आम आदमी पार्टी में जो हो रहा वह एक गहरी बीमारी का संकेत है। इसके मूल में है पार्टी की लोकतांत्रिक प्रकियाओं का खत्म हो जाना। केजरीवाल ने भले ही जनता के बीच रायशुमारी से फैसला लेने का वायदा किया था और ऊपरी तौर पर यह बड़ा लोकतांत्रिक दिखता है। लेकिन असलियत में यह पार्टी को एक व्यक्ति के हाथ में रखने की रणनीति थी। उन्होंने पार्टी ईकाइयों को सिर्फ आदेश पालन करने वाली मशीनरी बना रखी है और सारे फैसले खुद लेते हैं। व्यक्ति के करिश्मा पर आधारित राजनीति में भीड़ से हामी लेने का एक पूरा इतिहास रहा है। यह तरीका तानाशााह अपनाते हैं। केजरीवाल ने उसी तरीके को अपनाया। सच तो यह है कि पार्टी में उनकी पसंद के कुछ चेहरे बाहर में जरूर दिखाई देते हैं लेकिन पार्टी का कोई लोकतांत्रिक ढ़ाचा नहीं है। इन चेहरों के पास भी टीवी चैनलों तथा केजरीवाल की सभाओं में मंच की शोभा बढ़ाने के अलावा कोई काम नहीं है। जानकार बताते हैं कि उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया के अलावा कैबिनेट का कोई मंत्री फैसला नहीं लेता है। अंदर के लोग बताते हैं कि हालत ऐसी रही है कि इस छोटे मंत्रिमंडल के मंत्रियों को भी मुख्यमंत्री से बात करने के लिए आसानी से समय नहीं मिलता। लोकतंत्र को व्यापक बनाने का दावा लेकर आई पार्टी का कल्पना से भी ज्यादा बुरा हाल हुआ। क्या यह सिर्फ महत्वकांक्षा की वजह से हुआ? यह एक सरलीकरण हेागा। यह जरूर है कि अरविंद और उनके साथियों की महत्वकांक्षा का पार्टी को इस हाल में पंहुचाने का बहुत योगदान हैं। लेकिन पार्टी के इस बिखराव के लिए सिर्फ महत्वकांक्षा को दोष नहीं दिया जा सकता। सच तो यह है कि अपनी महत्वकांक्षा के हिसाब से फैसला लेना भी इसलिए संभव हो पाया कि पार्टी एक बड़ी बीमारी से ग्रस्त थी। यह बीमारी थी विचारों से दूर रहने की। अगर गौर से देखें तो केजरीवाल उदारीकरण की विफल होती आर्थिक नीतियों के कारण जनता में आई निराशा की उपज थे। लेकिन उन्होंने इससे टक्कर लेने के बदले रफूगर बनना तय किया। दिल्ली के सभी वर्गो की जनता ने उन्हें जो समर्थन दिया उसे लेकर वह एक आदर्श राजनीति की नींव रख सकते थे। लेकिन वह ऐसा नहीं करना चाहते थे। पूर्व में उनके सहयोगी रहे प्रशांत भूषण ने ताजा घटनाओं पर अपनी प्रतिक्रिया में सही कहा है कि ‘‘ एक अवसर खो दिया गया’’

अपने बौद्धिक सहयोगियों के साथ उनका रवैया पहले ही सामने आने लगा था। उन्होंने योगेंद्र यादव, आनंद कुमार, प्रशांत भूषण और अजीत झा जैसे अनेक लोगों की मेहनत से बनी पार्टी के नीति-मसविदे को उसी प्रेस-कंाफ्रेंस में खारिज किया था जिसमें इसे जारी किया गया था उन्होंने कहा था कि इसका कोई मतलब नहीं है, असली बात लोगों की राय है। यह सुनने में तो अच्छा लगता था लेकिन इसके पीछे की असलियत यह थी कि वह अपने साथियों को बताना चाहते थे कि उनकी लोकप्रियता के आगे नीति आदि बेकार की बाते हैं। लोकप्रिय होना और बात है लेकिन इसका अहसास होना अलग बात!

सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों को समझने की कोशिश को ही एक फालतू काम समझने वाली पार्टिी कोई बड़ी चुनौती का सामना कैसे कर सकती है। इस काम से अलग रहने का नतीजा यह हुआ कि आप के नेतृत्व में एक नए जनोन्मुखी सरकारी तंत्र की नींव नहीं रख पाए और बेहतर कल्याण कार्यक्रमों लागू करने के बावजूद लोगों को पुरानी पार्टियों के खिलाफ राजनीतिक रूप से खड़ा नहंी कर पाए। हर सेवा को निजी क्षेत्र में जाने से रोकने की भी कोई स्पष्ट नीति वह बना नहीं पाए।संभव है कि निकाय चुनावों में उनकी पराज्य का एक बड़ा कारण यह हो कि विकेंद्रीकरण का जो वायदा उन्होंने किया था वह जमीन पर कहीं दिखाई नहीं दे रही थी। वैसे भी आंतरिक लोकतंत्र से विहीन एक राजनीतिक संगठन के जरिए वह विकेंद्रीकरण कैसे लागू कर सकते थे?

वैचारिक अस्पश्टता और पार्टी को विचारधाराओं से दूर रखने की कोशिश में उन्होंने हर तरह के लोगों को पार्टी में खींचने का काम किया। उनका यह रवैया शुरू से ही दिखाई दे रहा था। अन्ना के आंदोलन में वामपंथी और समाजवादी विचार वाले लोगों को बाहर करने में उन्होंने कभी कोई परहेज नहीं किया। उनकी और मनीष सिसोदिया की पहली पसंद दक्षिणपंथी विचारों के लोग थे। यही वजह है की केजरीवाल के मंच पर जनरल वीके सिंह भी आ गए थे ओर बाबा राम देव के कई समर्थक आंदोलन के अगुआ बने हुए थे। वक्त आने पर उन लोगों ने अपने वैचारिक घर में पनाह ले ली। किरण बेदी से बेहतर उदाहरण कौन हो सकता है। कपिल मिश्रा तो भाजपा के घर में कभी भी प्रवेश कर सकते थे। कुमार विश्वास का रूझान भी उधर ही है। वह कब तक पार्टी में टिके रहेंगे कहना मुश्किल है।

सवाल उठता है कि जनता के अपार समर्थन से खड़ी हुई पार्टी में जो हो रहा है उसे किस तरह लेना चाहिए? लोकतंत्र के लिए यह एक हादसा है। लोकतंत्र की सफाई के नाम पर खड़ी हुई पार्टी का इस तरह लुढ़कना घातक है। यह भ्रष्टाचार और बेईमानी से सत्ता में बने रहने की प्रचलित राजनीतिक शैली को ही मजबूत करेगा।

ऐसा नहीं है कि आम आदमी पार्टी के लिए सब कुछ खत्म हो गया है। निकायों के चुनावों में मिले वोटों का प्रतिशत यही जाहिर करता है कि आज भी आप को दिल्ली की गरीब जनता के बड़े हिस्से का समर्थन मिला हुआ है। चमत्कार की उम्मीद रखने वाला मध्यवर्ग भले ही उससे दूर चला गया हो, नीचे का यह वर्ग उसके साथ है और वह अब भी पार्टी के साथ उठ खड़ा हो सकता है। लेकिन यह तभी हो सकता है जब वह कपिल मिश्रा जैसों के बहाने भाजपा की ओर से हो रहे राजनीतिक हमलों का मुकाबला करने की राजनतिक रणनीति बनाएं। सिर्फ यह काम नहीं चलेगा कि केजरीवाल कभी घूस नहीं ले सकता है। उन्हें एक राजनतिक लड़ाई के लिए कार्यकर्ताओं में फिर से उत्साह भरना चाहिए और गरीब लोगों के लिए कुछ ठोस कार्यक्रम बनाना चाहिए। बिखराव को शायद रोका जा सके। लेकिन इसकी पहली शर्त होगी कि पार्टी के फैसले लेने का अधिकार कार्यकर्ताओं के दें। पार्टी और जनता मिला कर ही आप को बचा सकती है। लेकिन केजरीवाल और पार्टी अपने को बदले तभी यह संभव है। जिसे वे लोकतंत्र का नया प्रयोग कहते थे, क्या उसके लिए यह त्याग करने के लिए वे तैयार हैं? (संवाद)