लेकिन अब स्थितियां बदल गई है। हाल फिलहाल कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ है और नरेन्द्र मोदी ने ओबीसी मतदाताओं के लिए न तो कुछ किया है और न ही उनके पक्ष में किसी तरह की बयानबाजी का साहस भी वे दिखा रहे हैं। इसलिए अब उनका समर्थन संदिग्ध हो गया है। केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और बसपा व अन्य पार्टियों ने अनेक ओबीसी नेताओं का दलबदल कराकर पार्टी में शामिल कराने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी की पकड़ उन पर कमजोर हो रही है। अनेक सीटों पर भाजपा ने अगड़े उम्मीदवारों का टिकट काटकर ओबीसी उम्मीदवारों को दे दिया है। उसके कारण अगड़े लोगों के एक हिस्से में भी भाजपा के खिलाफ माहौल बन गया है। नोटबंदी ने सबको प्रभावित किया है। जो कट्टर भाजपा समर्थक हैं, वे तो इसके बावजूद भी पार्टी के साथ बने हुए हैं, लेकिन जो मोदी से प्रभावित होकर पहली बार भाजपा को 2014 में वोट डाल रहे थे, वे पार्टी के खिलाफ हो चुके हैं।

समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के गठबंधन ने भारतीय जनता पार्टी का काम और भी कठिन कर दिया है। चैतरफा मुकाबले में 30 फीसदी वोट पाकर भी भाजपा बहुमत प्राप्त करने की उम्मीद पाल सकती थी, लेकिन अब मुकाबला तीन तरफा हो गया है और बहुमत वही पाएगा, जिसे 35 फीसदी या उससे ज्यादा मत मिलेगा। उतना वोट पाना उसे बहुत ही कठिन लग रहा है और हार सामने दिखाई दे रही है, क्योंकि उसका दलित कार्ड भी विफल हो गया है। इसलिए अब अपने मतों की संख्या बढ़ाने के लिए एक बार फिर उग्र हिन्दुत्व की ओर पार्टी उन्मुख हो गई है।

इसके तहत वह सबकुछ कर रही है, जो वह कर सकती है। लव जेहाद से लेकर कत्लगाह तक की चर्चा हो रही है। सांप्रदायिक दंगों की याद दिलाई दी जा रही है। और एक बार फिर राम मन्द्रिर के निर्माण की बात उनके नेता कर रहे हैं और कह रहे हैं कि विधानसभा में जीतकर वे राज्यसभा में बहुत प्राप्त कर लेंगे और उसके बाद कानून बनाने की स्थिति में आ जाएंगे।

लेकिन क्या भारतीय जनता पार्टी को इससे फायदा हो पाएगा? उत्तर प्रदेश की जनता अनेक बार उसके सांप्रदायिक प्रयासों को चुनावों में पराजित कर चुकी है। 1999 के लोकसभा चुनाव में ही भारतीय जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश मे दुर्गति हो गई थी, जबकि वह चुनाव अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए हो रहा था। 1998 में जितनी सीटें भाजपा को मिली थीं, उसकी आधी संख्या 1999 के चुनाव में रह गई थी, जबकि राम मन्दिर के मुद्दे को जोर शोर से उठाया गया था।

उसके बाद तो भाजपा का वहां लगातार पतन होता चला गया। 2002 में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी तीसरे स्थान पर खिसक गई थी, जबकि उसी साल अयोध्या से लौट रहे तथाकथित रामभक्तों को गोधरा में जला दिया गया था और गुजरात में भारी हिंसा हुई थी। उसमें दंगों की सीडी तक जारी कर दी गई थी। संयोग से राजनाथ सिंह उस समय मुख्यमंत्री थे, लेकिन पार्टी सपा और बसपा से भी नीचे जाकर तीसरे स्थान पर चली गई थी।

2004 के लोकसभा चुनाव में भी राम मन्दिर के मसले को उठाए गए और सांप्रदायिकता को हवा दी गई, लेकिन उसमें भी भाजपा का बुरा हाल हुआ था। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में पार्टी चुनाव लड़ रही थी, लेकिन भाजपा की लोकसभा सीटें वहां सपा और बसपा से भी कम हो गई थी। सपा को अपने सहयोगी राष्ट्रीय लोकदल के साथ तब 40 सीटें प्राप्त हो गई थीं और भाजपा 10 सीटों के आसपास सिमट कर रह गई थी।

2007 के विधानसभ चुनाव हो या 2012 के विधानसभा चुनाव या उन दोनों के बीच में होने वाले 2009 के लोकसभा चुनाव भाजपा की हालत पतली ही रही। राममंदिर का मुद्दा काम नहीं हुआ। चुनाव को सांप्रदायिक बनाने का उसका प्रयास सफल नहीं हुआ। उन सभी चुनावों में भारतीय जनता पार्टी बुरी तरीके से हारी और उसका संगठन तक काफी कमजोर हो गया।

यह तो 2014 के लोकसभा चुनाव की विशेष परिस्थितियां थीं, जिनके कारण उसे वहां जबर्दस्त सफलता मिलीं। अटल बिहारी की सरकार के दौर में लोगों ने भाजपा सरकार का जो चेहरा देखा था, वे उदारवादी चेहरा था। लोगों को लगा कि भाजपा एक बार फिर आ जाए, तो उससे क्या नुकसान है? वे कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी से ऊब रहे थे। इसी ऊब के कारण भाजपा को सफलता मिली।

लेकिन मोदी सरकार के गठन के बाद लोगों ने भाजपा और आरएसएस का जो रूप देखा हैं, उससे वे डर भी गए हैं। इसलिए जिन्हें मुलायम के परिवारवाद से नफरत है, वे एक बार फिर भाजपा को हराने के लिए उस परिवार के हाथ में सत्ता देना चाहते हैं। मायावती के जो कट्टर समर्थक उनके अहंकारी स्वभाव के कारण उनसे दूर हटकर भाजपा को वोट दे रहे थे, वे एक बार फिर मायावती से जा चिपके हैं।

और इस बीच भारतीय जनता पार्टी सांप्रदायिकता को हवा देने में लग गई है। उसकी इस हवा का जायजा लोग पहले भी ले चुके हैं। राम मन्दिर के प्रति उनकी कितनी प्रतिबद्धता है, यह रामभक्त पहले भी देख चुके हैं। इसलिए भाजपा का हिन्दुत्ववाद शायद ही उसे हार से बचा सके। (संवाद)