तर्क तो यह कहता है कि नोटबंदी के कारण भारतीय जनता पार्टी को हारना चाहिए था, क्योंकि इसके कारण तबाही ही तबाही हुई है और किसी तरह का फायदा न तो लोगों को हुआ है, न देश की अर्थव्यवस्था का हुआ है और न ही सरकारी खजाने को हुआ है। पर सवाल उठता है कि हारने के लिए हराने वाला भी होना चाहिए। भारतीय जनता पार्टी के सौभाग्य से वहां उसे हराने का जिम्मा कांग्रेस के पास था, लेकिन कांग्रेस उसे हरा नहीं सकी। सच तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी के लिए किसी गैर कांग्रेसी विरोधी से लड़कर जीतना कठिन है, लेकिन वह आसानी से कांग्रेस को हरा देती है। महाराष्ट्र में भी वही हुआ। वही असम में भी हुआ था, जहां कांग्रेस का मुकाबला भारतीय जनता पार्टी से था, जबकि अन्य राज्यों मंे जहां भाजपा को गैर कांग्रेसी दलों का सामना करना था, वहां भारतीय जनता पार्टी हार गई।

यानी महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी इसलिए जीती, क्योंकि उसके सामने कांग्रेस थी। तो क्या यह माना जाय कि अब कांग्रेस के दिन लद गए हैं? प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार देश को कांग्रेस मुक्त करने का संकल्प कर रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के अन्य नेता भी उसी भाषा का इस्तेमाल कर रहे हैं। वह संकल्प देखने में तो राजनीति से प्रेरित लगता है, जिसका उद्देश्य कांग्रेस के समर्थकों के हौसले को तोड़ना है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस का एक के बाद एक राज्यों से सफाया होता जा रहा है, उसे देेखकर तो ऐसा ही लगता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी के दिन अब लग गए से लगते हैं।

महाराष्ट्र में शिवसेना और भारतीय जनता पार्टी पिछले तीन दशकों से आपस में तालमेल और गठबंधन करके लड़ती रही हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में दोनों ने अलग अलग उम्मीदवार खड़े किए। कायदे से उसका लाभ कांग्रेस को मिलना चाहिए था, लेकिन उसके कारण कांग्रेस का दुगुना नुकसान हो गया। चुनाव के बाद कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी का रुतबा भी खो चुकी थी। भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बाद वह तीसरे नंबर की पार्टी थी। उसका यही अंजाम नगर निगमों के चुनावों में भी देखने को मिला एक बार फिर वह भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के बाद तीसरे नंबर की पार्टी के रूप में उभरी है। यह देश के दूसरी सबसे अधिक आबादी वाले प्रदेश में कांग्रेस का हाल है।

और उधर देश की सबसे ज्यादा आबादी वाले राज्य में भी कांग्रेस का बुरा हाल है। वह 27 साल से वहां सत्ता से बाहर है और पिछले कई चुनावों में चैथे नंबर की पार्टी बनती रही है। अब तो वह अपने बूते वहां चुनाव भी नहीं लड़ सकती। इस बार समाजवादी पार्टी के कंधे पर सवार होकर वह चुनावी बैतरणी पार करने की कोशिश कर रही है, लेकिन समाजवादी पार्टी के लोग कह रहे हैं कि कहीं कांग्रेस का भार उनकी पार्टी को डुबा न दे।

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र के बाद तीसरी सबसे ज्यादा आबादी वाला प्रदेश बिहार है। वहां भी कांग्रेस पिछले 22 सालों से तीसरे चैथे नंबर की पार्टी बन गई है। प्रदेश की राजनीति में अब वह कुछ सीटें पाने के लिए दूसरी पार्टियों पर निर्भर हो गई है। उसका यही हाल देश में चैथी सबसे ज्यादा आबादी वाले प्रदेश पश्चिम बंगाल में है। वहां तृणमूल कांग्रेस और वाम मोर्चे की पार्टियों के बीच में मुख्य मुकाबला होता है। कांग्रेस कभी तृणमूल के साथ तो कभी वाम मोर्चे के साथ गठबंधन करने के लिए बाध्य हो जाती है।

देश की पांचवीं सबसे बड़ी आबादी वाले तलिनाडु की राजनीति में हासिए पर कांग्रसे के खिसके हुए तो लगभग 5 दशक हो गए हैं। उसके बाद वह वहां अपने पैरों पर कभी खड़ी नहीं हुई। क्षेत्रीय दलों में से किसी एक की बैशाखी की जरूरत उसे वहां पड़ती रही है। सच कहा जाय, तो अन्य अनेक प्रदेशों में कांग्रेस तमिलनाडु फाॅर्मूले का ही अनुसरण कर रही है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस का हाल हाल तक अच्छा प्रभाव था, लेकिन उसका विभाजन कर उसने उस विभाजन से बने दोनों राज्यों में अपनी राजनैतिक जमीन खो दी है। बस एक कर्नाटक ही एकमात्र बड़ा राज्य है, जहां वह सत्ता में है, लेकिन वहां भी उसके तीसरे नंबर पर आ जाने का खतरा पैदा हो गया है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी के साथ साथ देवेगौड़ा का जनता दल उसके लिए वहां चुनौती पेश कर रहा है।

आखिर कांग्रेस का ऐसा हश्र क्यों हो रहा है? कांग्रेस पहले भी हारी है,े लेकिन हारकर वह फिर उबर जाती थी, लेकिन तब वह कम से कम दूसरी बड़ी पार्टी हुआ करती थी, लेकिन अब तो सभी पांचो बड़ी आबादी वाले राज्योें में वह तीसरे या चैथे नंबर की पार्टी बन गई है, इसलिए सत्तारूढ़ पार्टी से लोगों के मोह भंग होने का लाभ उसे वहां नहीं मिल पाता। इसके कारण उन राज्यों में वह व्यावहारिक दृष्टिकोण समाप्त हो गई है।

इसके बावजूद कांग्रेस का विस्तार अभी भी देश भर में है, लेकिन उसके सामने नेतृत्व संकट की समस्या पैदा हो गया है। उसके पास समाज और राजनीति की समझ रखने वाला नेतृत्व ही नहीं है। न तो सोनिया गांधी और न ही राहुल गांधी भारतीय राजनीति और समाज की जटिलता की समझ रखते हैं और न ही उनके पास जमीन से जुड़े हुए नेता हैं। यही कारण है कि कांग्रेस का लगातार पतन हो रहा है और इसके अस्तित्व पर ही संकट खड़ा हो गया है। (संवाद)