शुक्रवार, 16 मार्च, 2007
छत्तीसगढ़ में हिंसा - प्रतिहिंसा
जनता सत्ता पक्ष के साथ रहे या नक्सलियों के साथ
ज्ञान पाठक
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में बीजापुर जिले के रानीपोटली गांव स्थित सशस्त्र बल के एक शिविर पर माओवादियों के हमले में कल 54 लोगों की जानें गयीं जिनमें छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल के 15 जवान भी शामिल थे। शेष मृतक स्थानीय आदिवासी युवा थे जिन्हें विशेष पुलिस अधिकारी का ओहदा देकर नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए सल्वा जुडुम संगठन में शामिल किया गया था। खबरों में बताया गया कि शिविर के सिर्फ 11 लोग इसमें बच पाये जबकि नक्सलियों में हताहतों के बारे में कोई सूचना नहीं है। यह भी खबर आयी कि गांव के लोग उनके बचाव में सामने नहीं आये।
छत्तीसगढ़ में ऐसी घटना पहली बार नहीं हुई है। राज्य के लोग नक्सलियों और पुलिस दोनों के भीषण आतंक के साये में एक दशक से ज्यादा समय से जीने को मजबूर हैं। उसके पहले सिर्फ दमनकारी सत्ता पक्ष का आतंक था और जब से उसके विरोध में अतिवामपंथियों ने हथियार उठा लिया है तब से जनता दोनों पक्ष से प्रताड़ित है। वह नक्सलियों का विरोध करे तो मारा जाये, और पुलिस का विरोध करे तो मारा जाये। वह नक्सलियों का समर्थन करे तो पुलिस के हाथों प्रताड़ित हो या मारा जाये और यदि पुलिस का समर्थन करे तो नक्सलियों के हाथों प्रताड़ित हो या मारा जाये। जनता की सुरक्षा कहीं नहीं है। न तो सत्ता पक्ष अपना रवैया बदलने को तैयार है और न ही नक्सली।
आखिर जनता किधर जाये? बीजापुर जिले में ही सितम्बर 2005 को 20 पुलिसकर्मी मारे गये थे। फरवरी 2006 में माओ विरोधी रैली में भाग लेकर आ रहे चार ट्रकों पर हमरे में 50 लोग मारे गये थे। मार्च 2006 में फिर 13 लोग सुरंगी बारूद फटने से 13 लोग मारे गये थे। जुलाई 2006 में 30 लोग मारे गये थे जिसमें चार नक्सली भी थे, जैसा कि बताया गया।
ये थे नक्सलियों के आक्रमण। पर पुलिस की कार्रवाइयों के बारे में इतनी विस्तार से खबर नहीं है और उसकी कार्रवाइयों पर सवालिया निशान भी उठाये जाते रहे हैं। मानवाधिकार आयोग की फाइलों में ऐसे अनेक आरोप मिल जायेंगे जिसमें किसी न किसी आम नागरिक को पुलिस ने नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ में मार दिया हो। यह बात सत्ता पक्ष को साफ-साफ स्वीकार करना ही होगा कि पुलिस पर भी जनता का भरोसा नहीं है। जनता की बात, विशेषकर निर्दोष और अच्छी जनता की बातों की तुलना में पुलिस सत्ता या सत्ता पक्ष के लोगों का पक्ष लेती है। इसे थोड़ा सुधार कर कहा जाये तो यह कहना गलत नहीं होगा कि पुलिस सत्ता या सत्ता पक्ष की दमनकारी प्रवृत्ति और हरकतों में उनकी कठपुतली या हथियार है। सत्ता पक्ष पुलिस का इस्तेमाल जनता के दमन के लिए करती है क्योंकि सत्ता में निष्पक्ष, निष्कपट, नि:स्वार्थ और जनपक्षधर लोगों की भारी कमी हो गयी है।
इस बात को समझने के अलावा कोई विकल्प नहीं है कि संघर्ष की जड़ यहीं है। हमारे बहुत सारे भाइयों ने न्याय खुद अपने हाथ में हथियार उठाकर हासिल करने का यदि फैसला कर लिया है, तो उन्हें आतंकवादियों की श्रेणी में रखकर कार्रवाई करने और नीतियां बनाने का कोई लाभ नहीं होने वाला। आतंकवादियों की मंशा अलग है और नक्सलियों की अलग। नक्सली सामान्य अपराधकर्मी भी नहीं हैं, यह अलग बात है कि अनेक अपराधकर्मी स्वयं को नक्सली बताते हैं। अपराधकर्मी तो एक बड़ी संख्या में सत्ता में और सत्ता के साथ भी हैं और नक्सलियों के बीच और उनके साथ भी।
हिंसा और प्रतिहिंसा का कोई अंत नहीं होता सिवा इसके कि अंतत: सभी को शांत होना है। सत्ता या सत्ता पक्षधर लोग भी शांति चाहते हैं, पर अधिकांशत: जनविरोधी कार्य कर रहे होते हैं, जनविरोधी नीतियों पर चल रहे होते हैं या जनविरोधी नीतियों का समर्थन कर रहे होते हैं। उनके मुकाबले, अर्थात् जनविरोधी ताकतों से लड़ रहे नक्सली भी शांति चाहते हैं इस शर्त के साथ कि कम से कम सत्ता या सत्ता के लोग जनविरोधी नीतियों और कार्यों का त्याग करें और तब वे अपने हथियार त्यागेंगे।
यह सच है कि जिन्हें हम आम लोग कहते हैं वे भारत जैसे लोकतंत्र में अपने भाग्य का फैसला खुद नहीं कर सकते। वे अभिशप्त हैं कि उनके प्रतिनिधियों और प्रतिनिधियों के प्रतिनिधियों के चम्पुओं से शासित हों। आम आदमी को इस लोकतंत्र में चुनाव लड़ने लायक छोड़ा नहीं गया है तथा सत्ता सिद्धांत रुप में जनता का है पर वास्तविकता में एक खास वर्ग के लोगों का।
सन 1994 में जब पहली बार जनता के स्तर पर लोकतंत्र पंचायती राज के माध्यम से संवैधानिक रुप से लागू किया गया तो इस सत्तारुढ़ खास तबके को काफी परेशानी हुई क्योंकि ग्राम सभा और वार्ड सभाओं में 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग सदस्य होते हैं और वे उसी तरह से कार्यक्रमों और नीतियों की समाजिक समीक्षा करने की शक्ति रखते हैं जिस तरह की शक्ति विधान सभाओं में विधायकों और संसद में सांसदों को है। यही कारण है कि पूरे देश में अब तक ऐसे लोकतंत्र को लागू करने के मार्ग में इस खास तबके को लोगों ने अड़ंगे पर अड़ंगे लगाये और विभाग, कर्मचारी और धन तीनों से तृणमूल स्तर के लोकतंत्र को वंचित रखा गया जो उन्हें 1994 में ही दे दिये जाने थे।
यह उसी प्रकार की बात है मानो यह खास वर्ग कहता हो कि जनता, आप हमें सिर्फ वोट दीजिये और अपने भाग्य का फैसला खुद मत करिये क्योंकि आप नहीं जानते कि आपका भलाई किसमें है। हम सोचेंगे कि आपका भलाई कैसे होगा और किन नीतियों से होगा।
यह एक खास वर्ग की दादागिरी है। जनता को असली लोकतंत्र चाहिए जिसमें वह अपने भाग्य का फैसला खुद करे, न कि उनके प्रतिनिधि, प्रतिनिधियों के प्रतिनिधि, और उनके चम्पू या अनुचर आदि उनपर मनमर्जी से शासन करें।
डेढ़ दशक से ज्यादा समय हो गये जब से जनता का भरोसा उनके प्रतिनिधियों से ही उठ गया है। यही कारण है कि भारत में उसने किसी पार्टी को अपना पूरा बहुमत नहीं दिया। जनता दुखी है कि उनके बीच से वह किसी को अपना प्रतिनिधि भी नहीं चुन सकती क्योंकि उसे एक खास वर्ग ने चुनाव लड़ने लायक भी नहीं छोड़ा है। उसे बहुधा अपने ही दमनकारी वर्ग में से किसी एक को अपना प्रतिनिधि चुनने की व्यावहारिक छूट है जबकि सिद्धांत में वह अपने बीच के आदमी को प्रतिनिधि चुन सकता है।
इस तरह से यदि देखा जाये तो नक्सलियों का संघर्ष लोकतंत्र लाने का संघर्ष है। वे आधिकारिक रुप से यह कहते भी हैं और इसी लिए ये अतिवामपंथी अपने अन्य साथी वामपंथियों के विरोधी हैं। वामपंथी वर्तमान ढांचे में ही चुनाव लड़कर सत्ता में आकर लोकतंत्र लाना चाहते हैं और अतिवामपंथियों को वर्तमान चुनावी प्रावधानों पर ही भरोसा नहीं है क्योंकि इन प्रावधानों की नियमावली और चुनाव का स्वरुप ऐसा बना दिया गया है कि सर्वहारा वर्ग का व्यक्ति कभी भी अपने ही वर्ग का प्रतिनिधित्व विधान सभाओं या संसद में निर्वाचित होकर नहीं कर सकता। इस व्यावहारिक पक्ष से कोई इनकार नहीं कर सकता, बशर्ते वह खास वर्ग का या उसका पक्षधर न हो।
नक्सलवाद या अतिवामपंथ स्पष्टत: राजनीतिक संघर्ष है। लेकिन समस्या है कि हमारे नेता इस राजनीतिक समस्या का आर्थिक, प्रशासनिक, कानूनी, पुलिसिया और न जाने कितने तरह के समाधान ढूंढ़ने में लगे हैं। समस्या राजनीतिक है तो समाधान भी राजनीतिक ही होगा कोई दूसरा नहीं। जैसे ही आम जनता के लिए सही अर्थों में लोकतंत्र का दरवाजा खुल जायेगा, नक्सल समस्या खत्म हो जायेगी क्योंकि नक्सली भी यही चाहते हैं और सभी अच्छे लोग भी यही चाहते हैं विशेषकर वे जो अहिंसा के माध्यम से वास्तविक लोकतंत्र चाहते हैं।
अपराध और अपराधियों से निपटना तब ज्यादा आसान हो जायेगा। उसके पहले व्यर्थ ही अनेक निर्दोष लोगों की जानें जाती रहेंगी, चाहे वे किसी भी कारण से किसी भी पक्ष में रहें। ध्यान रहे, अंतिम लक्ष्य शांति, सुकून और लोकतंत्र ही है।#
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छत्तीसगढ़ में हिंसा और ...
System Administrator - 2007-10-20 06:19 UTC
छत्तीसगढ़ के बस्तर क्षेत्र में बीजापुर जिले के रानीपोटली गांव स्थित सशस्त्र बल के एक शिविर पर माओवादियों के हमले में कल 54 लोगों की जानें गयीं जिनमें छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल के 15 जवान भी शामिल थे। शेष मृतक स्थानीय आदिवासी युवा थे जिन्हें विशेष पुलिस अधिकारी का ओहदा देकर नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए सल्वा जुडुम संगठन में शामिल किया गया था।