क्या सपा और बसपा जैसी पार्टियां एक हो भी सकती हैं? इसका जवाब सकारात्मक और नकारात्मक दोनों हो सकता है। अपने हितों को साधने के लिए राजनैतिक दलों के नेता किसी भी हद तक जा सकते हैं, लेकिन वे एक दूसरे से हाथ तभी मिलाते हैं, जब वे अपने आपको कमजोर समझते हैं। यदि उन्हें लगे कि वे इतने मजबूत हैं कि अकेले रहकर ही अपने हितों को साध सकते हैं, तो वे अपने हिस्से का त्याग कर किसी के साथ हाथ मिलाने में दिलचस्पी नहीं लेते।
बिहार और उत्तर प्रदेश का उदाहरण सामने है। बिहार में लालू और नीतीश कुमार की पार्टियों को 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार मिली थी। उस हार के बाद दोनों को अपने वजूद पर खतरा महसूस हुआ और अपने अपने वजूद बचाने के लिए दोनों ने एक दूसरे से हाथ मिला लिया और फिर भाजपा को हराने में सफल भी हो गए।
उत्तर प्रदेश में भी भारतीय जनता पार्टी ने समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी को धूल चटा दी थी। सच तो यह है कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में बिहार से बड़ी कामयाबी मिली थी और समाजवादी पार्टी व बसपा को बिहार के राजद और जद(यू) की तुलना में बड़ी हार मिली थी। बसपा का तो एक भी उम्मीदवार नहीं जीता था। मुलायम परिवार के बाहर का कोई भी उम्मीदवार समाजवादी पार्टी ने नहीं जीता था। कांग्रेस में भी सोनिया और राहुल के अलावा अन्य सभी चुनाव हार गए थे।
पर लोकसभा में करारी हार के बाद भी न तो बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती को और न ही समाजवादी पार्टी के मुलायम परिवार को यह महसूस हुआ कि उनके पैरों के नीचे से मिट्टी खिसक चुकी है और वे अलग अलग रहकर भाजपा को हरा नहीं सकते। बाद में हुए उपचुनावों मंे भाजपा की हार हो रही थी और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीत रहे थे। इसलिए मुलायम-अखिलेश को लगा कि 2014 में भाजपा की हुई जीत एक तात्कालिक घटना थी।
बहुजन समाज पार्टी तो उपचुनाव में हिस्सा ही नहीं ले रही थी, इसलिए उसे यह पता ही नहीं चला कि वह खुद कितने पानी में है। हां, भाजपा की उपचुनावों में हार का मतलब उसने यह निकाल लिया कि लोकसभा के चुनावी नतीजे भाजपा विधानसभा के आम चुनाव में नहीं दोहरा सकती। लिहाजा, वह अपनी और भाजपा की ताकत को लेकर भ्रम में रही। उसे लगा कि उत्तर प्रदेश की मुख्य विपक्षी पार्टी वही है और मुकाबला मुख्यतः उसके और समाजवादी पार्टी के बीच में ही होने वाला है। इसलिए भाजपा को हराने के लिए वह समाजवादी पार्टी से क्यों हाथ मिलाने लगी? एक तरफ अखिलेश यादव अपने स्वयंघोषित विकास कार्यो के बल पर फिर से सत्ता में आने के सपने देख रहे थे, तो मायावती सत्ता विरोधी मतों और अपने दलित- मुस्लिम- ब्राह्मण गठबंधन के बूते सत्ता में आने का ख्वाब बुन रही थीं।
समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी- दोनों का आकलन गलत साबित हुआ और भारतीय जनता पार्टी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के नतीजो को 2017 के उत्तर प्रदेश विधानभा चुनाव में दुहरा दिया। सच कहा जाय, तो धरातल पर 2014 और 2017 के चुनावों के बीच उत्तर प्रदेश में कोई बदलाव हुआ ही नहीं था। उपचुनावों मे भाजपा की हार महज छलावा थी। उन उपचुनावों के नतीजों से प्रदेश की सरकार बदल नहीं सकती थी और न ही भाजपा सत्ता में आ सकती थी, इसलिए मतदाता सिर्फ अपने स्थानीय विधायक को चुनने के लिए वोटिंग कर रहे थे। लेकिन आम चुनाव में मतदाता सिर्फ विधायक नहीं चुनते हैं, बल्कि अपने लिए सरकार चुनते हैं। सच कहा जाय, तो उनकी नजर पहले प्रदेश की कुर्सी पर बैठने वालों पर रहती है और उसके बाद ही वे यह देखते हैं कि उनका विधायक कौन बनने वाला है।
यह सच है कि उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी ने अपना मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित नहीं किया था, लेकिन इससे उत्तर प्रदेश के मतदाताओं पर कोई असर नहीं पड़ा। इसका कारण यह है कि वे कोई सकारात्मक कारणों से भाजपा को समर्थन नहीं दे रहे थे। भाजपा के समर्थन का असली कारण मुलायम परिवार और मायावती से उनका मोहभंग था। मुलायम को समर्थन करने वाले मतदाताओं का एक हिस्सा उनके खिलाफ हो गया था। उसी तरह मायावती को समर्थन करने वाले मतदाताओ का एक हिस्सा भी उनके खिलाफ हो गया था। मायावती से जो नाराज हुए, वे मुलायम परिवार की ओर नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि वे उससे भी नाराज थे। उसी तरह मुलायम परिवार से नाराज लोग भी मायावती की ओर नहीं जाना चाहते थे, क्योंकि वे उनसे पहले से ही नाराज थे। लिहाजा दोनों से नाराज लोगों ने भाजपा का दामन थामा ताकि उन दोनों को सबक सिखा सकें। ऐसा करते समय उनके लिए यह जानना जरूरी नहीं था कि भाजपा की ओर से कौन मुख्यमंत्री का चेहरा है।
मायावती और मुलायम परिवार- दोनों ही राजनैतिक रूप से इतना कमजोर हो गए हैं कि अलग अलग लड़कर वे अब सत्ता हासिल नहीं कर सकते। मुलायम परिवार का समर्थन आधार अपनी जाति तक सीमित होकर रह गया है। उसी तरह मायावती का आधार भी उनकी अपनी जाति तक ही सीमित हो गया है। न तो मुलायम परिवार अब पूरे ओबीसी का नेतृत्व कर रहा है और न ही मायावती प्रदेश के सभी दलितों की नेता रह गई हैं। मुस्लिम उन दोनों की राजनीति की आशा के केन्द्र में हैं। यह तो जमीनी सच्चाई है, लेकिन सवाल उठता है कि क्या मुलायम परिवार और मायावती इस जमीनी सच्चाई को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं? इस सवाल के जवाब पर ही यह निर्भर करता है कि क्या मुलायम परिवार और मायावती मिलकर चुनाव लड़ेंगे या नहीं। (संवाद)
उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत और उसके बाद
क्या सपा और बसपा का गठबंधन संभव है?
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-05-04 11:31
उत्तर प्रदेश में भाजपा के हाथों भारी पराजय पाने के बाद विपक्षी पार्टियां महागठबंधन की बात करने लगी हैं। उन्हें लगता है कि यदि भाजपा को हराना है, तो उन सबको एक साथ आना ही होगा। उत्तर प्रदेश का उदाहरण देते हुए वे कहते हैं कि वहां यदि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस द्वारा प्राप्त मतों को जोड़ दिया जाय, तो वे करीब 50 फीसदी होते हैं, जबकि लगभग 40 फीसदी पाकर ही भाजपा ने 403 में से 325 सीटों पर जीत हासिल कर ली।