सस्ती दवाओं के लिए जरूरी है कि उसके उत्पादन का लागत भी कम हो, उसका सप्लाई चेन मजबूत हो, गुणवत्ता पर नियंत्रण हो और कीमतों का सही निर्धारण हो। 1995 में नेशनल फर्मास्यूटिकल प्राइसिंग अथाॅरिटी का गठन किया गया ताकि ड्रग( प्राइस कंट्रोल आॅर्डर के तहत अपनाई गई नीति पर अमल हो सके और कम कीमत पर दवाइयों को देश में उपलब्ध कराई जा सके। यह अथाॅरिटी आवश्यक दवाइयों की कीमतें तय भी करती हैं।

इसके बावजूद दवाओं की कीमतों में अनेक प्रकार की विसंगतियां हैं। कोई ऐसी व्यापार नीति नहीं है, जिससे सभी दवाइयों की कीमतें तय की जा सकें। आमतौर पर थोक दवा विक्रेताओं को 10 फीसदी और खुदरा दवा विक्रेताओं को 20 फीसदी मुनाफा कमाना चाहिए, लेकिन ऐसा होता नहीं है। उम्मीद की जाती है कि डाॅक्टर जेनेरिक दवाएं लिखें और उनको उसी रूप में लिख जाए, लेकिन हमारे देश में जेनेरिक दवाएं जेनेरिक ब्रांडेड दवाएं बन गई हैं और एक जेनेरिक दवा के कई ब्रांड हैं।

किसी किसी मामले में तो ब्रांडेड जेनेरिक दवा के कीमतें सही कीमतों से 600 से 700 प्रतिशत ज्यादा होती हैं। इसका कारण यह है कि उस पर एमआरपी ही ज्यादा लिखा हुआ होता है और आपूर्तिकत्र्ता उसके 700 से 800 फीसदी कम कीमतों पर उन्हें उसकी आपूर्ति करते हैं।

सरकार को भी इस विसंगति की जानकारी जरूर होगी। लेकिन उसकी तरफ से कोई हस्तक्षेप किया ही नहीं जाता है। यह जानना जरूरी है कि एमआरपी तय कौन करता है। यह भी जानना जरूरी है कि उन्हीं दवाइयों को उत्पादन अस्पतालों में बहुत कम कीमत पर क्यों देते हैं।

अनेक दवा विक्रेताओं के संगठन व अन्य लोग हृदय के स्टेंट की कीमत के मसले को उठा रहे थे, लेकिन सरकार ने उसकी कीमत तभी कम की, जब वैसा करने के लिए अदालत का आदेश आया। अदालत में वकील बीरेन्द्र सांगवान ने इसके लिए एक जनहित याचिका दाखिल की थी।

इसलिए जरूरत आज इस बात की है कि दवाओं तथा स्वास्थ्य सेवाओं में इस्तेमाल होने वाले अन्य उपकरणों की कीमतों का निर्धारण उनकी लागत के अनुसार ही किया जाना चाहिए। लागत के अलावा किसी अन्य फैक्टर से वह प्रभावित नहीं होना चाहिए।

थोक दवा विक्रेताओं का प्रोफिट मार्जिन 10 फीसदी से ज्यादा नहीं होना चाहिए। खुदरा दवा विक्रेताओं को 20 फीसदी का प्रोफिट मार्जिन दिया जाना चाहिए।

दवा की सही कीमत और एमआरपी में 20 फीसदी से ज्यादा का अंतर नहीं होना चाहिए। अभी तो यह अंतर 700 से 800 फीसदी तक होता है।

जेनेरिग दवा का मतलब जेनेरिक ही होना चाहिए। कंपनियों द्वारा उनकी अपनी ब्रांडिंग का इस्तेमाल नहीं करने दिया जाना चाहिए। अलग अलग कंपनियों द्वारा तैयार साॅल्ट की कीमत एक ही होनी चाहिए, अलग अलग नहीं होनी चाहिए। सभी प्रकार की दवाइयों की गुणवत्ता पर नियंत्रण होना चाहिए।

सभी दवाओं पर अति आवश्यक का लेबल लगा होना चाहिए, क्योंकि जैसे ही किसी रसायन को दवा कहा जाता है, वह अपने आप अतिआवश्यक हो जाता है। (संवाद)