यही कारण है कि देश के अनेक राज्यों के किसान भारी संख्या में आत्महत्या कर रहे हैं। मध्यप्रदेश भी उन राज्यों में एक है। यहां 2016 में 1500 से भी ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की थी। महाराष्ट्र की हालत तो मध्यप्रदेश से भी खराब है। इसलिए यह कोई संयोग नहीं कि महाराष्ट्र में भी मध्यप्रदेश की तरह किसानों का जबर्दस्त आंदोलन चल रहा है और आंदोलन के कारण दोनों प्रदेशों के उपभोक्ताओ के सामने संकट खड़ा हो गया है। हालांकि यह गनीमत है कि महाराष्ट्र में आंदोलन ने मध्यप्रदेश की तरह हिंसक रूप धारण नहीं किया है।

इसमें कोई दो मत नहीं कि किसानों की हालत पिछले पिछले कई सालों से खराब है। जब अनाज का उत्पादन कम होता है, तो वे मारे ही जाते हैं और जब उत्पादन ज्यादा होता है तो वे तब भी मारे जाते हैं, क्योंकि बेहतर उत्पादन की हालत में उनके उत्पादों की सही कीमत उन्हें नहीं मिल पाती। सरकार कुछ उत्पादों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तो घोषित करती है, लेकिन उस न्यूनतम मूल्य पर सरकार उनके अनाजों की पर्याप्त खरीद नहीं कर पाती। उसके कारण किसानों को न्यूनतम मूल्य से भी कम कीमत पर अपना अनाज मंडियों में बेचना पड़ता है, जिसके कारण वे उत्पाद की लागत भी वसूल नहीं कर पाते। सब्जियां तो सड़ने गलने लगती है, इसलिए उन्हें मिट्टी से भी कम कीमत पर कभी कभी बेच देना पड़ता है।

किसान अपनी दुर्गति के आदी रहे हैं। उनमें गजब की सहनशीलता है, लेकिन इसकी सीमा तब समाप्त हो जाती है, जब उन्हें लगता है कि सरकार द्वारा उन्हें ठगा जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले वायदा किया था कि उनकी सरकार आने पर किसानों को उनकी लागत का दुगना मूल्य उनके उत्पादों को उपलब्ध कराया जाएगा। मोदी सरकार के तीन साल हो गए हैं, लेकिन अभी तक सरकार ने उस दिशा में कदम बढ़ाने की शुरुआत ही नहीं की है। इसलिए किसान अब अपना धीरज खोकर आंदोलन कर रहे हैं कि उनके उत्पादों का लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार न केवल घोषित करे, बल्कि उस पर अमल भी सुनिश्चित करे। अनेक उत्पादों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य तो सरकार घोषित करती ही नहीं है। उन्हें भी समर्थन मूल्य के दायरे में लाने की मांग किसान कर रहे हैं।

लेकिन इस समय किसानों में जो हताशा का माहौल है, उसका तात्कालिक कारण है उत्तर प्रदेश चुनाव के पहले प्रधानमंत्री द्वारा किया गया वह वायदा जिसमें उन्होंने किसानों के कर्ज माफ करने की बात की थी। प्रधानमंत्री द्वारा किया गया इस तरह का वायदा किसी एक प्रदेश के किसानों तक सीमित नहीं हो सकता, इसलिए देश के अन्य प्रदेशों के किसानों को भी लगा था कि उत्तर प्रदेश में जीत हासिल करने के बाद प्रधानमंत्री जो घोषणा करेंगे, इससे उनको भी फायदा होगा। लेकिन प्रधानमंत्री ने कर्जमाफी की कोई घोषणा ही नहीं की और वह काम उत्तर प्रदेश सरकार पर छोड़ दिया। उत्तर प्रदेश सरकार ने अपने संसाधनों के बल पर प्रदेश के किसानों के 1 लाख तक के कर्ज माफ करने की घोषणा कर दी। उस घोषणा के अनुसार प्रदेश सरकार पर 36 हजार करोड़ रुपये से भी ज्यादा का भार पड़ेगा। उतनी राशि सरकार कहां से जुटाएगी, अभी तक सरकार नहीं बता पाई है।

पर उत्तर प्रदेश की घोषणा के बाद मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र के किसान भी उसी तर्ज पर कर्जमाफी की मांग कर रहे हैं। तमिलनाडु के किसान भी पिछले महीने तक उस मांग के लिए दिल्ली में आंदोलनरत थे और तरह तरह के तरीकों को आजमाकर वे अपने आंदोलन की ओर लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे थे। मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु के साथ साथ पंजाब के किसान भी आंदोलन कर रहे हैं और इसकी सुगबुगाहट देश भर में हो रही है। उत्तर प्रदेश में भी किसानों क बीच असंतोष का माहौल बना हुआ है, क्योकि एक तो सरकार ने चुनाव पूर्व वायदों पर पूरी तरह से अमल नहीं किया है और दूसरी ओर जो घोषणा की गई है, उसके अमल पर भी अनिश्चय के बादल मंडरा रहे हैं। इसका कारण यह है कि सरकार 36 हजार करोड़ रुपये की राशि कहां से लाएगी, इसके बारे में साफ साफ कुछ भी नहीं कहा जा रहा है। पहले कहा जा रहा था कि केन्द्र से कर्ज लेकर किसानों के कर्ज माफ किए जाएंगे। लेकिन केन्द्र इस तरह का कर्ज जारी करेगा, तो अन्य राज्य भी उससे उसी तरह के कर्ज की मांग करने लगेंगे और वहां के किसान भी उसी तरह की सहायता की उम्मीद केन्द्र से केरेंगे।

पिछले साल नवंबर महीने में की गई नोटबंदी के कारण भी अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है और कृषि उत्पादों के सप्लाई चेन पर इसका गंभीर असर पड़ा है। उसके कारण किसानों की बदहाली हुई है। किसानों के इस आंदोलन के पीछे एक कारण निःसंदेह नोटबंदी भी है, जिसने देश में भारी आर्थिक तबाही मचाई थी और केन्द्र सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक अबतक यह नहीं बता पाया है कि उस नोटबंदी से देश को क्या फायदा हुआ या आगे क्या फायदा होने वाला है।

सच कहा जाय, तो मोदी सरकार बारूद के एक ढेर पर बैठी है। किसानों की बदहाली बढ़ती जा रही है और उनका गुस्सा उबलता जा रहा है। इसलिए शक्ति का प्रयोग करने के बदले मोदी सरकार को किसानों की हालत पर ध्यान देना चाहिए और अपनी आर्थिक नीतियों को फोकस कृषि अर्थव्यवस्था पर करना चाहिए। (संवाद)