शपथ ग्रहण के बाद अपने भाषण में उन्होंने देश-दुनिया के बारे में कई अच्छी-अच्छी बातें कीं। मसलन उन्होंने इस बात को शिद्दत से रेखांकित किया है कि संस्कृति, धर्म-पंथ, क्षेत्र, भाषा, विचारधारा, जीवन शैली आदि के तौर पर हमारी विविधताएं ही हमारे देश की सबसे बडी खूबसूरती और ताकत है और यही हमारी एकजुटता का आधार भी। उन्होंने आजादी के 75वें वर्ष यानी 2022 तक देश को आर्थिक और सामाजिक तौर पर विकसित करने की बात भी कही। इस संदर्भ में उन्होंने हमारे संविधान के मुख्य शिल्पकार डॉ. भीमराव आंबेडकर का जिक्र किया, जो सामाजिक और आर्थिक आजादी के बगैर राजनीतिक आजादी को अधूरा मानते थे। कोई भी व्यक्ति इस कडवी हकीकत को नकार नहीं सकता कि सामाजिक गैर बराबरी की गहरी खाई हमारे देश की सबसे बडी कमजोरी है। राष्ट्र प्रमुख के नाते कोविंद ने इस कमजोरी को उचित ही रेखांकित किया।
अपनी ग्रामीण और गरीब पृष्ठभूमि का जिक्र करते हुए नए राष्ट्रपति ने संविधान की प्रस्तावना में उल्लेखित- न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के मूल मंत्र के प्रति अपनी निष्ठा जताते हुए देश को आश्वस्त किया है कि राष्ट्र प्रमुख के रूप में वे सदैव इसका पालन करते रहेंगे। उन्होंने अपने संबोधन में एकाधिक बार राष्ट्र निर्माण की चर्चा की और खेतों में काम करने वाले किसानों, खेतिहर मजदूरों, कारखानों में काम करने वाले श्रमिकों, दस्तकारों, बुनकरों, वनों और वन्य जीवन की रक्षा कर रहे आदिवासियों, सफाई कर्मियों, शिक्षकों, नर्सों, डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, सरकारी महकमों में कार्यरत प्रतिबद्ध लोकसेवकों, घरों और घरों के बाहर सामाजिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहीं महिलाओं, पुलिस सहित सभी तरह के सुरक्षा बलों आदि हर वर्ग को राष्ट्र निर्माता करार दिया। समाज के सभी तबकों के प्रति राष्ट्रपति का यह उदार दृष्टिकोण निस्संदेह स्वागत योग्य है।
नए राष्ट्पति ने माना कि एक राष्ट्र के तौर पर हमने बहुत कुछ हासिल किया है लेकिन यह हासिल हमने किन महान नेताओं की अगुवाई में किया है, उनका जिक्र करने से वे साफ तौर पर बचते दिखे, अपनी वैचारिक और दलीय निष्ठा के अनुरू प, ठीक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह। अलबत्ता उन्होंने आजादी के बाद रियासतों में बंटे देश के एकीकरण में सरदार पटेल की भूमिका का जिक्र जरुर किया लेकिन यह जिक्र भी पटेल को नेहरू से अलग दिखाने की उस हताशा भरी ओछी कोशिश के तहत किया जो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ पिछले कई वर्षों से कर रहा है। स्वाधीनता संग्राम में अग्रिम पंक्ति के सेनानी और देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से किसी की वैचारिक और राजनीतिक असहमति हो सकती है, जो कि होनी भी चाहिए, लेकिन देश में लोकतांत्रिक संस्थाओं को मजबूत बनाने, औद्योगिक विकास की मजबूत आधारशिला रखने तथा विज्ञान और तकनीकी के क्षेत्र में संस्थाओं को खडा करने में उनके योगदान को कौन नकार सकता है! सिर्फ नेहरू ही क्यों, उनके बाद बने हर प्रधानमंत्री ने इस राष्ट्र को समृद्ध और सक्षम बनाने में अपनी क्षमता के अनुरूप कुछ न कुछ योगदान तो दिया ही है। अगर कोई उनके योगदान को विस्मृत करता है तो इसे नाशुकरापन ही कहा जा सकता है।
नए राष्ट्रपति ने डॉ. राजेंद्र प्रसाद, डॉ. राधाकृष्णन, डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम और प्रणब मुखर्जी जैसे पूर्व राष्ट्रपतियों के पदचिह्नों पर चलने की बात भी कही है। ऐसा कह कर उन्होंने स्पष्ट तौर पर अन्य पूर्व राष्ट्रपतियों के प्रति अपनी हिकारत और अपमान के भाव का ही प्रदर्शन किया। यहां पूछा सकता है कि डॉ, जाकिर हुसैन, वीवी गिरि, आर. वेंकटरमन, डॉ. शंकर दयाल शर्मा, केआर नारायणन आदि राष्ट्रपतियों में क्या खराबी रही? ये पांचों तो राष्ट्रपति बनने से पहले उप राष्ट्रपति भी रहे और दोनों पदों पर निर्विवाद रहते हुए अपना कार्यकाल पूरा किया। चूंकि कोविंद का पूरा भाषण लिखित था, लिहाजा यह भी नहीं कहा जा सकता कि वे अपने इन पूर्ववर्तियों का नाम लेना भूल गए होंगे। जाहिर है कि भाषण तैयार करने में इन पूर्व राष्ट्रपतियों को जान-बूझकर नजरअंदाज किया गया।
नए राष्ट्रपति ने वैश्विक परिदृश्य में आतंकवाद और जलवायु परिवर्तन से संबंधित चुनौतियों की भी चर्चा की और उनके मद्देनजर विश्व शांति और पर्यावरण संतुलन कायम करने में महात्मा बुद्ध के भारत की नेतृत्वकारी भूमिका को भी रेखांकित किया। यहां पूछा सकता है कि जब इस समय अपने देश में ही अशांति का माहौल बना हुआ है। जातीय और सांप्रदायिक उन्माद चरम पर है। देश के कई हिस्सों में गृहयुद्ध जैसे हालात बने हुए हैं। गाय की रक्षा के नाम पर सत्तारूढ दल के समर्थकों द्वारा किसी को पकडकर पीट देने या मार डालने की घटनाएं आए दिन हो रही हैं और जिनकी चर्चा दुनिया के दूसरे देशों के प्रचार माध्यमों में भी प्रमुखता से हो रही है तो ऐसे में विश्वशांति को लेकर हमारे उपदेशों को कौन गंभीरता से लेगा?
नए राष्ट्रपति ने एक मजबूत अर्थव्यवस्था, शिक्षित, नैतिक और साझा समुदाय, समान मूल्यों वाले और समान अवसर देने वाले समाज के निर्माण की बात करते हुए महात्मा गांधी के साथ ही दीन दयाल उपाध्याय का भी जिक्र किया है। महात्मा गांधी जिक्र तो होना ही था, क्योंकि जब दुनिया के दूसरे देश गांधी को याद कर रहे हैं तो हम कैसे भुला सकते हैं! लेकिन उनके साथ दीन दयाल उपाध्याय का क्या मेल हो सकता है? दीन दयाल उपाध्याय एक विशेष विचारधारा से प्रेरित किसी राजनीतिक दल के लिए या कुछ हद तक उस दल के बाहर अन्य लोगों के लिए तो वरेण्य हो सकते हैं लेकिन उन्हें गांधी के समकक्ष कतई नहीं रखा जा सकता। गांधी जैसे विश्व-मान्य विराट व्यक्तित्व के साथ तो आंबेडकर, नेहरू , भगत सिंह, सरदार पटेल, लोहिया, जयप्रकाश, मौलाना आजाद ही हो सकते हैं। इस कतार में देश के स्वाधीनता संग्राम से अलग रही किसी वैचारिक जमात का कोई नुमाईंदा हर्गिज नहीं हो सकता।
राष्ट्रपति के रूप में कोविंद जी का महात्मा गांधी के समकक्ष दीन दयाल उपाध्याय को रखना, राष्ट्र निर्माण में नेहरू समेत तमाम नेताओं के योगदान की अनदेखी करना, पूर्व राष्ट्रपतियों में कुछ का जिक्र जानबूझकर न करना और इस सबके अलावा राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह में जय जय श्रीराम के धार्मिक-राजनीतिक नारे लगना किसी भी दृष्टि से देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।(संवाद)
संकेत जो नए राष्ट्रपति के भाषण से निकले
अपेक्षा पर खरे नहीं उतरे कोविंद
अनिल जैन - 2017-07-27 11:03
भारत के चैदहवें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करने के बाद रामनाथ कोविंद ने अपने लिखित भाषण के जरिये देश और दुनिया के बारे में अपनी समझ स्पष्ट करने की कोशिश की, जो कि राष्ट्रपति के तौर उनसे अपेक्षित थीं। लेकिन ऐसा करते हुए वे अपनी राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धता से ऊपर उठने की उदारता नहीं दिखा पाए जिसकी कि अपेक्षा राष्ट्रपति पद संभालने वाले किसी भी व्यक्ति से की जाती है। राष्ट्रपति पद के चुनाव में कोविंद बेशक भारतीय जनता पार्टी और उसके गठबंधन के उम्मीदवार थे। इससे पहले भाजपा की सरकार ने ही उन्हें राज्यपाल भी बनाया था और उससे भी पहले वे लंबे समय तक भाजपा के माध्यम से राजनीति में सक्रिय थे। लेकिन उनके राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उनसे अपेक्षा थी कि वे अपने दलीय और वैचारिक लगाव से ऊपर उठकर देश से संवाद करेंगे, लेकिन अफसोस कि वे ऐसा नहीं कर सके।