फिर 1997 में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ। उस समय के आर नारायणन उपराष्ट्रपति थे और केन्द्र की सत्ता में संयुक्त मोर्चा थी, जिसके सबसे बड़े नेता खुद विश्वनाथ प्रताप सिंह थे। इन दोनों कारणों से के आर नारायणन को देश का पहला राष्ट्रपति बनने में कोई परेशानी नहीं हुई। शिव सेना को छोड़कर अन्य सभी पार्टियां उनके पक्ष में थी और यदि टीएन शेषण उम्मीदवार बनने की जिद नहीं करते, तो के आर नारायणन बिना चुनाव के ही राष्ट्रपति बन जाते। जो भी हो, चुनाव हुआ और उसमें भाजपा ने भी श्री नारायणन को वोट दिया। यानी पांच साल में भाजपा का नेतृत्व कुछ विवेकशील हो चुका था और अब तो उस चुनाव के भी 20 साल बीत चुके हैं। तब से यमुना में बहुत पानी बह चुका है।

इसलिए इस तरह की आशंका जताना कि कोविंद के राष्ट्रपति बनने के बाद संविधान से ही छेड़छाड़ कर दी जाएगी, गलत है। डाॅक्टर कोविंद खुद कह चुके हैं कि वे संविधान की रक्षा करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंग और गरीबों व कमजोर वर्गो के लोगों के लिए वे काम करेंगे। वैसे भी राष्ट्रपति का पद प्रतिष्ठा और सम्मान का होता है और कार्यपालक शक्तियां सरकार के पास और विधायी शक्तियां संसद के पास होती हैं। इसलिए राष्ट्रपति के पद पर कौन व्यक्ति बैठता है, इससे देश के शासन-प्रशासन पर कोई खास असर नहीं पड़ता। जब लोकतंत्र में खुद संशय की स्थिति पैदा होती है, तब राष्ट्रपति को अपने विवेक से काम लेना होता है। वैसी स्थिति 1990 के दशक के बाद से 2014 तक बनी हुई थी, जब केन्द्र में किसी एक दल के बहुमत की सरकार नहीं थी। तब राष्ट्रपतियों के कुछ निर्णयों की आलोचना हुई, तो कुछ निर्णयों के लिए राष्ट्रपति की खूब बाहबाही भी हुई।

और इस बीच यदि किसी राष्ट्रपति ने अपने निर्णयों से संविधान बचाने और सांवैधानिक प्रक्रिया की गरिमा को बचाने का काम किया, तो वह थे पहले दलित राष्ट्रपति के आर नारायणन। उनके पहले शंकर दयाल शर्मा राष्ट्रपति थे, जिन्होंने 1996 मंे बिना यह जानने की कोशिश किए कि अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा में अपना बहुमत साबित कर भी सकते हैं या नहीं, उन्हें प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी। 13 दिनों में ही अटल की सरकार गिर गई थी। राष्ट्रपति के उस निर्णय की बहुत आलोचना हुई, क्योंकि उन्हें शपथ दिलाने के पहले यह जानने की कोशिश करनी चाहिए थी कि अटल के पास बहुमत का आंकड़ा है भी या नहीं। लेकिन राष्ट्रपति की हैसियत से ही डाॅक्टर शंकर दयाल शर्मा ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राष्ट्र को संबांधित किया था और विध्वंस के बाद खून से लथपथ हो रहे देश को शांति की राह पर लाने की कोशिश कर एक प्रशंसनीय काम किया था। आमतौर पर राष्ट्रपति राष्ट्रीय दिवसों पर ही राष्ट्र को संबोधित करते हैं और उनका संबोधन भी मंत्रिपरिषद द्वारा तैयार किया जाता है, जिसमें सरकार की बातें होती हैं। लेकिन बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बाद राष्ट्रपति शर्मा ने अपने को मंत्रिपरिषद की जकड़नों से मुक्त कर राष्ट्र को संबोधित किया था।

के आर नारायणन के राष्ट्रपति बनने के बाद भी अनेक ऐसे मौके आए थे, जब राष्ट्रपति की भूमिका महत्वपूर्ण थी। सबसे पहला मौका तो उस समय आया था, जब केन्द्र की सरकार ने उत्तर प्रदेश की कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने का निर्णय किया था। लेकिन राष्ट्रपति नारायणन ने केन्द्र सरकार के मंसूबों पर पानी फेर दिया और कल्याण की सरकार की बर्खास्तगी के निर्णय पर अपने दस्तखत नहीं किए। एक और मौका आया, जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने बिहार की राबड़ी सरकार को बर्खास्त करने का निर्णय किया। उस समय भी श्री नारायणन ने मंत्रिपरिषद के निर्णय पर अपना दस्तखत नहीं किया, बल्कि उस पर फिर से विचार करने को कहा।

इस तरह डाॅक्टर नारायणन ने राष्ट्रपति के पद की प्रतिष्ठा ही बढ़ाई और कठिन दौर में उन्होंने अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए ऐसे निर्णय लिए, जो उन्हें देश के अन्य राष्ट्रपतियों से अलग दिखाते हैं।

दुर्भाग्य से एपीजे अब्दुल कलाम ने नारायणन की परंपरा को जारी नहीं रखा। उन्होंन मंत्रिपरिषद के निर्णयों पर आंखें मूंदकर दस्तखत किए। झारखंड और बिहार के मामले में वे अपने विवेक का इस्तेमाल कर अपने आपको आलोचनाओं से बचा सकते थे, लेकिन उन्होंने वैसा नहीं किया। इसके कारण उन्हें सुप्रीम कोर्ट से भी आलोचना झेलनी पड़ी। उनके बाद राष्ट्रपति बनी प्रतिभा पाटिल के सामने कोई जटिल प्रश्न खड़ा ही नहीं हुआ। हां, प्रणब मुखर्जी ने उत्तराखंड के मामले मे के आर नारायणन का अनुसरण नहीं किया।

सवाल उठता है कि क्या देश के दूसरे दलित राष्ट्रपति पहले दलित राष्ट्रपति के पद चिन्हों पर चलकर जटिल घड़ियों में अपने विवेक का सही इस्तेमाल कर संविधान की रक्षा करने का काम करेंगे? क्या उनका आदर्श के आर नारायणन होंगे या प्रणब मुखर्जी? (संवाद)