जैसा कि पिछले कुछ सप्ताह से दिखाई पड़ रहा है, नरेन्द्र मोदी भारतीय जनता पार्टी के चुनाव अभियान में अकेला पड़ रहे हैं। हालांकि अमित शाह भी सभाओ को संबोधित कर रहे हैं, लेकिन उनकी सभाओं में लोग आ नहीं रहे हैं। अब तो स्थिति ऐसी हो गई है कि पार्टी की जीत अथवा हार के लिए मोदी ही जिम्मेदार माने जाएंगे। जीत का श्रेय उन्हें ही मिलेगा और हार का ठीकरा भी उनके सिर पर ही फोड़ा जाएगा।
यह कोई पहला चुनाव नहीं है, जिसमें पार्टी को वोट दिलवाने का जिम्मा नरेन्द्र मोदी पर है। बल्कि 2014 के लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए सभी विधानसभा चुनावों में मोदी ही पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिलाने का दायित्व निभा रहे हैं। 2014 में हुए विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को जीत हासिल हुई, लेकिन उसके बाद उसकी स्थिति खराब होने लगी।
कश्मीर में भाजपा अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकी और दिल्ली के विधानसभा चुनाव में तो उसका सूफड़ा ही साफ हो गया। बिहार विधानसभा के चुनाव में भी पार्टी को भारी हार का सामना करना पड़ा। पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी में भी पार्टी की स्थिति खराब रही। असम की जीत ने पार्टी को राहत दी।
अब उत्तर प्रदेश की जीत मोदी के लिए महत्वपूर्ण है। उनके लिए जीत हासिल करना बहुत ही जरूरी हो गया है। यदि वहां हार हुई, तो इससे भाजपा को राष्ट्रीय स्तर पर तगड़ा झटका लगेगा। उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतना इसलिए भी जरूरी है कि चुनाव होने वाले कुछ राज्यों मे भाजपा की स्थिति पहले से ही साफ साफ खराब दिख रही है।
उदाहरण के लिए पंजाब में हार सामने दिखाई पड़ रही है। वहां भारतीय जनता पार्टी पिछले 10 साल से अकाली दल के नेतृत्व वाली सरकार में शिरकत कर रही है और लोगों का मूड अकाली- भाजपा गठबंधन के खिलाफ है। वहां यह गठबंधन तीसरे नंबर पर आ सकता है। उसी तरह गोवा में भी पार्टी की स्थिति अच्छी नहीं है। उसका एक सहयोगी गोवा गोमांतक पार्टी ने उसका साथ छोड़ दिया है और संघ में भी वहां विभाजन हो गया है।
संघ के एक प्रमुख नेता ने अपनी एक अलग पार्टी बना ली है और वह भी चुनाव मैदान में है। इन सबके कारण भारतीय जनता पार्टी गोवा में अपने पुराने प्रदर्शन को दुहराने में सफल होती नहीं दिखाई पड़ रही है। वहां आम आदमी पार्टी ने भी प्रवेश किया है और उसके कारण पार्टी को गोवा में ही नहीं, बल्कि पंजाब में भी शिकस्त का सामना करना पड़ रहा है।
यही कारण है कि उत्तर प्रदेश से नरेन्द्र मोदी को बहुत उम्मीदें हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उन्हें वहां भारी सफलता मिली थी। लेकिन सत्ता में आने के बाद मोदी सरकार ने उन उम्मीदों को नहीं पूरा किया, जिनके कारण उन्हें वोट मिला था। अपने विरोधी मतों के बंटवारे के कारण भारतीय जनता पार्टी फिर भी बेहतर करने की उम्मीद कर रही थी। समाजवादी पार्टी का आंतरिक झगड़ा भी उसकी चुनावी संभावनाओं को बेहतर दिखा रहा था।
लेकिन एकाएक उस झगड़े में अखिलेश की जीत हो गई और उनके पिता ने उनके सामने समर्पण कर दिया। इसके कारण समाजवादी पार्टी का बिखराव थम गया। फिर अखिलेश ने कांग्रेस से गठबंधन कर लिया, जिसके कारण मुस्लिम मतों को हो रहा तितरफा बंटवारा भी थम गया। अब मुसलमानों को बहुत बड़ा हिस्सा सपा-कांग्रेस गठबंधन के साथ है, जिसके कारण बहुजन समाज पार्टी का ही नहीं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी का गणित भी बिगड़ गया है। (संवाद)
मोदी को अकेले करना है चुनौतियों का सामना
2017 के चुनाव 2019 के चुनाव का लिटमस टेस्ट
अमूल्य गांगुली - 2017-02-22 13:00
जब नरेन्द्र मोदी ने लालकृष्ण आडवाणी और अन्य नेताओं को सक्रिय राजनीति से बाहर कर दिया था, तो उन्हें अस बात के लिए बहुत सकूल मिला होगा कि पार्टी पर उनका पूर्ण नियंत्रण हो गया है। लेकिन उनको इस बात का अंदाजा नहीं लगा होगा कि उन्होंने अपने ऊपर कितना भार ले लिया है। हो रहे विधानसभा चुनावों के दौरान उन्हें अब इस बात का आभास हो गया होगा कि उन्होंने अपने सिर पर कुछ ज्यादा ही बोझ उठा रखा है।