देश का सर्वोच्च पद भी स्वार्थ से प्रेरित अनैतिक राजनीति का शिकार बन चुका है। लोकतंत्र के इस सर्वोच्च पद पर भी राजनीतिक शिकंजा कसता नजर आ रहा है। हत्या, अपहरण, अवैध गतिविधियों में लिप्त आज लोकतंत्र का सम्मानित सांसद, विधायक है। जेल में बंद है, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार के केस चल रहे हैे फिर भी सांसद/विधायक है। आखिर आजादी के बाद उभरे इस तरह के परिदृश्य के लिये कोैन जिम्मेवार है? शहीदों के त्याग एवं बलिदान की कहानी को हम इतनी जल्दी भूल गये?

स्वतंत्रता उपरान्त स्वयंभू की प्रवृृत्ति आज इतनी बढ़ चली है कि राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि साफ - साफ दिखने लगा है, जबकि स्वतंत्रता पूर्व देश की आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि बनी हुई थी। फिर आज यह क्या हो गया ? आजादी मिलते ही हम इतने स्वार्थी हो गये कि आजाद कराने वालें अनेक गुमनाम शहीदों की कुर्बानियों को भूलकर उनके आदर्श सपनों को मटियामेट करते हुए देश की अस्मिता को भी दांव पर लगाते जा रहे है। जन सेवा का संकल्प लिये लोकतंत्र के आज जनप्रतिनिधि वेतनभोगी हो गये है जो अपनी सेवा का वेतन देश के अन्य वेतनभोगियों की तरह लेने लगे है। हत्या, लूट, अपराध में लिप्त हमारे जनप्रतिनिधि बनकर आज लोकतंत्र के पवित्र आंगन को अपने अलोकतांत्रिक आचरण से अपवित्र किये जा रहे है और हम इनका विरोध करने के वजाय अभिनंदन करते जा रहे है। देश के सम्मानित एवं सर्वोच्य परिसर के जो हालात है, वह सभी के सामने है। आज कोई संसद पर हमला कर रहा है तो कोई हमलावार को बचाने की कोशिश कर रहा है, तो कोई संसद में बाहुबल का खुला प्रयोग कर संविधान की धज्जियां उड़ा रहा है। आज देश फिर से फरेबियों के जाल में फंसता जा रहा है। नकली सामानों , नकली नोटों एवं नकली दवाईयों की तो चारों ओर भरमार है। उद्योग धंधे तो बंद होते जा रहे है, रोजगार के नाम हर जगह लूट - खसोट की राजनीति पनाह ले रही है। न्याय की तलाश में आज भी लोग भटक रहे है जहां अंग्रेजों की ही नीतियां कायम है। अंग्रेज तो चले गये पर आज भी अंग्रेजियत हावी है जिसका खुला नजारा हर सरकारी कार्यालयों एवं हर संसदीय कार्यवाही में देखने को मिल सकता है। आज इसी कारण देश की संसद ही नहीं अनेक जगहों का स्वरुप भी विदेशी सा दिखाई देता है। अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को सही मायने में आज तक नहीं अपना पाये । आज भी संसद से लेकर विदेश यात्रा तक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व इस तरह हावी है कि जिसे देखकर लगता ही नहीं कि इस देश की भी अपनी कोई भाषा है।

देश में आया राम , गया राम की कहानी ज्यादा सक्रिय हो चली है। सत्ता पाने के लिये कौन किधर चला जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता। नैतिकता की दुहाई देने वाले सर्वाधिक अनैतिकता में डुबे दिखाई दे रहे है। ऐन - केन प्रकारेण सत्ता आनी चाहिए । इस दिशा में भरमाने एवं लुभाने की प्रक्रिया सक्रिय हैं। क्रय- क्रिय का क्रम जारी है। साम दाम दंड भेद की राजनीति का वर्चस्व हावी है। इस परिवेश में कोई अपने वजूद को बचाने में लगा है तो कोई वजूद बढ़ाने में। आम जनता महंगाई की मार एवं बेराजगारी से परेशान है पर इसकी चिंता किसी को नहीं।

अब प्रश्न यह उभरता है, क्या देश की इन्हीं हालातों के लिये लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी ? क्राति दिवस पर इस तरह के उभरते हालातों पर आज मंथन करने की विशेष आवश्यकता है । सन्् 1857 से लेकर 9 अगस्त 1947 के मध्य छिड़ी आजादी के जंग पर एक नजर डालें जहां देश की आजादी के लिये अनोखी जंग छिड़ गई थी। साथ ही साथ देश भक्ति में सराबोर हुए आजादी के दिवानों का जत्था जिनकी कुर्बानियों के आगे अंग्रेजी हुकूमत को यहां से बिदा होना पड़ा। हम याद करें , मंगल पांडे की कहानी जिसने निःस्वार्थ भाव से अंग्रेजों के विरूद्ध अलख जगा कर आजादी की जंग छेड़ दी । राम प्रसाद विस्मिल, भगत सिंह आजाद आदि के त्याग एवं बलिदान की कहानी को इतना जल्दी कैसे भूल गये ? हम कैसे भूल गये सुभाष चंद्र को जिसने देश से बाहर आजाद हिन्द फौज का गठन कर आजादी की लड़ाई में अहम्् भूमिका निभाई । साथ ही बिहार प्रदेश की राजधानी पटना में अंकित उन अमर शहीदों को भी हम भूल बैठे जिन्होंने आजादी के झंडे को अंतिम सांस तक झूकने नहीं दिया । देश की आजादी की जंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अनेक गुमनाम शहीद हर भारतीय से पूछ रहे है , क्या भारत के इसी स्वरुप के लिये हम सब ने बलिदान दिया ? निश्चित रुप से आज यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है, जिसका हल हम सभी को ढ़ूढ़ना होगा । आजादी के बाद ही यह देश मुद्दों के बीच उलझ गया जहां सत्ता से जुड़ी राजनीति समा गई जिसनें शहीदों के सपनों के भारत का काया कल्प बिगाड दिया। जहां स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि हो चला है। (संवाद)