किसी भी चुनाव में राजनीतिक दलों और उनके नेताओं के बीच परस्पर आरोप-प्रत्यारोप और कटाक्ष किया जाना कोई नई बात नहीं है, बल्कि दुनिया के हर लोकतंत्र में ऐसा होता है। लेकिन हमारे यहां इन दिनों चुनाव प्रचार के दौरान जिस तरह के छिछले कटाक्ष और निम्न स्तरीय भाषा का इस्तेमाल हमारे नेताओं द्वारा एक-दूसरे के खिलाफ किया जा रहा है यह हमारे लोकतंत्र के लिए बिल्कुल नया और चिंताजनक अनुभव है।

इस समय तीन राज्यों में विधानसभा के लिए वोट डाले जा चुके हैं, जबकि उत्तर प्रदेश और मणिपुर में चुनाव प्रक्रिया जारी है। उत्तर प्रदेश में सात चरणों वाला चुनाव अभियान आधे से ज्यादा पार गया है। जैसे-जैसे वह पूर्णता की ओर बढ रहा है, वैसे-वैसे वह विद्रूप और कर्कशतम होता जा रहा है। नेताओं की राजनीतिक शराफत और भाषाई शालीनता अपने पतन के नित्य नए कीर्तिमान रच रही है।

नरेंद्र मोदी पहले ऐसे प्रधानमंत्री नहीं हैं जो अपनी पार्टी के पक्ष में चुनाव प्रचार कर रहे हैं। उनसे पहले जवाहरलाल नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह तक सभी प्रधानमंत्रियों का कामकाज और अंदाज-ए-हुकूमत चाहे जैसा रहा हो लेकिन किसी ने भी चुनाव के दौरान अपने विरोधियों पर कभी छिछले कटाक्ष नहीं किए। आरोप भी लगाए तो शालीनता और अपने पद की मर्यादा के दायरे में। लेकिन मोदी के चुनाव प्रचार का अंदाज अपने सभी पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से बिल्कुल निराला है।

दरअसल, मोदी के लिए उत्तर प्रदेश का चुनाव बेहद अहम है। बिहार और दिल्ली में मिली अपमानजनक हार के बाद उनके लिए यह चुनाव नाक का सवाल बना हुआ है, जिसमें अपनी पार्टी की नैया पार लगाने का जिम्मा उन्होंने ही ले रखा है। नोटबंदी का उनका समूचा प्रयोगवाद दांव पर लगा हुआ है। ऐसे में प्रधानमंत्री चुनावी रैलियों में अपने जिस ताली ठोंक आक्रामक तेवर के साथ विपक्ष पर बरस रहे हैं, वह हैरान करने वाला है।

मतदाताओं को जातीय और सांप्रदायिक स्तर पर उद्वेलित और गोलबंद करने का काम वैसे तो हर चुनाव में होता रहा है लेकिन इस बार यह खेल बिल्कुल खुलेआम और खतरनाक रूप में खेला जा रहा है। हैरत की बात यह है कि इस खेल में जहां प्रधानमंत्री अपनी पार्टी के सुपर स्टार प्रचारक के तौर पर अपनी प्रतिभा का भरपूर प्रदर्शन करते हुए खुलेआम सांप्रदायिक और जातीय विभाजन पैदा करने वाले भाषण दे रहे हैं, वहीं कथित तौर पर जातिवाद और तुष्टीकरण की राजनीति करने वाली उनकी विरोधी पार्टियों के नेता जाहिरा तौर पर जातिगत या सांप्रदायिक अपील करने से बचते दिखाई दे रहे हैं।

वैसे अपने यहां चुनावी मैदान में भाषा का पतन कोई नई परिघटना नहीं है। इसलिए इसका ’श्रेय’ अकेले मोदी को भी नहीं दिया जा सकता। उनसे भी पहले कई नेता हो चुके हैं और विभिन्न दलों में अभी भी हैं जो राजनीतिक विमर्श या संवाद का स्तर गिराने में अपना ’योगदान’ दे चुके हैं। मोदी तो उस सिलसिले को आगे बढाने का काम कर रहे हैं।

ऐसा नहीं कि यह काम उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद शुरू किया हो, गुजरात में अपने मुख्यमंत्रित्व काल के दौरान भी कार्पोरेटी क्रूरता और सांप्रदायिक कट्टरता के नायाब रसायन से तैयार अपने राजनीतिक शब्दकोष का इस्तेमाल वे अपने राजनीतिक विरोधियों के लिए बडे मुग्ध भाव से करते रहे हैं। अपनी इसी राजनीतिक शैली और बडे पूंजी घरानों के सहारे वे 2013 आते-आते भाजपा के पोस्टर ब्वॉय और प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी बन गए, लेकिन उनकी भाषा और लहजे में गिरावट का सिलसिला तब भी नहीं थमा। शिमला की एक चुनावी रैली में कांग्रेस नेता शशि थरूर की पत्नी के लिए उनके मुंह से निकली ’पचास करोड की गर्ल फ्रेंड’ जैसी भद्दी उक्ति को कौन भूल सकता है!

उनके प्रधानमंत्री बन जाने के बाद कई लोगों को उम्मीद थी कि अब शायद उनके राजनीतिक विमर्श की भाषा में कुछ संतुलन आ जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। प्रधानमंत्री बनने के बाद उनके भाषिक विचलन में और तेजी आ गई। दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उन्होंने अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को नक्सलियों की जमात, केजरीवाल को पाकिस्तान का एजेंट, एके 49 और उपद्रवी गोत्र का बताया। बिहार के चुनाव में तो उन्होंने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के डीएनए में भी गड़बड़ी ढूंढ़ ली। उनके इस बयान को नीतीश कुमार ने तो बेहद शालीन अंदाज में बिहारी अस्मिता से जोड कर मोदी को बचाव की मुद्रा में ला दिया था लेकिन अरविंद केजरीवाल ने बेमुरव्वत तुर्की ब तुर्की जवाब देते हुए प्रधानमंत्री को मनोरोगी ही करार दे दिया था।

मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले कभी देखने-सुनने और पढने में नहीं आया कि किसी प्रधानमंत्री ने किसी चुनाव में अपनी जाति का उल्लेख करते हुए किसी जाति विशेष से वोट मांगे हो, लेकिन मोदी ने बिहार के चुनाव में यह ’महान’ काम भी बिना संकोच किया। इस समय उत्तर प्रदेश की चुनावी सभाओं में तो वे मथुरा (उत्तर प्रदेश) से द्वारिका (गुजरात) का रिश्ता बताते हुए एक जाति विशेष को आकर्षित करने के लिए खुद को कृष्ण का कलियुगी अवतार बताने से भी नहीं चूक रहे हैं।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में मोदी का हर भाषण राजनीतिक विमर्श के पतन का नया कीर्तिमान रच रहा है। मसलन एक रैली में उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के हर गांव में कब्रस्तान तो है मगर श्मशान नहीं है, जो कि होना चाहिए। चुनाव को सांप्रदायिक आधार पर ध्रुवीकृत करने की भौंड़ी कोशिश के तहत वे यहीं नहीं रुके। उन्होंने कहा कि सूबे के लोगों को अगर रमजान और ईद के मौके पर बिना रुकावट के बिजली मिलती है तो दीपावली और होली पर भी मिलनी चाहिए।

प्रधानमंत्री पद से मोदी के हास्यास्पद बयान की एक और बानगी देखिए। उत्तर प्रदेश हेलीकाप्टर से इस शहर से उस शहर में उतर रहे अब तक के सबसे खर्चीले भारतीय प्रधानमंत्री मोदी ने एक चुनावी सभा में अपनी गरीबी का वर्णन करते हुए कहा कि लखनऊ में एक परिवार के पास दर्जनों कारें हैं लेकिन मेरे पास एक कार भी नहीं है। अखिलेश के गधों वाले बयान पर भी उन्होंने इसी तरह अपने पद की गरिमा को परे रखते हुए जवाब दिया कि ’हां, मैं तो गधे से प्रेरणा लेता हूँ और उसी की तरह मेहनत करता हूँ।’ चापलूस मंत्रियों, पार्टी नेताओं, भांड मीडिया और फेसबुकिया भक्तों के समूह के अलावा कोई नहीं कह सकता कि यह देश के प्रधानमंत्री की भाषा है।

जहां तक अखिलेश यादव, राहुल गांधी और मायावती की बात है, इनमें से किसी का भी राजनीतिक आचरण और प्रशासनिक तौर तरीके आलोचना से परे नहीं है और उन पर कई सवाल खडे करते हैं लेकिन तीनों ने ही प्रधानमंत्री की ओर से अपने पर हो रहे व्यक्तिगत हमलों का उन्हीं की शैली में जवाब नहीं दिया। हां, अखिलेश के ’गुजराती गधों’ वाले बयान और मायावती के ’निगेटिव दलित मैन’ वाले बयान को जरूर इस सिलसिले में अपवाद माना जा सकता है।

बहरहाल, यह बेहद अफसोसनाक है कि हमारे लोकतांत्रिक-धर्मनिरपेक्ष संवैधानिक ढांचे के साथ लंबे समय से काम कर करते रहने के बावजूद मोदी के संकीर्ण और नफरतपंसद आग्रह बरकरार हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव में कोई भी हारे-जीते, अहम सवाल यह है कि क्या भारतीय लोकतंत्र नेताओं के इस तरह के भाषा-व्यवहार और अंदरुनी हमलों से अपने वजूद को बचा पाएगा? (संवाद)