आखिर प्रियंका से जुड़ा रहस्य क्या है? वे गैरराजनैतिक तो हैं नहीं, क्योंकि वे राजनैतिक बयानबाजी भी करती हैं और उत्तर प्रदेश के दो लोकसभा क्षेत्रों में प्रचार भी करती रही हैं। यह दूसरी बात है कि इस बार उन्होंने वहां भी प्रचार नहीं किया। कहा जाता है कि रायबरेली लोकसभा की जनता से वे अभी भी जुड़ी रहती हैं और सोनिया गांधी की जगह वह ही वहां की जनता की समस्याओं का समाधान करने की कोशिश करती हैं। यानी उनका राजनीति में होना एक स्वयंसिद्ध तथ्य है, लेकिन सच्चाई यह भी है कि कांग्रेस नेताओं और कार्यकत्र्ताओं की भावनाओं का सम्मान करती हुई वह पूरे राज्य में चुनाव प्रचार में शामिल नहीं होतीं।
जिस तरह पहले वह रायबरेली और अमेठी में घूमघूम कर प्रचार करती थीं, वैसा उन्होंने इस बार नहीं किया। कांग्रेस के लोग कहते हैं कि उन्होंने वैसा नहीं किया, क्योंकि उन दोनों क्षेत्रों में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच पूर्ण समझौता नहीं हो पाया था। दोनों लोकसभा क्षेत्रों के सभी 10 विधानसभा क्षेत्रों से कांग्रेस के प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे थे, तो उनमें से 5 में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार भी थे। इसलिए प्रियंका गांधी ने कांग्रेसी प्रत्याशियों के पक्ष में भी प्रचार नहीं किया, क्योंकि तब उन्हें समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों के खिलाफ भी बोलना पड़ता। लेकिन सवाल यह है कि जब गठबंधन धर्म उतना ही प्यारा था, तो फिर कांग्रेस ने सभी चुनाव क्षेत्रों से अपने उम्मीदवार खड़ा करने की जरूरत ही क्यों समझी।
उन 10 विधानसभा क्षेत्रों में से 7 में पिछले विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीते थे, जबकि 2 पर कांग्रेस की जीत हुई थी। एक विधानसभा क्षेत्र में पीस पार्टी का उम्मीदवार जीता था, जिसने बाद में कांग्रेस का दामन थाम लिया। इस तरह 3 सीटों पर तो कांग्रेस को कोई समस्या नहीं थी। अपनी 7 सीटों में भी पांच में समाजवादी पार्टी ने कांग्रस के उम्मीदवारों के लिए अपने विधायकों को चुनाव लड़ने से मना कर दिया। यानी समाजवादी पार्टी सिर्फ 2 सीटों पर लड़ना चाह रही थी, लेकिन कांग्रेस को वह भी मंजूर नहीं था। उसने सभी 10 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतार दिए। बदले में समाजवादी पार्टी के तीन अन्य विधायक भी फिर से उम्मीदवार बन गए। इस तरह समाजवादी पार्टी के कुल उम्मीदवारों की संख्या 5 हो गई और उतनी ही सीटों पर समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के उम्मीदवार आमने सामने आ गए।
यदि कांग्रेस ने उम्मीदवार खड़े ही कर दिए थे, तो फिर उनके लिए प्रचार करने में क्यों परेशानी होनी चाहिए थी? जाहिर है, प्रचार नहीं करने का कारण यह नहीं हो सकता। लगता है कि प्रियंका गांधी की राजनैतिक सक्रियता को राहुल गांधी पसंद नहीं करते। समाजवादी पार्टी के साथ चल रही बातचीत जब लगभग विफल हो गई थी और अलग अलग चुनाव लड़ना ही दोनों पार्टियों नियति बनती जा रही थी, तो एकाएक दोनों के बीच समझौते की खबर आ गई, जिसमें बताया गया कि कांग्रेस 105 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और शेष 298 सीटों पर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार खड़े होंगे।
समझौता वार्ता सफल होने के लिए प्रियंका गांधी को श्रेय दिया जाने लगा। बाद में पता चला कि समझौता वार्ता में सीधे सोनिया गांधी ने हिस्सा लिया था और उसके बाद ही सीटों की संख्या पर बात बनी थी, लेकिन उस समझौते की सफलता का श्रेय प्रियंका गांधी को देने वाले नेताओं में गांधी परिवार से बाहर सबसे ताकतवर माने जाने वाले नेताओं मे से एक अहमद पटेल भी एक थे। फिर मीडिया ने प्रियंका गांधी और राहुल गांधी के बीच तुलना करना शुरू कर दिया और यह कहना शुरू कर दिया कि जहां राहुल विफल रहे, वहीं प्रियंका सफल हो गई। इस तरह प्रियंका के सामने राहुल के कद को बौना दिखाया जाने लगा।
जाहिर है, इस तरह की तुलना राहुल गांधी को अच्छा नहीं लगा होगा। और यदि सीटों की संख्या पर चल रहे तकरार को समाप्त करने में सोनिया गांधी की भूमिका होने के बावजूद प्रियंका को उसका श्रेय दिया गया, तो यह निश्चय ही राहुल गांधी को नीचा दिखाने का प्रयास था। इसके कारण राहुल गांधी के कान खड़े होने स्वाभाविक थे।
दरअसल, मीडिया का एक बड़ा वर्ग राहुल गांधी को नीचा दिखाने का मौका पाना चाहता है। जहां कहीं उसे मौका मिलता है, वह शुरू हो जाता है। यदि प्रियंका राजनीति में आ जाएं, तो बात बात में राहुल से उनकी तुलना लाजिमी है। राहुल के बारे में तो अब तक देश के सभी लोग जान गए हैं, लेकिन प्रियंका के पास कितना राजनैतिक कौशल है और राजनीति की कितनी समझ है, इसके बारे में देश और देश के लोग अभी तक अंधकार में है। देश के सामने खड़ी चुनौतियों पर उनकी क्या राय है- इसके बारे में उन्होंने कभी अपना मुह नहीं खोला। लेकिन राजनीति मे जिसकी मुट्ठी बंद रहती है, वह फायदे में होता है और जिसने अपने बारे में सबकुछ सार्वजनिक कर दिया है, वह घाटे में चला जाता है। जाहिर है, जब राहुल और प्रियंका के बारे में तुलना की जाएगी, तो शुरू मे राहुल के सामने प्रियंका बीस ही नजर आएंगी।
उत्तर प्रदेश का यह चुनाव भी एक स्तर पर प्रियंका बनाम सोनिया बन जाता। इसे देखते हुए ही कांग्रेस ने प्रियंका को चुनाव मैदान में नहीं उतारा। राहुल भी ऐसा ही चाहते होंगे। लेकिन कांग्रेस कार्यकत्र्ताओं द्वारा प्रियंका को राजनीति में सक्रिय होने की मांग समाप्त नहीं होगी। (संवाद)
सक्रिय राजनीति में प्रियंका: आखिर झिझक क्यों है?
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-03-09 12:15
कांग्रेस के कई नेताओं ने चुनाव प्रचार शुरू होने के पहले कहा था कि उत्तर प्रदेश के अभियान में प्रियंका भी शामिल होंगी। कुछ नेताओं ने दबे स्वर में कहा था, तो कुछ ने साफ साफ शब्दों में कहा था कि प्रियंका गांधी अमेठी और रायबरेली से बाहर भी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार करेंगी। लेकिन उन सबकी बात गलत साबित हो गई और प्रियंका ने अपने आपको उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रचार से दूर ही रखा। पांच मिनट के लिए अमेठी- रायबरेली चुनाव सभा को जरूर संबोधित किया, लेकिन वह रस्म अदायगी से ज्यादा कुछ नहीं थी। वह भी प्रियंका गांधी को इसलिए करना पड़ा क्योंकि राहुल गांधी की बहुत आलोचना हो रही थी कि वे प्रियंका को सक्रिय राजनीति में नहीं आने देना चाहते।