यह तो हुई काशी और मगहर से जुड़े विश्वास या अंध विश्वास की बात, लेकिन यह सच है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने उत्तर प्रदेश चुनाव प्रचार का अंतिम तीन दिन वाराणसी में ही बिताया। ऐसा पहली बार हो रहा था कि कोई प्रधानमंत्री अपने लोकसभा क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले विधानसभा क्षेत्रों में अपनी पार्टी की जीत के लिए इतना ज्यादा व्यग्र हो कि वह पूरी ताकत लगाकर वहां की जीत के लिए प्रयास करे। मोदीजी के विरोधी कह रहे हैं कि ऐसा करके उन्होंने अपने प्रधानमंत्री पद की गरिमा कम कर दी है। उनके एक मंत्री उपेन्द्र कुशवाहा भी कुछ वैसा ही कह रहे हैं।
आखिर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को वैसा क्यों करना पड़ा? क्या वास्तव में उनकी पार्टी के उम्मीदवारों की स्थिति उनके अपने ही लोकसभा क्षेत्र में बहुत खराब थी? और यदि खराब भी थी और वे चुनाव हार भी जाएं, तो इससे प्रधानमंत्री के सेहत पर असर क्यों पड़ना चाहिए? चुनाव में तो हारजीत लगी ही रहती है और मतदाता पार्टी को ही नहीं, उम्मीदवार को ध्यान में रखकर भी मतदान करते हैं। इसलिए कभी उम्मीदवार के कारण हार होती है, तो कभी पार्टी के कारण हार होती है। यदि पार्टी की हवा खराब हो तो अच्छा और लोकप्रिय उम्मीदवार भी चुनाव हार जाता है और यदि पार्टी के पक्ष में आंधी चल रही हो तो बदनाम और अनाम उम्मीदवार भी चुनाव जीत जाता है।
दरअसल बनारस के भाजपा उम्मीदवारों की हालत बेहद ही खराब थी और उनकी जीत की दूर दूर तक कोई संभावना नहीं थी। अब शायद मोदीजी के प्रचार और अन्य जुगाड़ के कारण उनमें से कुछ जीत भी जाएं, लेकिन 4 मार्च तक उनकी हार के बारे में किसी को कोई संदेह नहीं था। इसका एक बड़ा कारण तो समाजवादी पार्टी और कांग्रेस का गठबंधन था और दूसरा कारण गलत उम्मीदवारों का चयन।
एक तीसरा कारण भी था और वह यह था कि जिन लोगों ने बहुत उम्मीद के साथ नरेन्द्र मोदी को लोकसभा चुनाव में समर्थन किया था, वे अपने आपको ठगा महसूस कर रहे थे। उनकी कोई उम्मीद पूरी नहीं हो रही थी और अपने सांसद के प्रधानमंत्री होने का कोई लाभ उन्हें मिलता दिखाई नहीं पड़ रहा था। इसका कारण यह था कि नरेन्द्र मोदी न तो बनारस के अपने लोगों के साथ जुड़ रहे थे और न ही जुड़ना चाह रहे थे। लिहाजा उनके अपने लोग भी पार्टी के उम्मीदवारों की जीत में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रहे थे। उल्टे प्रतिशोध में आकर मोदीजी को सबक सिखाना चाह रहे थे।
पिछले विधानसभा में भाजपा की अच्छी जीत बनारस में हुई थी। पार्टी तो हारकर तीसे स्थान पर प्रदेश भर में खिसक गई थी, लेकिन वाराणसी लोकसभा क्षेत्र के अंदर आने वाली पांच विधानसभाओं में से तीन पर पार्टी की ही विजय हुई थी। ये तीनों शहरी क्षेत्र हैं। एक अन्य विधानसभा क्षेत्र रोहनिया में अनुप्रिया पटेल की जीत हुई थी, जो लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के खेमें में आ गई थी।
नरेन्द्र मोदी के बनारस से लोकसभा उम्मीदवार बनने के पीछे का कारण भी यही था कि इस क्षेत्र को भाजपा का सबसे मजबूत किला माना गया था। अब इस किले में मोदी जी के प्रधानमंत्री रहते हुए पार्टी हार जाय, तो यह मोदी के वोट दिला पाने की क्षमता पर बड़ा सवालिया निशान होता। मोदी का रुतबा पार्टी में इसीलिए बड़ा है कि वह पार्टी को वोट दिलवा कर उसके उम्मीदवारों को जिता सकते हैं। लेकिन बनारस में उनकी इस ताकत पर सवाल खड़ा होने वाला था।
बनारस शहर की तीन सीटों में एक पर तो पार्टी ने अपना उम्मीदवार उनकी इच्छा के खिलाफ बदल दिया। वह सात बार वहां के विधायक बने हैं और उनको हटाने का कोई ठोस कारण भी पार्टी बता नहीं पाई। कहते हैं कि जिस व्यक्ति को उनकी जगह लाया गया, वह लोगों के बीच अलोकप्रिय है। जाहिर है, बनारस के भाजपा नेता और कार्यकत्र्ता नाराज हो गए। उन्हें लगा कि पार्टी के नेता अपनी मनमानी पर उतर आए हैं और उन्हें लोकलाज का लिहाज भी नहीं है।
एक अन्य सीट पर विधायक मां की जगह उनके बेटे को टिकट दे दिया गया। विधायक के टिकट कटने का तो कार्यकत्र्ताओं मे गम नहीं हुआ, लेकिन उसके बेटे को ही टिकट क्यों दिया गया, इसे लेकर सवाल उठाए जाने लगे। उनके अनुसार किसी समर्पित कार्यकत्र्ता को टिकट दिया जाना चाहिए था। इस तरह के निर्णयों के कारण तीनों सीटों पर भाजपा की हवा खराब हो गई। उनके अपने कार्यकत्र्ता विद्रोह पर उतारू हो गए।
दो अन्य सीटों पर भी भाजपा के उम्मीदवारों की स्थिति अच्छी नहीं है। एक सुरक्षित सीट पर तो मुख्य मुकाबला ही समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के उम्मीदवारों के बीच में है। रोहनिया में लोकसभा के बाद हुए उपचुनाव में भाजपा समर्थित अपना दल की कृष्णा पटेल चुनाव हार गई थीं। अब कृष्णा और अनुप्रिया की दो पार्टियां हैं और उस विभाजन के कारण भी भारतीय जनता पार्टी को नुकसान हो रहा है।
जाहिर है, भाजपा की स्थिति बेहद खराब थी और आशंका थी कि पांचों सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार हो जाएंगे। इसी आशंका के कारण मोदीजी ने बनारस में वह कर दिया, जो आजतक किसी प्रधानमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र में नहीं किया था। उतनी कोशिशों का शायद कोई अच्छा नतीजा आ जाए, लेकिन यदि वैसा नहीं हुआ, तो मोदीजी की भारी फजीहत हो जाएगी। वे हार का ठीकरा गलत उम्मीदवार के चयन पर भी नहीं डाल सकते, क्योंकि वहां के उम्मीदवारों के चयन की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी, क्योंकि वह वहां के लोकसभा सांसद भी हैं। सांसद होने के कारण वहां के स्थानीय नेताओं से उनके संपर्क रहने की उम्मीद की जाती है और उनके बारे में जानकारी रखी जाने की भी उम्मीद की जाती है। (संवाद)
प्रधानमंत्री का काशी प्रवास
बनारस की जीत क्यों जरूरी है मोदी के लिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-03-07 12:12
कहा जाता है कि जब किसी की जिंदगी का आखिरी समय आता है, तो उसकी इच्छा काशी जाने की होती है। मान्यता यह है कि अपने अंतिम दिन काशी में बिताने से मोक्ष मिलता है। इस तरह के अंधविश्वासों के खिलाफ जिंदगी भी संघर्ष करने वाले कबीरदास ने अपने अंतिम समय में काशी को छोड़ दिया और उस मगहर में अपनी अंतिम सांसें ली, जिसके बारे में कहा जाता था कि वहां मरने पर नर्क मिलता है।