अखिलेश यादव के लिए भी यह चुनाव बहुत महत्वपूर्ण है। यही कारण है कि इस चुनाव को जीतने के लिए उन्होंने अपने परिवार से भी लड़ाई मोल ले ली, क्योंकि वे इसे अपने तरीके से लड़ना चाहते थे। वे लड़ाई जीत भी गए और अपने तरीके से रणनीति बनाकर चुनाव लड़ रहे हैं। जीत उनके लिए कितनी महत्वपूर्ण है, इसका पता इससे चलता है कि उन्होंने अपनी पार्टी की कीमत पर कांग्रेस से समझौता कर लिया। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस लगभग समाप्त हो चुकी है। फिर भी दुबारा मुख्यमंत्री बनने की चाह में उन्होंने इस पार्टी को 105 सीटें दे दीं। कांग्रेसी तो यह भी दावा कर रहे हैं कि एक समय अखिलेश उसे 143 सीटें देने को तैयार थे। यह उस समय की बात है, जब उन्हें लग रहा था कि मुलायम सिंह यादव चुनाव में उनके साथ नहीं होंगे।

अखिलेश यादव के लिए तो यह लड़ाई मुख्यमंत्री बनने या नहीं बनने की है। यदि वे हार भी जायं, तो आने वाले दिनों में फिर जीतकर मुख्यमंत्री बनने की उम्मीद कर सकते हैं, पर उनके सहयोगी राहुल गांधी के लिए यह चुनाव वजूद की लड़ाई से कम नहीं है। 2014 की लोकसभा चुनाव में हुई हार के बाद राहुल के नेतृत्व में कांग्रेस का सितारा गर्दिश में है। कांग्रेस ने उन सभी राज्यों में हार का सामना किया है, जहां पहले उसकी सरकार थी। उसने हरियाणा और महाराष्ट्र गंवाया। कश्मीर में मुह की खाई। झारखंड में शर्मनाक हार का सामना किया। असम और केरल में भी मुह की खाई। यानी राहुल के नसीब में हार की हार लिख दी गई है। बिहार में लालू और नीतीश के कंधे पर सवार होकर राहुल ने अपनी पार्टी के लोगों का मुस्कुराने का कारण दे दिया।

अब बिहार के रास्ते पर चलते हुए ही राहुल ने उत्तर प्रदेश में अखिलेश का कंधा थाम रखा है। सीटें तो उनकी पार्टी को बहुत ज्यादा मिल गई। चुनाव पूर्व सर्वेक्षण कह रहे थे कि कांग्रेस को इस विधानसभा चुनाव में 10 सीटें भी नहीं मिलेंगी। यदि ऐसा होता तो राहुल का राजनैतिक सितारा डूब जा सकता था, लेकिन अब वे उम्मीद कर सकते हैं कि उनकी पार्टी ने जितनी सीटों पर 2012 में जीत हासिल की थी, उनसे ज्यादा सीटों पर अब जीतेगी। इसलिए अब वे थोड़ा निश्चिंत रह सकते हैं कि पतनकाल में भी उन्हें तिनके का सहारा मिल गया है।

लेकिन नरेन्द्र मोदी और मायावती के लिए यह चुनाव सबसे ज्यादा मायने रखता है। दोनों के लिए जीत बहुत जरूरी है। यदि हार गए, तो फिर दोनों के राजनैतिक भविष्य पर ग्रहण लग सकता है। मायावती उत्तर प्रदेश की 4 बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। तीन बार तो वे भारतीय जनता पार्टी के समर्थन से थोड़े थोड़े समय के लिए मुख्यमंत्री बनी थीं और एक बार पूरे पांच साल के भी प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं।

पर 2009 के बाद उनकी पार्टी को लगातार हार का सामना करना पड़ रहा है। 2009 में लोकसभा चुनाव में वह कांग्रेस और समाजवादी पार्टी से पिछड़ गई थीं। 2012 के चुनाव में उन्होंने सरकार गंवा दी और 2014 के लोकसभा चुनाव में तो उनकी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिली। मुस्लिम और अगड़ी जातियों को लुभाने के चक्कर में उन्होंने अपना पिछड़ा आधार लगभग पूरी तरह खो दिया है। जिस आक्रमकता के बूते उन्होंने अपनी ताकत खड़ी की थी, उस आक्रामकता को वे त्याग चुकी हैं। राजनैतिक दर्शन बदलने के बाद भी दलित समुदाय आज उनके साथ है, लेकिन यदि उनकी हार हुई, तो यह समुदाय भी उन्हें छोड़ देगा और उनकी स्थिति रामविलास पासवान जैसी हो जाएगी, जो अपनी जाति के मतों के भरोसे किसी ने किसी पार्टी से गठबंधन कर किसी तरह राजनीति में टिके हुए हैं।

चुनाव जीतना न केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा से जुड़ा हुआ है, बल्कि इससे उनका राजनैतिक भविष्य भी जुड़ा हुआ है। बिहार चुनाव में उन्हें मुह की खानी पड़ी थी। अब यदि उत्तर प्रदेश में भी उनकी पार्टी का वही हाल होता है, तो पार्टी के लिए चुनाव जिताऊ नेता की उनकी छवि समाप्त हो जाएगी और पार्टी के अंदर से भी उनको चुनौतियां मिलने लगेंगी। हालांकि यह भी सच है कि उनकी पार्टी के पास उनके अलावा कोई ऐसा नेता नहीं है, जो उनकी जगह ले सके, लेकिन इस हार के बाद 2019 में लोकसभा चुनाव जीत कर दुबारा सत्ता में आने का उनका विश्वास निश्चित रूप से कमजोर पड़ जाएगा।

एक संभावना त्रिशंकु विधानसभा की भी हो सकती है। माया और मोदी यह चाहेंगे कि यदि उनकी जीत नहीं होती है, तो किसी और की भी जीत नहीं हो, ताकि वे जोड़तोड़ कर सरकार बना सकें। मायावती भाजपा के समर्थन से तीन बार पहले भी मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। यदि त्रिशंकु विधानसभा में भाजपा ने एक बार फिर उन्हें समर्थन दिया, तो वह इससे परहेज नहीं करेंगी। उसी तरह भारतीय जनता पार्टी भी माया के आंचल में अपना हारा हुआ चेहरा छिपा सकती है और आने वाली राजनीति पर अपना वर्चस्व बरकरार रखने की कोशिश कर सकती है। (संवाद)