उत्तर प्रदेश में भाजपा को हराने के लिए मायावती और अखिलेश को एक पाले में लाने की कोशिश कर रहे लालू यादव के लिए अब खुद बिहार में नीतीश के साथ एक पाले में बने रहने के लाले पड़ रहे हैं। उनके परिवार के सदस्यों, जिनमें तेजस्वी भी शामिल हैं, के खिलाफ लारा घोटाले में मुकदमा दर्ज होने के बाद जद(यू) की ओर से तेजस्वी पर इस्तीफे का दबाव पड़ रहा है और लालू यादव उस दबाव में अपने बेटे को मंत्री पद छोड़ने नहीं देना चाहते हैं। सवाल उठता है कि यदि मुख्यमंत्री नीतीश ने तेजस्वी को अपनी सरकार से बर्खास्त कर दिया, तो क्या होगा? क्या तब भी भाजपा को हराने के लिए लालू यादव नीतीश के साथ बने रहेंगे?

इसकी संभावना नहीं के बराबर है, क्योंकि अनेक राजद नेता और खुद तेजस्वी भी इस्तीफा देने से साफ इनकार कर चुके हैं। लालू पर खुद जब चारा घोटाले का मुकदमा चल रहा था, तो वे पांच साल तक केन्द्र सरकार मे रेलमंत्री बने हुए थे। यह लारा घोटाला भी उसी दौरान हुआ था। जाहिर है, मुकदमा चलने को लालू अयोग्यता नहीं मानते। वे जेल जाने के बावजूद पद से हटाया जाना आवश्यक नहीं समझते। इसका एक उदाहरण है बिहार द्वारा नियुक्त झारखंड स्वायत्त परिषद के अध्यक्ष शीबू सोरेन का अपने पद पर बने रहना। लालू ने मुख्यमंत्री की हैसियत से उन्हें उस पद पर नियुक्त किया था। बाद मे एक हत्या के मुकदमे में श्री शोरेन की गिरफ्तारी हो गई थी। वे महीनों जेल में थे, लेकिन बिहार सरकार, जिस पर लालू ही काबिज थे, उन्हें अपने पद पर बनाए हुई थी। यह उस समय की बात है, जब झारखंड अलग राज्य नहीं बना था और वह बिहार का ही हिस्सा था।

जब जेल जाने के बावजूद लालू ने जब श्री सोरेन को उनके सरकारी पद से हटाना जरूरी नहीं समझा, तो लालू अपने बेटे के खिलाफ एफआईआर दर्ज होने पर ही हटाने से क्यों रहे? वे और उनके समर्थक कह रहे हैं कि उमा भारती पर भी मुकदमा चल रहा है, पर वे केन्द्र में मंत्री हैं। वे यह भी कह रहे हैं कि जब लालकृष्ण आडवाणी गृहमंत्री और उपप्रधानमंत्री थे, तो उस समय भी बाबरी ध्वंस मामले मे उनपर मुकदमा चल रहा था। हालांकि वे यह नहीं बता रहे हैं कि उमा भारती या लालकृष्ण आडवाणी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा नहीं चल रहा है, बल्कि एक राजनैतिक आंदोलन से जुड़ा मुकदमा चल रहा है। सच तो यह है कि जब लालकृष्ण आडवाणी पर भ्रष्टाचार का मुकदमा चल रहा था, तो उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया था और 1996 का चुनाव लड़ने से भी इनकार कर दिया था। यह सब तो हुई इतिहास की बातें, लेकिन उतने विस्तार में कोई क्यों जाना चाहेगा। फिलहाल मुद्दा यह है कि तेजस्वी अपने पद से इस्तीफा नहीं देंगे और भ्रष्टाचार के खिलाफ शून्य सहनशीलता का हवाला देते हुए नीतीश उन्हें अपनी सरकार से बर्खास्त कर सकते हैं।

लेकिन बर्खास्त करने के बाद राजद समर्थन वापस ले सकता है। तब वैसी स्थिति में नीतीश की सरकार अल्पमत में आ जाएगी। तब या तो नीतीश को खुद ही इस्तीफा देना पड़ सकता है या वे भाजपा के समर्थन से सरकार चलाने को मजबूर हो सकते हैं। लेकिन भाजपा क्यों चाहेगी कि वह नीतीश की सरकार चलाए? इस समय तो बिहार के उसके नेता कह रहे हैं कि लालू द्वारा समर्थन वापस लेने की स्थिति में वह उनकी सरकार को बाहर से समर्थन देकर बचा लेगी। बाहरी समर्थन से चल रही सरकारों दिन दो दिन की मेहमान होती हैं। तो क्या कुछ महीनों के लिए भाजपा पर निर्भर होकर फिर चुनाव का सामना करने के लिए नीतीश तैयार हो पाएंगे?

यदि नीतीश और लालू अलग अलग लड़ें, तो विधानसभा के मध्यावधि चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की जीत तय है। वैसी स्थिति में भाजपा चुनाव का रास्ता ही अपनाएगी। नीतीश भी इस बात को भलीभांति समझते हैं। वे पिछले कुछ महीनों से भाजपा से संबंध बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं, लेकिन अब भाजपा का नेतृत्व अटल या आडवाणी के हाथ में नहीं रहा, जिनसे मिलकर अपनी इच्छा नीतीश भाजपा पर थोप दिया करते थे।

भाजपा के समर्थन पर कुछ समय तक निर्भर रहने के दौरान नीतीश कुमार राजद में विभाजन की कोशिश कर सकते हैं। राजद लालू का पारिवारिक दल है और लालू परिवार के सभी प्रमुख सदस्यों पर भ्रष्टाचार के मामले में जांच चल रही है। यदि लालू यादव जेल चले गए, तो उनका दल नेतृत्व संकट से ग्रस्त हो जाएगा और अपनी विधानसभा की सीट बचाने के लिए राजद विधायक नीतीश की ओर भी मुखातिब हो सकते हैं। विधानसभा के स्पीकर की भूमिका भी नीतीश को लाभ पहुंचाने की ही होगी। 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले नीतीश लालू की पार्टी में विभाजन की कोशिश कर रहे थे और उस समय खबर तो यह भी थी कि अब्दुल बारी सिद्दकी भी लालू को छोड़कर नीतीश के साथ आने को तैयार हो गए थे। इस बार भी उस तरह की कोशिश हो सकती है।

लेकिन भारतीय जनता पार्टी नीतीश को इस तरह की कोशिश करने की मोहलत क्यों देगी? जाहिर है, तब लालू परिवार के खिलाफ जांच को ठंढी कर राजद के विभाजन को रोकने की कोशिश भी केन्द्र की सरकार कर सकती है, ताकि नीतीश लालू से अलग होकर तभी तक सत्ता में रह सकें, जबतक कि भाजपा चाहे। राजद द्वारा समर्थन वापस लेने के तुरंत बाद ही उसके विभाजन की कोशिश की जा सकती है। कुल मिलाकर यह कहना कठिन है कि आगे क्या होगा, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि कुछ भी संभव है। (संवाद)