नसीमुद्दीन सिद्दकी को मायावती ने न केवल अपनी पार्टी का मुस्लिम चेहरा बना रखा था, बल्कि उन्हें मुसलमानों को पार्टी से जोड़ने की जिम्मेदारी भी दे रखी थी। सिद्दकी भाइचारा समिति की बैठकों को आयोजित करने का काम भी किया करते थे। मायावती बहुत ही आक्रामक तरीके से मुस्लिम कार्ड खेल रही थीं और पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने 100 से भी ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे। लेकिन सिद्दकी मुस्लिम वोट पार्टी को दिलाने में बुरी तरह विफल रहे। मायावती ने सत्ता पाने के लिए दलित मुस्लिम गठबंधन पर जोर दिया था, लेकिन मुसलमानों के वोट उनको बहुत कम मिले।

मायावती ने समन्वयकों की सभी समितियों को भंग कर दिया है। प्रदेश स्तर से जिला स्तर तक इस तरह की समितियां गठित की गई थीं। गौरतलब हो कि जिला स्तर तक की बैठकों का मायावती ने आयोजन किया और नसीमुद्दीन सिद्दकी के साथ उन्होंने खुद भी उन बैठकों में शिरकत की। बैठक के दौरान पार्टी की हार के लिए उन समन्वयकों को ही दोषी ठहराया गया।

अधिकांश विधानसभा क्षेत्रों में कार्यकत्र्ताओं ने उन समन्वयकों के खिलाफ नारे लगाए और उन पर पैसा खाने का आरोप लगाया। उम्मीदवारों की हार के लिए भी उन्हें ही जिम्मेदार माना जा रहा है। मायावती ने उन समन्वयकों को बहुत अधिकार दे रखे थे। टिकट के वितरण में भी उनकी बहुत भूमिका थी। वे विधायको से भी ज्यादा महत्वपूर्ण बना दिए गए थे।

ओबीसी को अपने साथ एक बार फिर से लाने के लिए मायावती सक्रिय हो गई हैं। मायावती ने इसके लिए दो कमिटियां बनाई हैं और ओबीसी जातियों के नेताओं की पहचान की जा रही है। जब ओबीसी के नेता पार्टी छोड़कर जा रहे थे, तो मायावती ने नये ओबीसी नेताओं को प्रोजेक्ट करने मे कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई, क्योंकि उन्हें लग रहा था कि जीत के लिए मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण गठजोड़ ही काफी है।

ब्राह्मणों ने भी बहुजन समाज पार्टी को वोट नहीं दिए। अब ब्राह्मणों को अपनी ओर लाने के लिए मायावती ने नकुल दुबे को लखनऊ ईकाई का प्रभारी बनाया है। मायावती ने स्थानीय निकायों के चुनाव पार्टी सिंबोल पर लड़ने का भी फैसला किया है। पहले उनकी पार्टी स्थानीय निकायों का चुनाव नहीं लड़ा करती थीं।

अपने भाई आनंद को आयकर विभाग के नोटिसों से बचाने के लिए मायावती ने उन्हें अपनी पार्टी का एकमेव उपाध्यक्ष बना दिया है। इस तरह उन्होंने अपने विरासत की भी घोषणा कर दी है।

राज्यसभा में मायावती का कार्यकाल 2018 में समाप्त हो रहा है। विधानसभा में उनके पास सिर्फ 18 विधायक ही हैं। इतने विधायकों के बूते वह राज्यसभा में तो क्या, विधान परिषद में भी नहीं जा सकतीं। इसलिए वह गठबंधन पर सौदेबाजी राज्यसभा में जाने की शर्त पर कर सकती है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और अखिलेश के विधायकों के बूते ही वह राज्यसभा का सदस्य 2018 के बाद बन सकती हैं।यही कारण है कि मायावती अपने राजनैतिक भविष्य को लेकर बहुत ही नर्वस हैं। (संवाद)