दवाओं को दो श्रेणियों में विभाजित किया गया था। एक श्रेणी की दवाओं को अति अवाश्यक दवाएं बताया गया, जबकि दूसरी श्रेणी की दवाओं को कम आश्यक दवाएं बताया गया। अथाॅरिटी ने अति आवश्यक दवाओं की कीमतें तय कर दीं। अब यह हैरत कर देने वाली बात है कि किसी दवा को अति आवश्यक या किसी को कम आवश्यक कैसे कहा जा सकता है। जैसे ही किसी रसायन को दवा करार दिया जाता है, वह अति आवश्यक हो जाता है, क्योकि इसे सिर्फ डाॅक्टर की सलाह पर ही इस्तेमाल किया जा सकता है। यही कारण है कि दवाओ को इस प्रकार श्रेणीबद्ध करने से कोई फायदा नहीं हुआ है और बाजार का अपना मेकैनिज्म ही दवाओं की कीमतों को निर्धारति कर रहा है।

हमारे पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को इस बात का आभास था कि निजी सेक्टर दवाओं का उत्पादन कर उपभोक्ताओं का शोषण करेगा, इसलिए उन्होंने पब्लिक सेक्टर में दवाओं के उत्पादन का निर्णय किया था। उन्होनंे 1961 में इंडियन ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड का उद्घाटन करते हुए कहा था कि दवा उत्पादन का जिम्मा पब्लिक सेक्टर का ही होना चाहिए। उन्होंने कहा था कि निजी सेक्टर इस उद्योग में बहुत शोषण करते हैं। इसका गठन आवश्यक दवाओं के उत्पादन के लिए किया गया था। इसके पीछे दवाओं के आयात पर निर्भरता कम करना भी एक उद्देश्य था।

भारत के दवा उद्योग के आधार को मजबूत करने में इंडियन ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल्स लिमिटेड ने बहुत बड़ी भूमिका निभाई है। परिवार नियोजन कायक्रमों में जनसंख्या नियंत्रण करने वाली दवाओं के उत्पादन एवं वितरण में भी इसका खासा योगदान रहा है। मलेरिया के खिलाफ लड़ने का मामला हो या डिहाइड्रेसन की समस्या का निदान करना हो, इसने उनकी दवाइयों का भारी पैमाने पर उत्पादन किया है और सस्ती कीमतों पर उन्हें उपलब्ध भी कराया है।

1994 में प्लेग का भारी फैलाव हो रहा था। देश में अफरातफरी का माहौल था। उस माहौल में इसी सरकारी कपंनी ने टेट्रासाइक्लिन का उत्पादन कर देश भर में उसकी आपूर्ति करवाई थी और प्लेग की महामारी से देश को बचाने का काम किया था। माला डी, माला एन और ओआरएस की उत्पादक कंपनी भी यही है।

उसी तरह मलेरिया का सामना करने के लिए यह क्लोरोक्विन का भारी पैमाने पर उत्पादन करता रहा है और जब यह विनाशकारी रूप ले लेता है, तब इसी कंपनी के भरोसे सारा देश हो जाता है। इस कंपनी ने हमेशा अच्छी गुणवत्ता की दवाओं का उत्पादन किया है और कम कीमतें रखकर यह अन्य निजी कंपनियों को भी कीमतें कम रखने के लिए बाध्य कर देती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इंडियन ड्रग एंड फार्मास्यूटिकल कंपनी की बाहबाही करते हुए कहा है कि इसने 10 साल में वह मुकाम हासिल कर लिया, जो अन्य कंपनियां 50 साल में हासिल कर पाती हैं।

हिन्दुस्तान अंटीबायोटिक्स लिमिटेड की स्थापना भी जवाहरलाल नेहरू ने ही की थी। सेंट्रल रिसर्च इंस्टीच्यूट कसौली वैक्सिन के उत्नादन में भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में अपनी एक बड़ी हैसियत रखता है। इसकी स्थापना अंग्रेज के जमाने में ही 1905 में हुई थी। यह मूल रूप से शोध के लिए बना था, लेकिन यह शोध से आगे बढ़कर भी स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है।

लेकिन 1991 के बाद से परिस्थितियां बदलने लगी हैं। निजीकरण और वैश्विीकरण की नीतियों के तहत सबकुछ उलटा होना लगा है। अनेक पब्लिक सेक्टर कंपनियां वित्तीय समस्या का सामना कर रही हैं ओर 28 दिसंबर 2016 को तो सरकार ने इन कंपनियों को बेचने पर भी मुहर लगा दी है। इसका विरोध किया जाना चाहिए। (संवाद)