दलीय और दूसरी संकीर्णताओं से मुक्त करने के लिए की गई इस व्यवस्था का सिर्फ एक बार इस्तेमाल हुआ जब निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में वीवी गिरि 1969 में देश के राष्ट्रªपति चुने गए और कांगे्रस के सांसदो तथा विधायकोें ने पार्टी के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी के खिलाफ मतदान किया।
राष्ट्रपति चुनाव में अपने विवेक से मतदान करने की आजादी के कानूनी पहलुओं की जानकारी देने के लिए निर्वाचन आयोग ने छह जुलाई 2017 को एक पे्रस बयान भी जारी किया ताकि संवैधानिक स्थिति स्पष्ट हो सके। इसमें आयोग ने प्रसिद्ध पत्रकार कुलदीप नैîर की याचिका पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का हवाला दिया जिसमें कहा गया है कि राज्यसभा के लिए होने वाले चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार के खिलाफ मतदान करने पर विधायकों पर संविधान की दसवीं अनुसूची में दल-बदल रोकने के प्रावधानों के तहत कार्रवाई नहीं होगी। आयोग ने इस फैसले को राष्ट्रपति के चुनाव पर भी लागू बताया है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्य सभा के सदस्यों के निर्वाचन में भाग लेने के लिए किया गया मतदान सदन में होने वाले मतदान से अलग है। इसलिए इसमें व्हिप लागू नहीं हो सकता है। चुनाव आयोग ने इसी फैसले को राष्ट्रपति चुनाव में मतदान की प्रक्रिया का आधार बनाया है।
दलों को इस चुनाव में व्हिप जारी करने के अधिकार से वंचित करने की संवैधानिक व्यवस्था का गहरा अर्थ है। यह राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों को पूर्णतः निष्पक्ष बनाने के लिए है।
सांसदों-विधायकों को व्हिप से मुक्त रखने की स्वतंत्रता को उपराष्ट्रपति पद के उम्मीदवार गोपालकृष्ण गांधी काफी अहम मानते हैं। उनका कहना है कि उन्हें रोबोट की तरह मतदान नहीं करना चाहिए। उनकी राय में अपनी चेतना का इस्तेमाल करना है।
लेकिन हर बार की तरह इस बार भी राष्ट्रपति चुनाव हर तरह की संर्कीणता का शिकार हुआ है और दुर्भाग्य से, संासदों-विधायकों को अपने विवेक से मत देने का अधिकार इससे प्रभावित हुआ है। भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी घोषित करते समय ही उनकी ‘दलित’ पहचान पर जोर डाला था। इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि लोग इसे चुनाव कानूनों का उल्लंघन और जाति तथा मजहब के इस्तेमाल के खिलाफ आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विपरीत करार दें। इस मुद्दे पर चुनाव को अदालत में चुनौती दी जाने की पूरी संभावना है।
राष्ट्रपति पद के लिए रामनाथ कोविंद और मीरा कुमार के बीच हुए संघर्ष में एक बात फिर से साबित हुई कि सर्वोच्च पद के चुनाव को पार्टियों के बीच के संकीर्ण संघर्ष से बचाने की संविधान की आकांक्षा अभी तक साकार नहीं हो पाई है। अगर यह संघर्ष विचारधारा के आधार पर होता तो उसका कुछ अर्थ भी होता। वीवी गिरी ने विचारधारा के आधार पर चुनाव लड़ा था और सांसदों और विधायकों ने उसी आधार पर मत दिया था। गिरि को कांग्रेस में इंदिरा गाधी के नेतृत्व में सक्रिय वामपंथी तत्वों का समर्थन मिला था। नीलम संजीव रेड्डी कांग्रेस की दक्षिणपंथी धारा का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। इस बार के चुनाव को मीरा कुमार ने विचारधारा के संघर्ष में तब्दील करने की कोशिश की, लेकिन वैसा नहीं हो सका। सŸााधारी भाजपा के साथ कई ऐसी पार्टियां खड़ी हैं जिनका आरएसएस की विचारधारा से कोई संबंध नहीं है। जनता दल -यूनाइटेड (जदयू) का ही उदाहरण लंे । नीतिश कुमार ने तो ‘शराब मुक्त भारत’ के साथ संघ मुक्त भारत का नारा दिया था। वह भाजपा के साथ खड़े होने की तैयारी में हैं। उन्हें भाजपा की ओर जाने से रोकने के लिए कंाग्रेस तथा बाकी विपक्षी पार्टियों ने गोपाल कृष्ण गंाधी को उपराष्ट्रपति पद का उम्मीदवार बनाया है।
एनडीए में शामिल कई पार्टियां आरएसएस और भाजपा की विचारधारा से दूर का संबंध भी नहीं रखती हैं। वे सांप्रदायिकता के विरोध में राजनीतिक कदम भी उठाती रही हैं। रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोक जनशक्ति पार्टी, उपेंद्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी और चंद्राबाबू नायडू की तेलगु देशम पार्टी समेत कई ऐसी पार्टियां हैं जो आर्थिक नीतियों को छोड़ कर ज्यादातर मुद्दों पर संघ और भाजपा की विचारधारा के विरोध में हैं। रामनाथ कोविंद को उनका समर्थन वैचारिक आधार पर नहीं है। यह समर्थन रणनीतिक है और इसका विचारधारा से कोई लेना.देना नहीं है।
पासवान ने चुनाव आयोग को पत्र लिख कर राजनीतिक दलों की ओर से अपने सदस्यों के मतदान पर नजर रखने की कोशिश के खिलाफ कार्रवाई करने की मांग भी कर डाली है। शायद उन्हें भरोसा है कि विरोधी पार्टियों के कुछ मत रामनाथ कोविंद को मिलेंगे। लेकिन सच्चाई यही है कि भाजपा समेत सभी पार्टियों को दल के फैसले के विरूद्ध मतदान का अंदेशा है। दुर्भाग्य से, पासवान को मालूम है कि दल से बाहर जाकर मतदान करने के पीछे कोई विचारधारा नहीं है।
असल में, पार्टी के दायरे से बाहर होकर सोचने का जो अवसर संविधान ने सांसदों-विधायकों को दिया है गया है उसके इस्तेमाल के लिए जरूरी जमीन अभी तैयार नहीं हो पाई है। आखिरकार, गोपालकृष्ण गंाधी जैसे विद्वान और प्रतिभाशाली व्यक्ति से बेहतर उम्मीदवार कौन हो सकता है? लेकिन उन्हें उस पद तक पहुंचने से रोकने के लिए भाजपा पूरी कोशिश में है। (संवाद)
संकीर्णताओं के दलदल में राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति चुनाव
विचारधारा की लड़ाई का कहीं नामोनिशान नहीं है
अनिल सिन्हा - 2017-07-18 11:11
भारत के राष्ट्रपति के पद को नई गरिमा देने का एक और मौका राजनीतिक दलों ने गंवा दिया। इसका ज्यादा दोष सत्तारूढ भाजपा के माथे ही जाएगा, क्यांेकि यह पहल उसे ही करनी थी। संविधान ने राष्ट्रपति-उपराष्ट्रपति के चुनावों को दलगत राजनीति से ऊपर रखने की व्यवस्था की है और संासदों-विधायकोें को पार्टी के दायरे से बाहर जाकर मतदान करने की आजादी दी है। राजनीतिक दलों को मौका था कि वे इस प्रावधान का उपयोग कर देश के सर्वोच्च पद के चुनाव को खूबसूरत बना सकते थे।