लेकिन अब नीतीश कुमार की राह आसान नहीं लग रही है। बिहार के सत्ताधारी गठबंधन का सबसे बड़ा दल और सबसे छोटी पार्टी कांग्रेस दोनों उनसे अलग राह लेने की तरकीबें सोचने में लगे हुए हैं। वरिष्ठ दल राजद के साथ उनका संबंध कभी भी ठीक नहीं रहा। अपने अपने स्वार्थ के कारण लालू और नीतीश एक साथ हुए थे। नीतीश का स्वार्थ अपने को एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठाना था, तो लालू का स्वार्थ अपने बेटे और बेटियों को सत्ता तक पहुंचाना था। दोनों के स्वार्थ पूरे हुए। गठबंधन कर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री बने और लालू ने अपने दो बेटों को बिहार सरकार में मंत्री बना दिया और अपनी एक बेटी को राज्यसभा का सांसद बना दिया।

दोनों ने अपने अपने स्वार्थ पूरे कर लिए, लेकिन उसके बावजूद आपसी अविश्वास का माहौल खत्म नहीं हुआ। लालू यादव अपने आपको बड़ी पार्टी का नेता मानकर अपनी धौंस चलाते रहे, तो नीतीश ने भी उस धौंस से बचने के लिए समय समय पर संकेत दिया कि भाजपा का विकल्प भी उनके सामने खुला हुआ हैं। अपने उस विकल्प को खुला दिखाने के लिए उन्होंने नोटबंदी पर मोदी सरकार की सराहना कर दी, जबकि सारा विपक्ष उसके खिलाफ था। उत्तर प्रदेश चुनाव में भी उनके न लड़ने के निर्णय से भाजपा को ही लाभ हुआ। ताजा मामले में उन्होंने सोनिया गांधी का लंच ठुकरा दिया और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की लंच पार्टी में चले गए।

पर सोनिया गांधी का लंच ठुकराना नीतीश के लिए महंगा साबित हो सकता है। इसके कारण भाजपा के प्रति उनका रुझान शक के दायरे से निकलकर यकीन के दायरे में प्रवेश कर रहा है। इसका असर यह हुआ है कि बिहार सरकार में कांग्रेस के वरिष्ठ मंत्री ने नीतीश कैबिनेट की बैठक का बहिष्कार कर दिया, लालू के दोनों बेटे ने तो किया ही।

यानी अब राजद के साथ साथ कांग्रेस भी नीतीश को लेकर सतर्क हो गई है और दोनों पार्टियां वह तरीका ढूंढ़ने में लगी है कि यदि नीतीश ने भाजपा की ओर रुख किया, तो वे बदली हुई परिस्थिति से किस तरह से निबटेंगे। जनता दल (यू) और भारतीय जनता पार्टी के विधायकों की संख्या को जोड़ दिया जाय, तो वह 124 हो जाता है, जो बहुमत के आंकड़े यानी 122 से ज्यादा है। जाहिर है जनता दल(यू) में विभाजन कराकर ही नीतीश को भाजपा के समर्थन से सरकार बचाने से रोका जा सकता है और यदि सूत्रों की मानें तो इस तरह की कवायद बिहार में शुरू हो भी गई है। इसके कारण नीतीश के सामने एक नई चुनौती खड़ी हो गई है और वह चुनौती अपने दल के विधायकों को अपने साथ बनाए रखने की है।

नीतीश का मुख्यमंत्री बना रहना लालू को नहीं खलता है, लेकिन वे सरकार के अंदर जरूरत से ज्यादा अपना सिक्का चलाना चाहते हैं, वह नीतीश को पसंद नहीं है। इधर लालू प्रसाद और उनके परिवार से संबंधित भ्रष्टाचार और बेइंतहां संपत्ति खड़ा करने के मामले से जुड़ी खबरें आने से भी नीतीश कुमार क्षुब्ध हैं और वे चाहते हैं कि लालू और उनका परिवार अपने हद में रहें, इसलिए वे भाजपा का उन्हें डर दिखाते रहते हैं। लेकिन लालू यादव की समस्या यह है कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा उनके परिवार के खिलाफ चलाए जा रहे अभियान और केन्द्र सरकार की एजेंसी द्वारा की गई छापेमारी के लिए वे नीतीश को जिम्मेदार ठहराते हैं। उनका मानना है कि सबकुछ नीतीश करवा रहे हैं।

यानी लालू को लग रहा है कि नीतीश भारतीय जनता पार्टी और केन्द्र सरकार की सहायता से उनके परिवार के राजनैतिक वर्चस्व को तोड़ने में ही लगे हुए हैं। एक बार तो ट्विट करके लालू ने संकेत भी दे दिया था कि नीतीश भाजपा के नये दोस्त हो गए हैं, हालांकि उनकी पार्टी के प्रवक्ता ने तुरंत सफाई देते हुए कहा था कि केन्द्र सरकार की एजेंसियों को लालू ने भाजपा का दोस्त कहा था।

लालू के बेटों और कांग्रेस के अशोक चैधरी द्वारा मंत्रिमंडल की बैठक के बहिष्कार के बाद नीतीश के सामने खतरा नजदीक आता दिखाई दे रहा है। अबतक वे अपने सहयोगी दलों को भाजपा के साथ जुड़ने का डर दिखा रहे थे, तो अब उन्हें खुद राजद और कांग्रेस अपनी आंखें दिखाने में लगे हुए हैं। इस तरह की चुनौतियों का सामना करने में नीतीश कुमार माहिर रहे हैं, लेकिन ऐसा करने में वे इसलिए सफल हो जाया करते थे, क्योंकि वे देश के राजनैतिक दलों के ज्यादातर नेताओं से संवाद में रहते थे और उनके बीच स्वीकार्य भी रहा करते थे। इसके कारण वे अपनी सुविधानुसार किसी नेता का इस्तेमाल कर लिया करते थे। उदाहरण के लिए जब लालू नीतीश को बिहार का मुख्यमंत्री उम्मीदवार मानने के लिए तैयार नहीं हो रहे थे, तो नीतीश ने राहुल, सोनिया और मुलायम की सहायता से लालू को बाध्य कर दिया था।

पर नीतीश की स्वीकार्यता अब बहुत सीमित हो गई है। नोटबंदी के पक्षधर बनने के उनके फैसले और अब सोनिया गांधी के लंच के बहिष्कार के उनके निर्णय ने उन्हें भाजपा विरोधी नेताओं की नजर में गिरा दिया है। अपनी खिचड़ी अलग पकाने की उनकी राजनीति आज खुद उनपर भारी पड़ रही है। लिहाजा, अब उनकी चुनौती बढ़ गई है और बिहार की राजनीति में अनिश्चय बढ़ता जा रहा है। (संवाद)