नोटबंदी के कारण असंगठित क्षेत्र में बेरोजगारी की भारी समस्या पैदा हुई। संगठित क्षेत्र में भी जहां तहां छटनी हुई। इसलिए उम्मीद की जा रही थी कि उसके कारण बेरोजगारी की उत्पन्न समस्या को संबोधित करने का काम भी वित्तमंत्री करेंगे, लेकिन उन्होंने इस तरह की उम्मीद रखने वालों को भी निराश किया। जाहिर है कि यदि इस बजट को सबसे ज्यादा आलोचना का सामना यदि किसी मोर्चे पर करना पड़ रहा है, तो वह रोजगार के मोर्चे पर विफल होने से ही संबंधित है।

आखिर क्या कारण है कि इस बड़े मसले के लिए अपने लंबे भाषण में वित्तमंत्री थोड़ा समय भी नहीं निकाल सके? क्या सरकार देश की इस सबसे बड़ी समस्या के सामने अपने आपको लाचार समझ रही है? जब चुनाव के पहले जब प्रधानमंत्री देश में 2 करोड़ सालाना रोजगार अवसर पैदा करने की बात कर रहे थे, तो उनके दिमाग में कोई न कोई रूपरेखा तो जरूर रही होगी कि किस तरीके से रोजगार के इतने अवसर पैदा किए जा सकते हैं।

दरअसल मोदी सरकार रोजगार अवसर पैदा करने के लिए अन्य अनेक योजनाओं की घोषणा पहले ही कर चुकी हैं। उनमें सबसे बड़ी योजना है, ’मेक इन इंडिया’। इस योजना के तहत भारत को दुनिया का मैन्युफैक्चरिंग हब बनाना था। विदेशों से निवेश हासिल करने थे, जिनसे रोजगार के अवसर पैदा होते। लेकिन लगता है कि यहां सफलता मिल नहीं पा रही है, हालांकि भारत मे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश बढ़ा है। पिछले साल तो भारत ने इस मामले में चीन को भी पीछे छोड़ दिया था, लेकिन इस तरह के निवेश से रोजगार के ज्यादा अवसर पैदा नहीं हो सकते, क्योंकि वे पूंजी बहुल निवेश होते हैं, जिनमें ज्यादा श्रमिकों को खपाने की क्षमता नहीं होती। निवेश में कितनी वृद्धि हुई, इसका विवरण तो वित्तमंत्री ने अपने भाषण में दिया, लेकिन उसके कारण कितने रोजगार अवसर पैदा हुए और कितने पैदा होने की संभावना है, इससे संबंधित कोई आंकड़ा उनके पास था ही नहीं।

स्टार्ट अप इंडिया, स्टैंड अप इंडिया, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना और ऐसी ही कुछ अन्य योजनाएं भी सरकार चला रही है, जिससे निजी क्षेत्र में रोजगार के अवसर पैदा होने की उम्मीद की जा सकती है, लेकिन रोजगार सृजन के जो आंकड़े आ रहे हैं, वे बहुत आश्वस्त करने वाले नहीं है। लाखों करोड़ रुपये मुद्रा योजना के तहत जारी किए गए हैं, लेकिन उसके कारण कितने रोजगार बढ़े और कितने बेरोजगारों को वहां खपाया जा सका, इसके बारे में किसी तरह का आंकड़ा सरकार पेश ही नहीं करती है, जिसके कारण बेराजगारी दूर करने में इस तरह के सरकारी कार्यक्रमों के असर के बारे मे पता नहीं चलता है।

इसलिए वित्तमंत्री से उम्मीद की जा रही थी कि अपनी सरकार के मध्यकाल में वे रोजगार से संबंधित चुनौतियों के बारे में तो बताएं और डिजिटल इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, मेक इन इंडिया, स्टैंड अप इंडिया और इनके जैसे ही अन्य कार्यक्रमों की मध्यवर्ती समीक्षा भी करते, पर उन्होंने वैसा नहीं किया। स्किल इंडिया के बारे में उन्होंने जरूर कुछ कहा और बताया कि इसका और विस्तार किया जाना है, लेकिन कुशल लोगों को उनके कौशल के हिसाब से काम पर लगाने के लिए अवसर उपलब्ध भी हैं या नहीं, इसके बारे में यदि वे कुछ बताते तो लोगों को ज्यादा आश्वस्त किया जा सकता था।

वर्तमान सरकार अपनी पूर्ववर्ती सरकार की तरह रोजगार पैदा करने के लिए निजी क्षेत्र पर ज्यादा निर्भर है और निजी क्षेत्र पर सरकार का कम और बाजार का ज्यादा असर रहता है। सरकार बाजार को प्रभावित तो कर सकती है, लेकिन संचालित नहीं कर सकती। यही कारण है कि रोजगार अवसरों के पैदा करने पर भी उसका नियंत्रण नहीं रह गया है। इस मसले पर वित्तमंत्री की चुप्पी लगाने का सबसे बड़ा कारण यही है।

लेकिन सरकार को कुछ न कुछ तो करना ही होगा। वित्तमंत्री ने खुद स्वीकार किया है और इसमें सच्चाई भी है कि दुनिया अब ग्लोबलाइजेशन की ओर नहीं, बल्कि प्रोटेक्शनिज्म की ओर बढ़ रही है और इसका शिकार भारत का आईटी सेक्टर हो सकता है, जिसे दुनिया के अन्य देशों के कारण रोजगार के अवसर मिले हुए हैं। अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप की बीजा संबंधित घोषणाओं को सोच सोच कर ही भारत का आईटी सेक्टर सहम गया है। जाहिर है बेरोजगारी की समस्या और भी बदतर हो सकती है। इसके लिए हमारे नीति निर्माताओं को ज्यादा से ज्यादा सोचने की जरूरत है और आर्थिक कार्यक्रमों का मुख्य केन्द्र विकास नहीं रोजगार ही होना चाहिए।

वैसे हम यह भी नहीं कह सकते हैं कि बजट में रोजगार पैदा करने का प्रावधान किए ही नहीं गए हैं। ग्रामीण और कृषि क्षेत्र के लिए जो प्रावधान किए गए हैं, उनसे भी रोजगार पैदा होंगे और महात्मा गांधी नरेगा में डाले गए 48 हजार करोड़ रुपये की राशि से भी रोजगार पैदा होगा। इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास पर किए गए निवेश से भी लोगों को काम मिलेगा। लेकिन नये सेक्टर को विकसित कर उनमें रोजगार अवसर पैदा करने के लिए भी सरकार को बहुत कुछ करना होगा और इसम मायने में अरुण जेटली के इस ऐतिहासिक बजट में ज्यादा कुछ माथापच्ची नहीं की गई है।

वे अपने बजट भाषण में किसी न किसी तरह गांधीजी को तो याद करते हैं, लेकिन रोजगार पैदा करने के लिए उनके जो मूल मंत्र हैं, उस पर विश्वास नहीं करते। उनका मूलमंत्र है कि विकास का ऐसा रास्ता अपनाने का जिससे ज्यादा से ज्यादा लोगों को काम मिल सके, पर हमारी सरकारे विकास का वह रास्ता अपनाती रही है, जिससे विकास की दर ज्यादा से ज्यादा प्राप्त की जा सके। यह बजट भी इसी पुरानी बिमार का शिकार है। (संवाद)