उन पांचों में से तीन मे तो पहले भाजपा के ही विधायक रहे हैं। वे तीनों वाराणसी के शहरी क्षेत्र हैं। दो ग्रामीण क्षेत्रों में से एक में बहुजन समाज पार्टी का विधायक था, तो दूसरी से अनुप्रिया पटेल 2012 में जीतकर विधायक बनी थी। सांसद बनने के बाद उन्होंने वह सीट छोड़ दी थी। उस पर उपचुनाव हुआ और अनुप्रिया की मां कृष्णा पटेल वहां से अपना दल की भाजपा समर्थित उम्मीदवार थी, लेकिन उपचुनाव में वे समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार से हार गई थीं। इस तरह वह सीट अब समाजवादी पार्टी के पास है।

वह सीट रोहनिया विधानसभा क्षेत्र है। लोकसभा मे रिकाॅर्ड जीत हासिल करने के बाद रोहनिया की उस सीट पर भाजपा समर्थित अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल का हारना मोदी जी के लिए एक अपशकुन था। इससे जाहिर होता है कि लोग भारतीय जनता पार्टी या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का समर्थन नहीं कर रहे थे, बल्कि नरेन्द्र मोदी का समर्थन कर रहे थे। इससे इस मिथ का भी नाश हो जाता है कि अनुप्रिया पटेल के कारण उस क्षेत्र के लोगों ने नरेन्द्र मोदी को वोट दिया था।

फिलहाल अनुप्रिया पटेल की मां कृष्णा पटेल उनसे अलग हो गई है और दोनों ने अलग अलग अपनी अपनी पार्टी बना रखी है और दोनो की अपनी अपनी पार्टियांे का नाम अपना दल है। मां बेटी के झगड़े के कारण ही बनारस के विधानसभा क्षेत्रों में भारतीय जनता पार्टी की चुनावी संभावनाओं को लेकर संदेह बन गया है। और प्रचार के दौरान इसके उम्मीदवार पिछड़ते दिखाई पड़े।

बनारस शहर की तीनों विधानसभा सीटों में भारतीय जनता पार्टी के विधायक हैं। जाहिर है, वहां समाजवादीइ पार्टी के विधायक नहीं होने के कारण तीनों सीटें कांग्रेस को मिल गई हैं। जो लोग नजदीक से वहां के चुनाव को देख रहे हैं, उनका कहना है कि भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवारों की हालत बेहद खराब है। अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में तो भारतीय जनता पार्टी मुकाबले में ही नहीं है। इसके कारण उसके उम्मीदवारों की स्थिति और भी खराब हो गई है, क्योंकि मतदाताओं का एक वर्ग ऐसा होता है, जो अपनी पसंद के उम्मीदवार को अंत में तय करता है और उसे ही अपना वोट देता है, जिसे वह जीतता हुआ महसूस करता है। वैसी स्थिति में वह मुख्य मुकाबले में शामिल किसी उम्मीदवार को ही अपना मत देता है। और उसके कारण जो तीसरे और चैथे नंबर पर चल रहे होते हैं, वे और भी पिछड़ जाते हैं।

भारतीय जनता पार्टी को वहां इसी तरह का खतरा दिखाई दे रहा है। 4 मार्च के पहले तक उनकी चुनौती मुख्य मुकाबले में आने की थी। मुख्य मुकाबले में आने के बाद ही वह अपने प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ने की उम्मीद रख सकते हैं।

खराब स्थिति का अंदाजा भारतीय जनता पार्टी के चुनाव प्रबंधकों को भी हो गया है। यही कारण है कि वहां केन्द्र सरकार और राज्य सरकारों के दर्जनों भाजपा मंत्री डेरा डाले हुए हैं। लेकिन उनके डेरा डालने से पार्टी का ही नुकसान हो जाता है। भाजपा कार्यकत्र्ता लोगों के बीच जाने के बदले उन मंत्रियों के डेरों में ही चक्कर लगाना पसंद करते हैं और यदि सत्ता के मद में चूर किसी मंत्री ने किसी कार्यकत्र्ता का अपमान कर दिया, तो फिर वह कार्यकत्र्ता पार्टी की हार की फरियाद ही करने लगता है।

बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान भी वही हुआ था। पटना में भाजपा के बड़े नेताओं और मंत्रियों ने डेरा डाल रखा था और भाजपा कार्यकत्र्ता जब उनके आस पास मंडराते थे, तो कई बार कइयों को अपमान का सामना करना पड़ता था और वे अपमानित होकर पार्टी की हार की ही दुआ करने लगते थे। वैसे जिस तरह का अहंकार पटना में भाजपा के केन्द्रीय नेता दिखा रहे थे, वैसा तो बनारस में होने की उम्मीद नहीं है, लेकिन यह राजनैतिक जीव भी विचित्र होते हैं। पता नहीं कौन सी बात किसको बुरी लग जाय। इसलिए बनारस में भाजपा के मंत्रियों का जमावड़ा वोट दिलवाने में नहीं, बल्कि वोट बिगाड़ने का ही काम कर सकता है।

लेकिन जब मामला नरेन्द्र मोदी की प्रतिष्ठा का हो, तो उसे बचाने के लिए उन्हें ही सबसे आगे आना होगा। और वे वही कर रहे हैं। जितना वह बनारस की सीटों पर भाजपा को जीत दिलाने के लिए कोशिश कर रहे हैं, उतना आजतक किसी भी प्रधानमंत्री ने अपने लोकसभा के लिए नहीं लगाया होगा। खुद नरेन्द्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में भी बनारस में उतना समय नहीं दिया, जितना आज उन्हें अपने विधायक उम्मीदवारों के लिए देना पड़ रहा है।

भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व से भाजपा के अपने कार्यकत्र्ता भी नाराज हैं, क्योंकि उन्हें उम्मीदवारों को चयन को लेकर शिकायत है। उन्हंे लगता है कि गलत उम्मीदवारों को टिकट दे दिया गया है। पार्टी से नाराजगी को लेकर भाजपा प्रबंध सजग हैं। इसलिए उन्होंने एक रणनीति के तहत यह कहना शुरू कर दिया है कि कमल पर वोट देने का मतलब भाजपा को नहीं, बल्कि नरेन्द्र मोदी को वोट देना है। जीतने के लिए उम्मीदवारों और पार्टी को अब पीछे किया जा रहा है और कह रहा है कि कार्यकत्र्ता ौर मतदाता इस बात को समझें कि वहां से चुनाव खुद नरेन्द्र मोदी लड़ रहे हैं। हार का मतलब मोदी की हार होगी।

नरेन्द्र मोदी के लिए भी उत्तर प्रदेश की जीत से ज्यादा जरूरी है बनारस की जीत। यदि प्रदेश में जीत हो भी जाती है और बनारस में पार्टी हार जाती है, तो इसका संदेश मोदीजी के लिए खराब जाएगा। गलत उम्मीदवारों के चयन को हार के लिए जिम्मेदार ठहराकर भी मोदीजी को नहीं बचाया जा सकता, क्योंकि वहां के उम्मीदवारों के चयन की मुख्य जिम्मेदारी भी मोदीजी की ही थी। गलत उम्मीदवारों के चयन का मतलब यही होगा कि मोदी जी अपने क्षेत्र के गलत लोगों की संगत में रहते हैं। (संवाद)