दो साल पहले आपातकाल के चार दशक पूरे होने के मौके पर उस पूरे कालखंड को शिद्दत से याद करते हुए भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता और देश के पूर्व उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने देश में फिर से आपातकाल जैसे हालात पैदा होने का अंदेशा जताया था। हालांकि आडवाणी इससे पहले भी कई मौकों पर आपातकाल को लेकर अपने विचार व्यक्त करते रहे थे, मगर यह पहला मौका था जब उनके विचारों से आपातकाल की अपराधी कांग्रेस नहीं, बल्कि उनकी अपनी पार्टी भाजपा अपने को हैरान-परेशान महसूस करते हुए बगले झांक रही थी। वह भाजपा जो कि आपातकाल को याद करने और उसकी याद दिलाने में हमेशा आगे रही है।
आडवाणी ने एक अंग्रेजी अखबार को दिए साक्षात्कार में देश को आगाह किया था कि लोकतंत्र को कुचलने में सक्षम ताकतें आज पहले से अधिक ताकतवर है और पूरे विश्वास के साथ यह नहीं कहा जा सकता कि आपातकाल जैसी घटना फिर दोहराई नहीं जा सकतीं। बकौल आडवाणी, ‘भारत का राजनीतिक तंत्र अभी भी आपातकाल की घटना के मायने पूरी तरह से समझ नहीं सका है और मैं इस बात की संभावना से इनकार नहीं करता कि भविष्य में भी इसी तरह से आपातकालीन परिस्थितियां पैदा कर नागरिक अधिकारों का हनन किया जा सकता है। आज मीडिया पहले से अधिक सतर्क है, लेकिन क्या वह लोकतंत्र के प्रति प्र्रतिबद्ध भी है? कहा नहीं जा सकता। सिविल सोसायटी ने भी जो उम्मीदें जगाई थीं, उन्हें वह पूरी नहीं कर सकी हैं। लोकतंत्र के सुचारु संचालन में जिन संस्थाओं की भूमिका होती है, आज भारत में उनमें से केवल न्यायपालिका को ही अन्य संस्थाओं से अधिक जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।’
आडवाणी का यह बयान यद्यपि दो वर्ष पुराना है लेकिन इसकी प्रासंगिकता दो वर्ष पहले से कहीं ज्यादा आज महसूस रही है। हालांकि आडवाणी ने अपने इस पूरे वक्तव्य में आपातकाल के खतरे के संदर्भ में किसी पार्टी अथवा व्यक्ति विशेष का नाम नहीं लिया था मगर, चूंकि इस समय केंद्र के साथ ही देश के अधिकांश प्रमुख राज्यों में भाजपा या उसके गठबंधन की सरकारें हैं और नरेंद्र मोदी सत्ता के केंद्र में हैं, लिहाजा जाहिर है कि आडवाणी की टिप्पणी का परोक्ष इशारा मोदी की ओर ही था।
आधुनिक भारत के राजनीतिक विकास के सफर में लंबी और सक्रिय भूमिका निभा चुके एक तजुर्बेकार राजनेता के तौर पर आडवाणी की इस आशंका को अगर हम अपनी राजनीतिक और संवैधानिक संस्थाओं के मौजूदा स्वरूप और संचालन संबंधी व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो हम पाते हैं कि आज देश आपातकाल से भी कहीं ज्यादा बुरे दौर से गुजर रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी ने तो संवैधानिक प्रावधानों का सहारा लेकर देश पर आपातकाल थोपा था, लेकिन आज तो औपचारिक तौर आपातकाल लागू किए बगैर ही वह सब कुछ बल्कि उससे भी कहीं ज्यादा हो रहा है जो आपातकाल के दौरान हुआ था। फर्क सिर्फ इतना है कि आपातकाल के दौरान सब कुछ अनुशासन के नाम पर हुआ था और आज जो कुछ हो रहा है वह विकास और राष्ट्रवाद के नाम पर।
जहां तक राजनीतिक दलों का सवाल है, देश में इस समय सही मायनों में दो ही अखिल भारतीय पार्टियां हैं- कांग्रेस और भाजपा। कांग्रेस के खाते में तो आपातकाल लागू करने का पाप पहले से ही दर्ज है, जिसका उसे आज भी कोई मलाल नहीं है। यही नहीं, उसकी अंदरुनी राजनीति में आज भी लोकतंत्र के प्रति कोई आग्रह दिखाई नहीं देता। पूरी पार्टी आज भी एक ही परिवार की परिक्रमा करती नजर आती है। आजादी के बाद लंबे समय तक देश पर एकछत्र राज करने वाली इस पार्टी की आज हालत यह है कि उसके पास लोकसभा में आधिकारिक विपक्षी दल के दर्जे की शर्त पूरी करने जितने भी सदस्य नहीं हैं। ज्यादातर राज्यों में भी वह न सिर्फ सत्ता से बेदखल हो चुकी है बल्कि मुख्य विपक्षी दल की हैसियत भी खो चुकी है। दूसरी तरफ केंद्र सहित देश के लगभग आधे राज्यों में सत्तारू ढ भाजपा के भीतर भी हाल के वर्षों मे ऐसी प्रवृत्तियां मजबूत हुई हैं, जिनका लोकतांत्रिक मूल्यों और कसौटियों से कोई सरोकार नहीं है। सरकार और पार्टी में सारी शक्तियां एक समूह के भी नहीं बल्कि एक ही व्यक्ति के इर्द गिर्द सिमटी हुई हैं। आपातकाल के दौर में उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने चाटुकारिता और राजनीतिक बेहयाई की सारी सीमाएं लांघते हुए ‘इंदिरा इज इंडिया-इंडिया इज इंदिरा’ का नारा पेश किया था। आज भाजपा में तो वैंकेया नायडू, रविशंकर प्रसाद, शिवराज सिंह चैहान आदि से लेकर नीचे के स्तर तक ऐसे कई नेता हैं जो नरेंद्र मोदी को जब-तब दैवीय शक्ति का अवतार बताने में कोई संकोच नहीं करते। मोदी देश-विदेश में जहां भी जाते हैं, उनके उत्साही समर्थकों का प्रायोजित समूह किसी रॉक स्टार की तर्ज पर मोदी-मोदी का शोर मचाता है और मोदी इस पर मुदित नजर आते हैं।
यह स्थिति सिर्फ राजनीतिक दलों की ही नहीं है। आज देश में लोकतंत्र का पहरू ए कहे जा सकने वाले ऐसे संस्थान भी नजर नहीं आते, जिनकी लोकतांत्रिक मूल्यों को लेकर प्रतिबद्धता संदेह से परे हो। आपातकाल के दौरान जिस तरह प्रतिबद्ध न्यायपालिका की वकालत की जा रही थी, आज वैसी ही आवाजें सत्तारूढ दल से नहीं बल्कि न्यायपालिका की ओर से भी सुनाई दे रही है। यही नही, कई महत्वपूर्ण मामलों में तो अदालतों के फैसले भी सरकार की मंशा के मुताबिक ही रहे हैं। सूचना के अधिकार को निष्प्रभावी बनाने की कोशिशें जोरों पर जारी हैं। सूचना आयुक्त और मुख्य सतर्कता आयुक्त जैसे पद लंबे समय से खाली पडे हैं। लोकपाल कानून बने तीन साल से अधिक हो चुके हैं लेकिन सरकार ने आज तक लोकपाल नियुक्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई। हाल ही में कुछ विधानसभाओं और स्थानीय निकाय चुनावों के दौरान इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में गडबडियों की गंभीर शिकायतें जिस तरह सामने आई हैं उससे हमारे चुनाव आयोग और हमारी चुनाव प्रणाली की साख पर सवालिया निशान लगे हैं, जो कि हमारे लोकतंत्र के भविष्य के लिए अशुभ संकेत है। नौकरशाही की जनता और संविधान के प्रति कोई जवाबदेही नहीं रह गई है। कुछ अपवादों को छोड दें तो समूची नौकरशाही सत्ताधारी दल की मशीनरी की तरह काम करती दिखाई पडती है। चुनाव में मिले जनादेश को दलबदल और राज्यपालों की मदद से कैसे तोडा-मरोडा जा रहा है, उसकी मिसाल पिछले दिनों हम गोवा और मणिपुर में देख चुके हैं।
जिस मीडिया को हमारे यहां लोकतंत्र के चैथे स्तंभ की मान्यता दी गई है, उसकी स्थिति भी बेहद चिंताजनक है। आज की पत्रकारिता आपातकाल के बाद जैसी नहीं रह गई है। इसकी अहम वजहें हैं- बडे कॉरपोरेट घरानों का मीडिया क्षेत्र में प्रवेश और मीडिया समूहों में ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की होड। इस मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति ने ही मीडिया संस्थानों को लगभग जनविरोधी और सरकार का पिछलग्गू बना दिया है। सरकार की ओर से मीडिया को दो तरह से साधा जा रहा है- उसके मुंह में विज्ञापन ठुंस कर या फिर सरकारी एजेंसियों के जरिये उसकी गर्दन मरोडने का डर दिखाकर , जैसा कि हाल में हमने एनडीटीवी के मामले में देखा है। एनडीटीवी के पीछे सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय को लगाकर सरकार ने एक तरह से दूसरे मीडिया घरानों को भी खबरदार रहने की चेतावनी दी है। इस सबके चलते सरकारी और गैर सरकारी मीडिया का भेद लगभग खत्म सा हो गया है। व्यावसायिक वजहों से से तो मीडिया की आक्रामकता और निष्पक्षता बाधित हुई ही है, पेशागत नैतिक और लोकतांत्रिक मूल्यों और नागरिक अधिकारों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता का भी कमोबेश लोप हो चुका है।
पिछले तीन वर्षों के दौरान जो एक नई और खतरनाक प्रवृत्ति विकसित हुई वह है सरकार और सत्तारूढ दल और मीडिया द्वारा सेना का अत्यधिक महिमामंडन। यह सही है कि हमारे सैन्यबलों को अक्सर तरह-तरह की मुश्किलभरी चुनौतियों से जूझना पडता है, इस नाते उनका सम्मान होना चाहिए लेकिन उनको किसी भी तरह के सवालों से परे मान लेना तो एक तरह से सैन्यवादी राष्ट्रवाद की दिशा में कदम बढाने जैसा है। (संवाद)
फिर आपातकाल की ओरः मीडिया की स्थिति बेहद चिंताजनक
अनिल जैन - 2017-06-23 03:49
आपातकाल यानी भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह और शर्मनाक अध्याय...एक दुरूस्वप्न...एक मनस और त्रासद कालखंड! पूरे बयालीस बरस हो गए जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अपनी सत्ता की सलामती के लिए आपातकाल लागू कर समूचे देश को कैदखाने में तब्दील कर दिया था। विपक्षी दलों के तमाम नेता और कार्यकर्ता जेलों में ठूंस दिए गए थे। सेंसरशिप लागू कर अखबारों की आजादी का गला घोंट दिया गया था। संसद, न्यायपालिका, कार्यपालिका आदि सभी संवैधानिक संस्थाएं इंदिरा गांधी के रसोईघर में तब्दील हो चुकी थी, जिसमें वही पकता था जो वे और उनके बेटे संजय गांधी चाहते थे। सरकार के मंत्रियों समेत सत्तारुढ दल के तमाम नेताओं की हैसियत मां-बेटे के अर्दलियों से ज्यादा नहीं रह गई थी। आखिरकार पूरे 21 महीने बाद जब चुनाव हुए तो जनता ने अपने मताधिकार के जरिए इस तानाशाही के खिलाफ शांतिपूर्ण ढंग से ऐतिहासिक बगावत की और देश को आपातकाल के अभिशाप से मुक्ति मिली।