप्पलाद के पास ज्ञान प्राप्त करने के लिए गये थे। पिप्पलाद ने उन्हें एक वर्ष तक ब्रह्‌मचर्य रखने और फिर प्रश्न पूछने की शर्त लगाई थी। अथर्ववेद की घोषणा है कि ब्रह्‌मचर्य की शक्ति से ही देवों ने मृत्यु को जीता है - ब्रह्‌मचर्येण तपसा देवा मृत्युमुपाध्नत्‌। भारतीय लोकजीवन में ब्रह्‌मचर्य का अर्थ स्त्री संग से विरक्ति लिया जाता है। दर्शन के लिहाज से ब्रह्‌म सम्पूर्णता का पर्यायवाची है। जैसे व्यक्ति की दिनचर्या होती है वैसे ही सम्पूर्णता की भी एक चर्या है। सम्पूर्णता में आसक्ति नहीं होती। राग, द्वेष, क्रोध भी नहीं होते। सम्पूर्णता आखिरकार किसके प्रति आसक्त होकर कामनायुक्त होगी? सम्पूर्णता की चर्चा का नाम ऋग्वेद में ऋत है। ऋत के अनुसार की गई चर्या ही ब्रह्‌मचर्य है। ब्रह्‌मचर्य दरअसल साधना नहीं उपलब्धि है। स्वयं में प्रतिष्ठित हो जाना ही ब्रह्‌मचर्य है। तब भोग आसक्ति की सारी कामनाएं स्वत विलीन हो जाती हैं। कृष्ण कहते हैं, योग से युक्त व्यक्ति मन को वश में रखता है वह शान्ति और मुक्ति प्राप्त करता है। यही शान्ति और मुक्ति मेरे भीतर स्थित है (वही श्लोक १५)। श्री कृष्ण योगसिद्ध हैं, योगारूढ़ हैं, योगेश्वर हैं। वे परममुक्ति को उपलब्ध हो चुके हैं। यह उपलब्धि निस्संदेह बड़ी है लेकिन यह सिर्फ उनका ही विशेषाधिकार नहीं है। यह केवल उनका ही विशेषाधिकार होती तो वे अर्जुन को इसी योग विद्या का आकर्षण, उपयोग, विधान व मंत्रसूत्र न समझाते।

योग का मार्ग सबके लिए है, सहज प्राप्य है लेकिन कई पात्रताएं व अपात्रताएं भी हैं। कृष्ण ने कहा कि यह योग उनके लिए नहीं है जो बहुत खाते हैं, यह उनके लिए भी नहीं है जो बिल्कुल भूखे रहते हैं। यह उनके लिए भी नहीं है जो बहुत सोते हैं और यह उनके लिए भी नहीं है जो बहुत जागते हैं (वही श्लोक १६)। फिर किनके लिए है? कृष्ण ने बताया कि युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु - जिसका आहार-विहार संयमित है, जिसकी चेष्टाएं संयम में हैं और जिसका स्वप्न-बोध नियमित है, उसके जीवन में योग का अनुशासन आता है। सारे दुख समाप्त हो जाते हैं (वही श्लोक १७)। डॉ० राधाकृष्णन्‌ के अनुवाद में स्वप्नबोध की जगह निद्रा जागरण शब्द आये हैं। गीताकार ने 'युक्त स्वप्नावबोधस्य' शब्द प्रयोग किया है। स्वप्न आकाक्षांए हैं और बोध परिपूर्ण सजगता है। यह आकाक्षाओं की समाप्ति की संज्ञा है। (नवोत्थान लेख सेवा, हिन्दुस्थान समाचार)