प्रधानमंत्री मोदी ने अपने इन उद्गारों के जरिए यह आभास कराने की कोशिश की थी कि वे चुनाव प्रचार की तल्खी और आक्रामकता से उबर कर भाजपा नेता के तौर पर नहीं बल्कि प्रधानमंत्री यानी सवा सौ करोड देशवासियों के नेता के तौर पर राष्ट्र से मुखातिब हैं। लोगों को भी लगा था कि प्रधानमंत्री ने अपने इस भाषण के जरिए अपनी पार्टी के वाचाल नेताओं और कार्यकर्ताओं को भी संयम और अनुशासन बरतने की नसीहत दी है। लेकिन इसके बाद उत्तर प्रदेश समेत देश के विभिन्न हिस्सों में जो घटनाएं घटी हैं, वे न सिर्फ मोदी के भाषण के निहितार्थों के विपरीत हैं बल्कि बेहद डराने और निराश करने वाली हैं।

जाने-माने लेखक और इतिहासकार रामचंद्र गुहा को धमकी भरे ईमेल मिले हैं जिनमें कहा गया है कि वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और भाजपा की आलोचना करने से बाज आएं। अलग-अलग आईडी से आए कई मेल में कहा गया है कि मोदी और शाह को दुनिया बदलने के लिए दिव्य महाकाल ने चुना है, इसलिए उनकी आलोचना करने पर दिव्य महाकाल की ओर से मिलने वाली सजा के लिए तैयार रहें। गुहा को यह धमकियां उनके लिखे उस ब्लॉग के लिए मिल रही हैं जिसमें उन्होंने मोदी और शाह की कार्यशैली की तुलना इंदिरा गांधी और संजय गांधी से की थी।

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी के विरुध्द फेसबुक पर एक कविता पोस्ट करने वाले बांग्ला कवि श्रीजात के खिलाफ तो हिंदू संहति संगठन ने न सिर्फ सिलीगुडी में एफआरआई दर्ज कराई बल्कि उनके समर्थन में प्रदर्शन करने वाली कवयित्री मंदाक्रांता सेन को सामूहिक बलात्कार की धमकी तक दे दी गई। मंदाक्रांता वही कवयित्री हैं जिन्होंने एक साल पहले मोदी सरकार पर असहिष्णुता बरतने का आरोप लगाते हुए अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया था।

अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित करने या रौंदने वाले उपरोक्त दो वाकये तो महज बानगी है। उत्तर प्रदेश और देश के दीगर हिस्सों में तो चुनाव नतीजे आने के बाद ऐसे कई छोटे-बडे वाकये सामने आए हैं। चुनावों के दौरान ही महाराष्ट्र के कोल्हापुर में आंबेडकरवादी विचारक डॉ. कृष्णा किरवले की उनके घर में घुस कर हत्या कर दी गई। यह हत्या ठीक उसी तर्ज पर की गई जिस तर्ज पर मोदी सरकार बनने से पहले पुणे में तर्कशास्त्री नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की गई थी और मोदी सरकार बनने के बाद कोल्हापुर में कम्युनिस्ट नेता गोविंद पानसरे तथा बेंगलुरू में कर्नाटक विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति मशहूर कन्नड साहित्यकार एमएम कलबुर्गी को मारा गया था। ये तीनों हत्याएं सनातन संस्था नामक संगठन के लोगों ने की थी जो आज तक पकडे नहीं गए हैं। इसी संगठन के लोगों ने नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने पर कन्नड के प्रतिष्ठित साहित्यकार यूआर अनंतमूर्ति को पाकिस्तान जाने का टिकट भेजने जैसी वाहियात हरकत भी की थी और उसके कुछ ही दिनों बाद उनकी मौत पर पटाखे भी फोडे थे। यह भी जगजाहिर है कि हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला को किन परिस्थितियों के चलते आत्महत्या जैसा कदम उठाना पडा था। उत्तर प्रदेश के दादरी में अखलाक की हत्या, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार का उत्पीडन और उस पर बिना किसी सबूत के राजद्रोह का मुकदमा, कारगिल की लडाई में शहीद हुए मेजर की बेटी गुरमेहर कौर को सोशल नेटवर्किंग साइट पर गालियां और धमकियां तथा जेएनयू के छात्र नजीब के रहस्यमय तरीके से लापता होने की घटनाएं भी पुरानी नहीं हैं।

उग्र राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के उन्माद में किसी को भी पाकिस्तान चले जाने की सलाह या भेज देने की धमकी आम बात हो गई है। ऐसी सलाह या धमकी सत्ताधारी पार्टी और उसके सहमना संगठनों के साधारण कार्यकर्ता ही नहीं बल्कि जिम्मेदार पदाधिकारी और सरकार के अहम पदों पर बैठे लोग भी दे रहे हैं। ऐसी धमकियां सिर्फ सत्ताधारी पार्टी की हिंदुत्ववादी विचारधारा से असहमति रखने वालों को ही नहीं बल्कि सरकार की आर्थिक नीतियों का विरोध करने वालों को भी मिल रही हैं। उन्हें राष्ट्रद्रोही करार दिया जा रहा है। सरकारें विकास के नाम पर बडे-बडे कारपोरेट घरानों और विदेशी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को जल जंगल और जमीन जैसी प्राकृतिक संपदा के दोहन की खुली छूट दे रही हैं। इस लूट पर सवाल उठाने वालों को माओवादी करार देकर जेल में डाला जा रहा है और फर्जी मुठभेड में मारा जा रहा है। इस सरकारी आतंक के खिलाफ लिखने वाले लेखकों और पत्रकारों के खिलाफ फर्जी मुकदमें दर्ज किए जा रहे हैं। इस तरह के दमन और उत्पीडन पर अदालतों के जो फैसले आ रहे हैं उन्हें भी बहुत संतुलित नहीं कहा जा सकता।

कोई व्यक्ति क्या खाता है और क्या पहनता है यह उसका निजी मामला है और इसकी आजादी भी अभिव्यक्ति की आजादी में निहित है जो हमारे संविधान ने हम लोगों को दी है। लेकिन लोगों को बाकायदा निर्देशित किया जा रहा है कि उन्हें क्या खाना है और क्या नहीं, क्या पहनना है और क्या नहीं। उत्तर प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के बाद सरकारी तत्वावधान में एंटी रोमियो अभियान के नाम युवा जोडों की पकड-धकड और पिटाई जैसी फूहड कार्रवाइयों से भी सवाल उठता है कि आखिर हम किस तरह का उदार और लोकतांत्रिक समाज या न्यू इंडिया बनाने जा रहे हैं?

हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई मौकों पर कहा है कि उनकी सरकार अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को बनाए रखने के लिए कटिबध्द है। उन्होंने प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के चंद दिनों बाद ही जून 2014 में एक कार्यक्रम में कहा था- ‘यदि हम भाषण और अभिव्यक्ति की आजादी की गारंटी नहीं दे सकेंगे तो हमारा लोकतंत्र नहीं बचेगा।’ अभिव्यक्ति की आजादी के प्रति प्रधानमंत्री की इस घोषित प्रतिबध्दता और उनकी सरकार तथा पार्टी के क्रिया-कलापों में जमीन-आसमान का अंतर साफ दिखाई देता है।

आज अभिव्यक्ति की आजादी पर गंभीर संकट के जो बादल मंडरा रहे हैं उसके मद्देनजर भाजपा के मार्गदर्शक नेता लालकृष्ण आडवाणी की वह चेतावनी याद आती है जो उन्होंने दो वर्ष पूर्व आपातकाल की 40वीं वर्षगांठ के मौके पर एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में दी थी। अपनी इस चेतावनी में आडवाणी ने कहा था- ‘लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है।’

आडवाणी की इस चिंता भरी चेतावनी के मद्देनजर हमें देश में लोकतंत्र के पहरूए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थानों की भूमिका पर भी गौर करना चाहिए, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता कभी संदेह से परे हुआ करती थी। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बडे कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड। व्यावसायिक वजहों से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, उसमें पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है।

कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि देश में फिलहाल लोकतांत्रिक व्यवस्था तो चल रही है, लेकिन लोकतांत्रिक संस्थाओं का तेजी से क्षरण हो रहा है। सत्तर के दशक तक केंद्र के साथ ही ज्यादातर राज्यों मे भी कांग्रेस का शासन था, इसीलिए देश पर आपातकाल आसानी से थोपा जा सका था। अब भी एक बार फिर वैसी ही निर्द्वंद्व सत्ता की स्थिति बनती दिखाई दे रही है। हालांकि अब शायद ही कोई सरकार आपातकाल थोपने जैसा कदम उठाने का दुस्साहस करेगी, लेकिन यह जरूर ध्यान रखा जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों का अपहरण हर बार बाकायदा घोषित करके ही किया जाए, यह जरुरी नहीं। वह लोकतांत्रिक आवरण और कायदे-कानूनों की आड में भी हो सकता है। इस दिशा में मौजूदा हुकूमत की कोशिशें जारी भी हैं। देखने वाली बात होगी कि ऐसी कोशिशों के साथ प्रधानमंत्री मोदी का ‘न्यू इंडिया’ का स्वप्न-संकल्प किस तरह का आकार लेता है। (संवाद)