यह सच है कि अपनी जाटव जाति का समर्थन उन्हें पूरी तरह मिल रहा है, जिसकी आबादी पूरे प्रदेश की आबादी का 12 फीसदी है। दलित आबादी वहां करीब 21 फीसदी है और दलितों की अन्य जातियों का पूरा समर्थन उन्हें मिलेगा, इसमें संदेह पैदा हो गया है। इनको अपने साथ बनाए रखने के लिए मायावती ने भाईचारा समूह बना रखा है।
माना जाता है कि करीब 25 फीसदी दलितों ने उत्तर प्रदेश में 2014 के विधानसभा चुनाव मंे भाजपा का साथ दिया था। नरेन्द्र मोदी के वायदे और उनकी सामाजिक पृष्ठभूमि के कारण वे उनकी ओर आकर्षित हुए थे।
यही कारण है कि बहुजन समाज पार्टी का वोट प्रतिशत गिर गया था। उत्तर प्रदेश में बसपा को 19 दशमलव 6 फीसदी मत मिले थे। राष्ट्रीय औसत 4 फीसदी रह गया था। मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने अपने कार्यकाल में जो कुछ किया, उसी का नतीजा था कि उनका समर्थन आधार कमजोर हो गया है। उन पर एक आरोप मूर्तियांे के निर्माण का था। वह खुद की मूर्तियां भी बनवा रही थीं।
इस बार मायावती कह रही हैं कि वे मूर्तियों का निर्माण नहीं करेंगी और फालतू खर्च करने से भी बाज आएंगी। वे कहती हैं कि जितने स्मारक बनाने थे, उन्होंने बना लिए हैं और अब वे स्मारक बनाने का काम नहीं करेंगी, बल्कि विकास के काम में अपना समय लगाएंगी।
लेकिन मायावती ने यह घोषणा करने में देर कर दी है। विकास के एजेंडे को समाजवादी पार्टी और भाजपा ने हड़प लिया है।
मायावती की जिस छवि ने उनकी पार्टी को 2007 के चुनाव में बहुमत दिलाया था, वह छवि भी अब समाप्त हो गई है। उस समय उनकी छवि एक ऐसी नेता की थी, जो गुुंडों के होश उड़ा देता है। मुख्तार अंसारी के कौमी एकता दल से समझौता कर मायावती ने अपनी वह छवि भी समाप्त कर दी है।
मायावती ने वैसा मुस्लिम मतों को पाने के लिए किया है, लेकिन मुस्लिम उनको वोट देंगे, इसकी संभावना भी बहुत कम है। इसका कारण यह है कि सपा-कांग्रेस गठबंधन हो जाने के बाद मुसलमानों को लगता है कि भाजपा को यह गठबंधन ही हरा सकता है। इसलिए वे गठबंधन की ओर मुखातिब हो गए लगते हैं।
मायावती के पतन के साथ दलित महसूस करेंगे कि उनकी एक और नेता का विकेट गिर गया है। इससे यह भी पता चलेगा कि दलितों और मुसलमानों के नेताओं ने 1947 के बाद अपने अपने आधार समूहों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया है।
भारत के विभाजन के जिन्ना के जिम्मेदार होने का असर यह है कि मुस्लिम का कोई प्रतिभावान नेता भारत में तैयार नहीं हुआ। दलितों का तो आजतक कोई नेता ही तैयार नहीं हुआ, जो उन्हें चुनाव जिता सके। अंबेडकर भी दलितों के चुनाव जिताऊ नेता नहीं थे, बल्कि खुद वे चुनाव हार जाया करते थे।
अंबेडकर की इंडिपेंडेट लेबर पार्टी ने 1937 बंबई में अच्छा प्रदर्शन किया था। 13 में से 11 सुरक्षित सीटों पर उसकी जीत हुई थी। सामान्य श्रेणी की 3 सीटों पर भी उसकी जीत हुई थी। लेकिन आजादी के बाद वे खुद दो चुनाव लड़े और दोनों हार गए थे।
अंबेडकर के नाम पर रिपब्लिक नाम की अनेक पार्टियां बनीं, लेकिन कोई सफल नहीं हो पाईं। कांशीराम और मायावती ने ही कुछ सफलता पाई और उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी। लेकिन अब उत्तर प्रदेश में भी मायावती और दलित आंदोलन अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह चुनाव उस लड़ाई के लिए निर्णायक साबित होने वाला है। (संवाद)
मायावती के लिए ’करो या मरो’ की लड़ाई
क्या दलित-मुस्लिम समीकरण काम कर पाएगा?
अमूल्य गांगुली - 2017-02-16 13:27
उत्तर प्रदेश चुनाव मायावती के लिए अपने अन्य सारे प्रतिस्पर्धियों से ज्यादा मायने रखता है। विधानसभा चुनाव में लगातार दूसरी बार हारना उनके भविष्य के लिए बहुत ही घातक हो सकता है। वैसे ही पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी पार्टी को एक भी सीट हासिल नहीं हो सकी थी।