आपातकाल लगाने की जरूरत 12 जून, 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक फैसले के कारण आन पड़ी थी। अदालत ने सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग की समाजवादी नेता और रायबरेली में उनके प्रतिद्वंदी राजनारायण की शिकायत को सही पाया था। अदालत ने उनका चुनाव निरस्त कर दिया था। उन्हें प्रधानमंत्री पद छोड़ने का ओदश दिया गया था और इसके लिए 20 दिन का समय था ताकि कांग्रेस संसदीय दल अपना नया नेता चुन सके।

क्या आपातकाल सिर्फ इस घटना की वजह से लग गया? अगर आपातकाल लगाने के पहले के घटनाक्रम पर गौर करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला तो महज एक तात्कालिक कारण था। इंदिरा गांधी जिस तरह का शासन चला रही थीं उसका नतीजा आपातकाल के रूप में आना तय था। सत्ता उनके हाथों में इस तरह सिमट गई थी कि वह एक तानाशाह बन चुकी थीं। हाईकोर्ट के फैसले के साथ-साथ एक और घटना का इस्तेमाल श्रीमती गंाधी ने आपातकाल को उचित ठहराने के लिए किया। यह घटना थी देश भर में सत्याग्रह की ‘जयप्रकाश नारायण की घोषणा। सन 1974 का जेपी आंदोलन अपने चरम पर था।

उन दिनों की याद करते हुए मानवाधिकार कार्यकर्ता पंचोली बताते हें कि आज की तरह ही उस समय भी ‘देशभक्ति’ बनाम ‘देशद्रोही’ की बहस चली हुई थी। इंदिरा गांधी के समर्थक उनका विरोध करने वालों को सीआईए का एजेंट कहा करते थे जिस तरह आज प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का विरोध करने वालों को राष्ट्रद्रोही और पाकिस्तान का एजेंट कहा जाता ह।

एक व्यक्ति की सत्ता स्थापित करने की शुरूआत किस तरह होती है यह 1975 के आपातकाल के पहले श्रीमती गांधी के व्यक्ति-पूजन को देखकर लगाया जा सकता है। 1971 का युद्ध जीतने के बाद उन्हें ‘महानायिका’ बना दिया गया था। इस सत्ता को बनाए रखने के लिए जरूरी था कि कानून और संविधान को बदला जाए। आपातकाल लगते ही पे्रेस पर पाबंदी लगा दी गई। मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे।

आापातकाल लगते ही देश के सभी बड़े नेताओं जिसमें जेपी, मोराजी देसाई, चरण सिंह, जेबी कृपलानी, अटलबिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, मधुलिमये तथा मधु दंडवते शामिल थे, को गिरफ्तार कर लिया गया। आपातकाल का विरोध करने के लिए जाने-माने पत्रकार कुलदीप नैयर को जेल में डाल दिया गया था। करीब एक लाख लोग बिना सुनवाई के जेल में थे। आपातकाल के दौरान ही अक्टूबर 1975 में जेल से बाहर निकले कुछ नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने जेपी की सलाह से पीपुल्स यूनियन आफ सिविल लिबर्टीज एंड डेमोक्रेटिक राइट्स (पीयूसीएलडीआर)नाम से एक संगठन बनाया था जिसके सचिव कृष्णकांत थे। कृष्णकांत आगे चलकर देश के उपराष्ट्रपति बने । इसके अध्यक्ष जस्टिस तारकुंडे थे।

सन 1967 से आरएसएस और भारतीय जनसंघ अपनी अश्पृश्यता से मुक्ति पाने लगा था। आपातकाल ने उन्हें इससे स्थाई मुक्ति दिला दी। आपातकाल लगा तो भारतीय जनसंघ और आरएसएस के नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया और कई नेता भूमिगत हो गए जिनमें सुब्रमणियम स्वामी और वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी शामिल हैं। लेकिन जब आपातकाल लंबा होता दिखा तो आरएसएस और जनसंघ के नेता जेल से बाहर आने के लिए छटपटाने लगे। यहांतक कि आरएसस प्रमुख बाला साहेब देवरस ने कई पत्र लिख कर इंदिरा गांधी के कार्यक्रमों का समर्थन किया। दूसरी ओर, समाजवादियों ने जमकर लड़ाई लड़ी। मंुबई के मजदूर नेता और समाजवादी पार्टी के जार्ज फर्नाडीस आपातकाल के नायक के रूप में उभरे।

आपातकाल के बाद हुए चुनावों में सभी पार्टियों ने जनता पार्टी के बैनर पर चुनाव लड़ा। हालांकि जनता पार्टी के गठन के पहले ही जनता उम्मीदवारों का सिलसिला शुरू हो गया था और आपातकाल के पहले ही 1974 में मध्यप्रदेश के संसदीय उपचुनाव में शरद यादव जनता उम्मीदवार के रूप में जीत कर आ गए थे। आपातकाल के विरोध में उन्होंने और मधुलिमए ने संसद से इस्तीफा दे दिया था। चैहतर आंदोलन ने जिन युवा नेताओं को राजनीति में जगह बनाने का मौका दिया उसमें बिहार के लालू प्रसाद यादव, नीतिश कुमार, सुशील मोदी और शिवानंद तिवारी शामिल हैं। इसी तरह सुब्रमणियम स्वामी भी तेजी से राजनीति में उभरे। सन 1977 के चुनाव में रामविलास पासवान ने रिकार्ड मतों से जीते और राष्ट्रीय राजनीति में आ गए। इसी तरह जार्ज ने जेल से चुनाव लड़ा और भारी मतों से जीत कर आए।

आपातकाल का इतिहास लिखते समय अक्सर चुनाव से बाहर सक्रिय वामपंथी पार्टियों जिसमें नक्सलवादी आंदोलन से निकले संगठन शामिल है, ने आपातकाल के विरोध में काफी जमकर संघर्ष किया और प्रतिरोध के कई उदाहरण पेश किए। इसमें विनोद मिश्रा के नेतृत्व वाली सीपीआई एमल लिबरेशन भी शामिल है। जेपी ने छात्र युवा संघर्ष वाहिनी नाम का संगठन उन लोगोें को लेकर बनाया था जो किसी राजनीतिक दल मं शामिल नहीं थे। इस संगठन ने बोधगया का भूमि आंदोलन और मछुआरों का गंगा मुक्ति आंदोलन जैसे बुनियादी परिवर्तन के आंदोलन चलाए। समाजवादी नेता किशन पटनायक ने चुनावी राजनीति से बाहर रह कर जनांदोलनों को वैचारिक दिशा देने का काम किया।

जनता दल के हाथोें पराजय के बाद इंदिरा गांधी को ज्यादा समय इंतजार नहीं करना पड़ा। वह 1980 में दोबारा सत्ता मंे आ गईं। लेकिन उन्होंने देश के लोकतंत्र को मजबूत बनाने और 42 वें संशोधन के जरिए लाए गए लोकतंत्र विरोधी प्रावधानोें को खत्म करने के जनता पार्टी के फैसलों को वापस बदलने की कोशिश नहीं की। उन्हें पता चल गया था कि देश इसे सहन नहीं करेगा। क्या यह सबक आज सत्ता में बैठे लोग-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी याद रखेगीे? उन पर लोंकतंात्रिक अधिकारों को प्रत्यक्ष -अप्रत्यक्ष तरीके से छीनने का आरोप लग रहा ळें (संवाद)