करुणानिधि अनेक गठबंधन सरकारों में भागीदारी कर चुके हैं। वे राष्ट्रीय मोर्चा का हिस्सा थे। संयुक्त मोर्चा में भी वे थे। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन में भी वे हिस्सेदारी कर चुके हैं। उनका सबसे ताजा गठबंधन यूपीए है। उनकी एक खासियत यह रही है कि वे प्रदेश और राष्ट्रीय राजनीति को लेकर सही भविष्यवाणी करने में हमेशा सफल रहे हैं।
अभी यह स्पष्ट नहीं है कि उनके पुत्र और राजनैतिक उत्तराधिकारी एम के स्टालीन भी उनकी जैसी राजनैतिक समझ रखते हैं। पिछले 3 जून को उन्होंने अपने पिता करुणानिधि के जन्मदिवस पर गैरभाजपाई पार्टियों को इकट्ठा किया। उनके पिता उस रोज 94 साल के हुए थे। उन्होंने उनका जन्मदिवस उन नेताओं के साथ मनाया।
उस रोज करुणानिधि के सक्रिय राजनीति के 60वें सालगिरह का उत्सव भी मनाया गया। हालांकि यह भी सच है कि जिस करुणानिधि का जन्मदिवस उस रोज मनाया जा रहा था, वे खुद वहां मौजूद नहीं थे, क्योंकि उनका स्वास्थ्य खराब चल रहा है। वह समारोह 1988 में हुए एक समारोह की याद दिला देती है। वह समारोह भी करुणानिधि की जयंति के दिन ही चेन्नई में मनाया गया था और उसमें ही राष्ट्रीय मोर्चे की स्थापना की गई थी।
इस समारोह में करुणानिधि खुद मौजूद नहीं थे और समारोह के आयोजक के रूप में स्टालिन ही इसके केन्द्र में रहे। इसने स्टालिन को केन्द्रीय राजनीति और राजनेताओं से भी रुबरु होने का मौका दिया।
उस समारोह में देश के अनेक नेता शिरकत कर रहे थे। उसमें कांग्रेस के उपाध्यक्ष राहुल गांधी मौजूद थे। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी उपस्थित थे। सीपीआई और सीपीएम के महासचिव सुधाकर रेड्डी और सीताराम येचुरी भी थे, तो जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। उन लोगों के डीएमके के हजारों कार्यकत्र्ताओं को वहां संबोधित किया। समारोह के बारे में अब्दुल्ला ने कहा कि वह उत्तर और दक्षिण व पूरब और पश्चिम सभी का प्रतिनिधित्व कर रहा था।
विपक्ष का अब अहसास हो गया है कि भारतीय जनता पार्टी की इसलिए जीत हो रही है, क्योंकि उसका सही तरीके से चुनौती देने वाला आज कोई नहीं है। हाल के दिनों में चेन्नई का यह समारोह विपक्षी एकता को दिखाने वाली यह दूसरी बैठक है। सोनिया गांधी के घर पर 17 विपक्षी पार्टियों के नेताओं की एक बैठक कुछ पहले हुई थी।
विपक्षी एकता की बात उस समय होती है, जब सत्तारूढ़ पार्टी या मोर्चा बहुत शक्तिशाली होता है। पहले भी विपक्षी पार्टियों की एकता होती रही है, लेकिन अधिकांश गठबंधन टिकाऊ नहीं साबित हुए हैं। 1977 में जनता पार्टी का गठन विपक्षी पार्टियों की मोर्चाबंदी ही थी। उसके कारण मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने, लेकिन बहुत जल्द ही उसमें बिखराब आ गया और इन्दिरा गांधी 1980 में दुबारा सत्ता में आ गई।
वीपी सिंह के नेतृत्व में बना राष्ट्रीय मोर्चा तो और भी कम उम्र का साबित हुआ। 1996 में संयुक्त मोर्चा बना, लेकिन वह भी बीच मंे ही गिर गया। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन लंबे समय से बना हुआ है और यूपीए भी 10 साल तक बना रहा।
अब विपक्षी पार्टियां फिर महसूस कर रही हैं कि यदि मोदी और उनकी भाजपा को हराना है, तो एक साथ आना ही होगा। 2019 में मोदी को रोकना आसान काम नहीं है। इस समय का जो माहौल है, जिसमें विपक्षी पार्टियां बंटी हुई हैं, मोदी और भाजपा की जीत के लिए बहुत ही माकूल है। (संवाद)
मोदी और भाजपा को हराना आसान नहीं होगा
2019 में विपक्ष की एकता जरूरी है
कल्याणी शंकर - 2017-06-07 12:54
2004 के लोकसभा चुनाव के ठीक पहले मैंने डीएमके नेता करुणानिधि का इंटरव्यू लिया और उनसे पूछा कि वे यूपीए का हिस्सा क्यों बन रहे हैं। एक मिनट के लिए वे ठहरे और फिर कहा कि उनकी नजर में सोनिया के नेतृत्व वाले यूपीए के लिए सत्तारूढ़ एनडीए का विकल्प बनने के लिए जगह है। वे उस समय की राजनैतिक स्थिति को समझने में सफल रहे थे। 2004 के चुनाव में यूपीए सत्ता में आ गई। क्या विपक्षी एकता एक बार फिर जरूरी हो गई है?