असल में यह गांधीवाद और नेहरूवाद के विरोध की खुली घोषणा है। आश्चर्य की बात यह है कि राज्यों की सरकार की भागीदारी से बने जीएसटी कौंसिल को टैक्स के बारे में फैसला करने के अधिकार को संघवाद का पर्याय माना जा रहा है और इसे सहकारी संघवाद कहा जा रहा है। एक केंद्रीकृत तरीके से लिए जाने वाला फैसला किस तरह विकेंद्रीकरण और संघीय ढांचे से लिए जाने वाले फैसले की जगह ले सकता है? संघवाद का अर्थ है कि नीचे के स्तर पर फैसले लेने की स्वतंत्रता हो और उसे लागू करने का अधिकार उनके पास हो।
महात्मा गांधी ने भारत को जिस तरह का मुल्क बनाने का सपना देखा था उसकी जगह एक नया केंद्रीकृत और कारपोरेट तथा नौकरशाही के बोलबाला वाले मुल्क बनाने की ओर एक बड़ा कदम मोदी ने बढा दिया है। महात्मा गांधी ने एक विकंेद्रित और स्वायत्त क्षेत्रों से बने मुल्क की कल्पना की थी। ऐसी ही व्यवस्था का सपना देश के तमाम नेताओं ने देखा था। नेहरू आद्योगिक प्रगति के पक्ष में थे, लेकिन इसका असर राष्ट्र के संघीय चरित्र पर न हो इसके के लिए पूरी तरह सचेत थे। पचायती राज और टैक्स वसूलने के राज्यों और स्थानीय संस्थाओं के अधिकार को सुरक्षित रखनेे के लिए उन्होंने कई कदम उठाए और संविधान की इस भावना को लागू करने में उन्होंने कोई बेईमानी नहीं की। उन्हें मालूम था कि लोकतंत्र और संघीय व्यवस्था एक दूसरे के पूरक हैं।
देश को संघीय स्वरूप प्रदान करने को लेकर महात्मा गांधी से लेकर डा बाबा साहेब अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू से लेकर जयप्रकाश नारायण और डा राममनोहर लोहिया के बीच एक व्यापक सहमति थी। आजादी के बाद नेहरू जैसे लोकप्रिय नेता के लिए देश की हर आर्थिक गतिविधि, उत्पादन और सेवा को एक केंद्रीय कानून और व्यवस्था के तहत लाना एकदम आसान था और इस तरह की वकालत उस समय की भी गई। लेकिन उन्हें और उनके समकालीनों को इसे लेकर कोई दुविधा नहीं थी कि यह राज्यों और स्थानीय सरकारों की स्वायत्तता के खिलाफ होगा।
इस अवसर पर दिया गया भाषण भी इस विजय को साफ-साफ प्रदर्शित करता है। यह अनायास नहीं है कि मोदी ने केंद्रीकरण के औपनिवेशिक आधारों -रेलवे और सिविल सर्विस-को उदाहरण के रूप में चुना और कहा कि इन चीजों ने देश को एक किया। इसके साथ ही उन्होंने देशी रजवाड़ों पर कार्रवाई के जरिए राष्ट्र को एक बनानें के सरदार पटेल के कार्य तथा एक राष्ट्र, एक टैक्स के जरिए ‘श्रेष्ठ भारत, एक भारत’ की आरएसएस की परिकल्पना को रखा। वास्तव में, यह कथा आजादी के अंादोलन के नकार पर आधारित है। देश के रजवाड़ों को इकðा करने का संवैधानिक काम भले ही सरदार पटेल ने पूरा किया, लेकिन वहां की प्रजा परिषदों ने आंदोलनों के जरिए उन्हें भारत में रहने के लिए मजबूर किया। हैदराबाद के मुक्ति संग्राम या जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला के नेतृत्व में हुए आंदोलन को नजरअंदाज करना इतिहास के साथ अन्याय होगा।
जीएसटी लागू करने में आरएसएस और देशी-विदेशी कारपोरेट किस तरह वैचारिक रूप से साथ हो गए, यह मोदी के भाषण में साफ दिखाई देता है। गीता का उल्लेख, तिलक के बहाने वेद की चर्चा और चाणक्य के जरिए मौर्य साम्राज्य को सामने लाना उस वैचारिक चिंतन का समर्थन है जो स्वायत्तता के खिलाफ है और सैन्यशक्ति के सहारे चलने वाले केंद्रीकृत शासन के पक्ष में। इसमें राजनीतिक ही नहंी, बल्कि आर्थिक विविधता के लिए भी जगह नहीं है। जीएसटी औपचारिक यानि संगठित क्षेत्र को फायदा पहुंचाएगा और इस क्षेत्र में रोजगार पैदा करेगा। जाहिर है कि यह अनौपचारिक क्षेत्र यानि असंगठित क्षेत्र-हाथ और छोटी मशीन से चलने वाले उद्योगों को नुकसान पहुंचाएगा और उनकी नौकरी छीनेगा। नोटबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र पर यह एक और जानलेवा प्रहार है। इसका अंदाजा कपड़ा व्यपारियों की देशव्यापी हड़ताल से लगाया जा सकता है।
लेकिन विप़क्ष का रवैया भी रश्म-अदायगी का ही दिखाई दे रहा है। कांगं्रेस ने संेट्रल हाल के आयेाजन का बहिष्कार तो किया, लेकिन यह ढोल पीटती रही कि किस तरह उसने जीएसटी को आकार देने और इस स्थिति तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। कांगें्रस के उपाध्याक्ष राहुल गांधी का ट्विट भी जीएसटी के विरोध में नहीं है। उन्होंने सिर्फ ‘‘तमाशे’’ की आलोचना की हैै। कंागे्रस ने कारपोरेट समर्थक आर्थिक नीतियों को लागू किया है और अभी भी उनके ही पक्ष में है। इस नीति का त्यागे बिना वह अपनी राजनीतिक हालत सुधार नहीं सकती है और देश का विकल्प नहीं बन सकती है।
सीपीएम और सीपीआई मंे पार्टी के भीतर मतभेद साफ दिखाई देते हैं। सीताराम येचुरी और डी राजा जीएसटी पर लगातार प्रहार करते रहे, लेकिन केरल की सरकार ने इसका समर्थन किया। पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री असीम दासगुप्ता तो जश्न में शामिल भी हुए। यह जरूर है कि जरूरी सामानों पर टैक्स लगाने से रोकने और राज्यों के संभव अधिकार बनाए रखने मे केरल के वित्त मंत्री ने थामस इजाक ने भरपूर मदद की।
सबसे बुरी वैचारिेक हालत समाजवादी पार्टी और जेडीयु की रही जो समाजवादी विरासत पर अपना दावा पेश करती हैं और जिनके नेता जयप्रकाश नारायण और डा लोहिया थे। जेपी के ग्राम स्वराज और डा लोहिया के चैख्ंाभा राज की परिकल्पना में गांवों तथा जिलों को कर लगाने के पूरे अधिकार हैं। सिर्फ नीतीश कुमार ही बता सकते हैं कि नोटबंदी और जीएसटी का समर्थन उन्होंने किस समाजवाद के तहत किया है।
लेकिन एक राष्ट्र की यह समझ रेल, नौकरशाही और पुलिस के जरिए भारत के एक होने की ब्रिटिश अवधारणा पर आधारित है। चाणक्य यानि कौटिल्य के अर्थशास़्त्र पर आधारित मौर्य साम्राज्य के पतन में केंद्रीयकरण की प्रमुख भूमिका थी, ऐसा रोमिला थापर जैसे इतिहासकार भी बताते हैं। (संवाद)
जीएसटी का जश्नः संघीय लोकतंत्र पर प्रहार
अनिल सिन्हा - 2017-07-03 12:55
जीएसटी के जश्न के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सेंट्रल हाल से बेहतर जगह नहीं दिखी। जाहिर है मोदी ने यह जगह यूं ही नहीं चुनी। योजना आयोग को खत्म करने के बाद भारत के संघीय लोकतंत्र पर यह दूसरा बड़ा प्रहार है और मोदी इस अवसर को जश्न में तब्दील करना चाहते थे।