1977 में जब जनता पार्टी को अपने सहयोगी दलों के साथ अविभाजित उत्तर प्रदेश की सभी 85 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, लेकिन उसके बाद हुए विधानसभा चुनाव में उसको 300 से कम सीटें ही मिली थीं। 1984 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस को 85 में से 83 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, पर उसके तुरंत बाद हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 300 से कम सीटें मिली थीं। लेकिन इस बार विधानसभा के चुनाव ने सारे पुराने रिकाॅर्ड तोड़ डाले।

नतीजे आने के बाद मायावती आरोप लगा रही हैं कि वोटिंग मशीनों में गड़बड़ी करके भाजपा ने चुनाव जीता है। दूसरी तरफ भाजपा के लोग कह रहे हैं कि मुस्लिम महिलाओं ने उनकी पार्टी को भारी पैमाने पर मतदान किया है, क्योंकि वे तीन तलाक और बहुविवाह प्रथा को समाप्त करने के भाजपा के वायदों से खुश है। हो सकता है मुस्लिम महिलाएं बहु विवाह और तीन तलाक से मुक्ति चाहती हों और कुछ ने इसके कारण भाजपा को वोट भी दिया हो, लेकिन इतनी बड़ी जीत की व्याख्या इससे नहीं हो सकती।

सच तो यह है कि भारतीय जनता पार्टी की जीत मौन ओबीसी के लोगों की मौन क्रांति है। राजनैतिक परिचर्चाओं में इस मौन ओबीसी की बहुत बड़ी आबादी की उपेक्षा कर दी जाती रही है। मीडिया भी दलितों और मुसलमानों की ग्रंथि से पीड़ित रहा है। जीत का श्रेय मीडिया दलितों और मुस्लिमों के वोट केा देता रहा है, तो हार के लिए भी उन्हीें को कारण बता देता है। हमारे राजनैतिक विमर्श के अनुसार जीत हार के निर्धारित करने वाले सबसे बड़े फैक्टर दलित और मुस्ल्मि ही हैं।

लेकिन सचाई यह है कि मौन ओबीसी की आबादी इन दोनों सामाजिक समूहों से बहुत ज्यादा है। उत्तर प्रदेश को ही लें। वहां ओबीसी की कुल आबादी 54 फीसदी है। उनमें से 14 फीसदी तो मुसलमान हैं। शेष 40 फीसदी हिन्दु ओबीसी में 8 फीसदी यादव है और जो 32 फीसदी बच गए, उन्हें हम मौन ओबीसी कह सकते हैं। वहां 21 फीसदी दलित और 19 फीसदी मुस्लिम हैं, जो मौन ओबीसी के 32 फीसदी से कम हैं।

पिछले 2007 और 2012 के चुनाव नतीजों को भी इसी मौन ओबीसी ने तय किया था, लेकिन राजनैतिक विमर्श में उनके योगदान की उपेक्षा की दी गई। 2007 के पहले मुलायम की सरकार में यादवों को दी जा रही तरजीह के कारण इस मौन ओबीसी का एक बड़ा तबका ने मायावती को वोट दिया था और उन्हें स्पष्ट बहुमत दिला दी थी। उस चुनाव में मुस्लिम ज्यादातर मुलायम के साथ ही थे और अगड़ी जातियों का ज्यादातर वोट भाजपा और कांग्रेस को ही पड़े थे। लेकिन मायावती ने खुद अपनी जीत के लिए दलित मुस्लिम और ब्राह्मण समीकरण को कारण बता दिया।

2012 के चुनाव के पहले मायावती और कांग्रेस की सम्मिलित प्रयासों के कारण ओबीसी को मिल रहे 27 फीसदी आरक्षण को धर्म के आधार पर हिन्दू और गैर हिन्दू ओबीसी में बांट दिया गया। हिन्दू ओबीसी केा साढ़े 22 फीसदी, तो हिन्दू गैर हिन्दू ओबीसी को साढ़े 4 फीसदी दे दिया गया और साढ़े 4 फीसदी को मुस्लिम आरक्षण करार दिया गया। फिर सलमान खुर्शीद जैसे नेता उसे चुनाव के बाद बढ़कार 9 फीसदी करने की मांग करने लगे। लिहाजा मौन ओबीसी का एक बड़ा तबका, तो मुलायम के खिलाफ था, उनके पक्ष में आ गया और 2012 में समाजवादी पार्टी की जीत हो गई।

मायावती ने मौन ओबीसी के उस तबके को अपने साथ फिर से लाने की कोई कोशिश नहीं की। उल्टें अगड़ी जातियांे को विधानसभा और लोकसभा का टिकट बेचबेचकर मौन ओबीसी को टिकटों से भी वंचित कर दिया। माया के खिलाफ मौन ओबीसी की नाराजगी बनी रही और अखिलेश सरकार से भी नाराजगी बढ़ती रही। इस नाराजगी के कारण ही लोकसभा चुनाव में भाजपा को अपार समर्थन मिला। लोकसभा में हार के बाद भी अखिलेश सरकार ने मौन ओबीसी को अपनी ओर करने की कोई कोशिश नहीं की।

दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी ने मौन ओबीसी तक अपनी पहुंच बढ़ानी शुरू कर दी। वह पहुंच नहीं भी बढ़ाती, तो भी उनका वोट उसे मिलना ही था, क्योंकि वे अखिलेश और माया दोनों के खिलाफ हो गए थे। अखिलेश यादव ने नरेश उत्तम को प्रदेश समाजवादी पार्टी का अध्यक्ष बनाकर प्रतीकात्मक रूप से मौन ओबीसी को अपने पक्ष में करना चाहा, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान नरेश उत्तम का इस्तेमाल नहीं किया गया।

यदि राहुल गांधी की जगह अखिलेश नरेश उत्तम को अपने मंच पर भाषण करते और उनको कराते और श्री उत्तम को प्रदेश का उपमुख्यमंत्री बना देने की घोषणा करते, तो वे हारती बाजी को पलट सकते थे। गौरतलब हो कि 1995 के चुनाव में जब लालू यादव को अपनी हार का डर सता रहा था, तो उन्होंने रमई राम को उपमुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर दी थी और उसका लाभ भी उन्हें मिला था। यह दूसरी बात है कि लालू ने रमई को उपमुख्यमंत्री नहीं बनाया।

यह सच है कि 2014 में मोदी को वोट करने वाले मौन नहीं थे। उस समय लहर देखी जा सकती थी, लेकिन इस बार शांति थी। कहीं कोई लहर नहीं थी। उन्माद नहीं था। भाजपा के अनेक कार्यकत्र्ता टिकट नहीं मिलने या अन्य प्रकार की उपेक्षाओं के कारण शांत थे और लहर नहीं पैदा हो रही थी। उनमें से कुछ तो पार्टी के हारने की बात भी कर रहे थे, लेकिन मौन ओबीसी ने चुपचाप गुप्त रूप से अपना गुप्त मतदान कर डाला। और चुनावी मशीनों से भाजपा की वह जीत निकली, जिसे देखकर मायावती और कुछ अन्य लोग मशीन की छेड़छाड़ कहते हैं, लेकिन यह छेड़छाड़ नहीं, बल्कि मौन ओबीसी की मौन क्रांति थी। (संवाद)