आरोप तो यह भी लग रहा है कि वित्तमंत्री अरुण जेटली को भी इसकी जानकारी नहीं थीं। अब तो यह बात सामने आ रही है कि भारतीय रिजर्व बैंक को भी इसके बारे में अंतिम समय में ही बताया गया और उसकी राय तक नहीं ली गई, जब भारतीय रिजर्व बैंक की ही जिम्मेदारी देश की मुद्रा व्यवस्था का परिचालन करना है। इसकी विफलता के लिए यह भी एक कारण बताया जाता है कि देश के केन्द्रीय बैंक को सही समय पर इसके बारे मे ंनहीं बताया गया और उसकी ओर से तैयारी ही नहीं थी। हालांकि नोटबंदी पूरी तरह से भारतीय रिजर्व बैंक के अधिकार क्षेत्र का मामला है। रुपया वही छापता है और उसके गवर्नर ही रुपये में लिखी राशि को अदा करने का वचन देते हैं। लेकिन उसे ही नहीं पता था कि रुपये को लेकर क्या होने वाला है।
आरटीआई कानून के तहत भारतीय रिजर्व बैंक से जो सवाल पूछे जा रहे हैं, उसका उत्तर देते रिजर्व बैंक को नहीं बन पा रहा है। वह यह भी नही बता रहा कि बैंक के निदेशक मंडल की बैठक कब हुई और उस बैठक में कौन कौन निदेशक उपस्थित थे। गौरतलब हो कि उस बैठक के बारे में सवाल पूछे गए थे, जिसमें भारतीय रिजर्व बैंक ने नोटबंदी का फैसला लिया था और केन्द्र सरकार को इससे संबंधित सिफारिश की थी।
आरटीआई कानून के तहत पूछे गए सवाल का जवाब तो भारतीय रिजर्व बैंक नहीं दे रहा है। और इसके कारण ही यह शक यकीन में बदलता जा रहा है कि नोटबंदी का निर्णय उसका था ही नहीं, बल्कि वह प्रधानमंत्री का निर्णय था और उस निर्णय को वैधता प्राप्त करने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने सिर्फ औपचारिकताओं को ही पूरा किया। वह औपचारिकता ही पूरी कर सकता था, लेकिन एकाएक 86 फीसदी रकम अर्थव्यवस्था से हटा लिए जाने के बाद उसमें तेजी से रकम कैसे डाला जाय, इसकी कोई तैयारी उसके पास नहीं थी।
जाहिर है, नोटबंदी से प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा सीधे तौर पर जुड़ चुकी है। इस निर्णय की चैतरफा विफलता सामने आ रही है। जिन घोषित उद्देश्यों से इसे लागू किया गया था, उनमें से एक भी पूरा नहीं हुआ, उल्टे चारों ओर हाहाकार मच गया। अलग अलग जगह किये जा रहे अध्ययनों से पता चलता है कि चारों तरफ तबाही ही तबाही हुई। भ्रष्टाचार और बढ़ा। काले धन का और सृजन हुआ। करोड़ों लोग बेरोजगार हो गये। किसानों को अपनी फसलों- साग और सब्जियों- का मूल्य नहीं मिल रहा है। अगले मौसम के लिए बुआई पर असर पड़ा है। दुकानदारों की बिक्री घट गयी। अनेकों के तो धंधे ही चौपट हो गए। उनमें से कई को फिर से अपने धंधे जमाने में काफी समय लगेंगे। अनेक लोगों की शादियां टल गईं और कइयों को तो टूट ही गई।
इतनी तबाही मचाने के बाद नोटबंदी से काला धन निकला ही नहीं। 30 दिसंबर की तारीख को समाप्त हुए 10 दिनों से भी ज्यादा हो गए हैं, लेकिन भारतीय रिजर्व बैंक यह नहीं बता रहा है कि कितने रुपये बैंकों में पहुंचे, जबकि शुरुआती दिनों में वह कभी भी यह बता देता था कि अबतक इतनी राशि के पुराने रद्द किए गए नोट वापस आ गए हैं। जाहिर है, भारतीय रिजर्व बैंक के पास जो आंकड़े हैं, उनमें नोटबंदी की विफलता की कहानी लिखी हुई है और इसके कारण ही वे आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जा रहे हैं।
एक अखबार ने भारतीय रिजर्व बैंक के एक अपने सूत्र के हवाले से बताया कि 30 दिसंबर तक रद्द किए गए 97 फीसदी नोट बैंकों में वापस आ चुके थे। गौरतलब है कि अभी भी अनिवासी अपने पास रखे रद्द रुपये वापस कर रहे हैं। उनमें से कुछ तो 31 मार्च तक वापस कर सकते हैं और कुछ 30 जून तक। इसका मतलब है कि जो शेष तीन फीसदी रद्द नोट हैं, वे भी बैंकों मे वापस आ जाएंगे। और यह तथ्य नोटबंदी के निर्णय को गुप्त रखने की विफलता का पर्दाफाश कर देता है। क्योकि गुप्त रखने के पीछे तकै यह था कि इसके कारण जिन लोगों के पास पुराने रद्द नोटों मे काला धन है, वह उनके पास ही रद्दी के रूप में तब्दील होकर रह जाएगा और करीब 3 लाख करोड़ रुपये बैंकों में वापस आएंगे ही नहीं। लेकिन लगता है कि एक एक रद्द नोट बैंक में वापस आ रहा है और सरकार का वह निर्णय पूरी तरह से गलत साबित हो चुका है।
नोटबंदी के दौरान जो तबाही हुई, उसके राजनैतिक नतीजों से यदि भारतीय जनता पार्टी नहीं डर रही है, तो उसका कारण यह है कि स्थानीय निकायों के चुनाव में वह जीतती जा रही है। उसे लगता है कि देश के लोगों ने इसका भारी स्वागत किया है और वे अभी भी इसके समर्थन में है। लेकिन उसकी जीत वहीं हो रही है, जहां पहले से उसकी स्थिति बेहतर थी और उसके सामने कांग्रेस है। लेकिन जहां गैर कांग्रेसी पार्टियां है, वहां भारतीय जनता पार्टी को अभी भी जीतकर दिखाना बाकी है। वैसे पांच राज्यों में हो रहे चुनावों में चार में तो उसका मुख्य मुकाबला कांग्रेस के साथ ही होना है। देखना दिलचस्प होगा कि भाजपा स्थानीय शहरी निकायों में हो रही अपनी जीत को दुहराती है, या फिर नोटबंदी की शिकार हो जाती है। वैसे इसमें भाजपा से ज्यादा प्रधानमंत्री की निजी प्रतिष्ठा दांव पर है। (संवाद)
नोटबंदी के साये में विधानसभा चुनाव
नरेन्द्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा दांव पर
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-01-09 11:51
पांच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की निजी प्रतिष्ठा दांव पर लगी हुई है। इसका कारण यह है कि इन चुनावों में नोटबंदी सबसे बड़ा मुद्दा बन रहा है। विपक्षी पार्टियां ही नहीं, बल्कि खुद भारतीय जनता पार्टी भी इसे अपना प्रमुख चुनावी मुद्दा बना रही है। उसे लगता हे कि इसके कारण उसे जनता का समर्थन मिल रहा है। भारतीय जनता पार्टी से भी ज्यादा मायने यह मुद्दा प्रधानमंत्री मोदी के लिए रखता है, क्योंकि यह प्रधानमंत्री का निजी निर्णय के रूप में जनता के सामने आया है। आरोप लग रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने इस निर्णय से पहले किसी से सलाह नहीं ली। प्रधानमंत्री खुद कह चुके हैं कि इस निर्णय को उन्होंने अंत अंत तक गुप्त रखा, क्योंकि वह नहीं चाहते थे कि जिन लोगों के खिलाफ यह नोटबंदी की जा रही है, उन्हें इसकी भनक पहले से लगे और वे अपने पास जमा काले कैश को ठिकाने लगा दें।