इस मामले की सुनवाई एक पांच सदस्यीय बेंच कर रहा था। उसमें मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर भी थे। न्यायमूर्ति खेहर व एक अन्य जज ने तीन तलाक की इस प्रथा को असंवैधानिक नहीं माना, जबकि तीन अन्य जजों ने इसे संविधानविरोधी माना और एक जज ने तो इसे असंवैधानिक होने के साथ साथ गैरइस्लामिक भी करार दिया। इस तरह 3-2 के बहुमत से एक ही झटके में तीन तलाक देने की यह प्रथा समाप्त हो गई है।
मुकदमे की सुनवाई के दौरान ही यह स्पष्ट हो गया था कि एक साथ तीन तलाक बोलकर या लिखकर तलाक देने की व्यवस्था इस्लाम के ग्रंथों मे नहीं है, बल्कि इस परंपरा की स्रोत कहीं और है। कुरान में तो तलाक को ही पाप बताया गया है और उसे रोकने के लिए ही तीन गुना कठिन बना दिया गया है। यानी तीन बार तलाक देने के बाद ही तलाक को पूर्ण माना गया है और तीनों तलाक के बीच समझौते की गुजायश छोड़ी गई है। तीनों तलाक के बीच एक निश्चित समय का भी प्रावधान किया गया है, लेकिन मुस्लिम समाज में एक ही छण में तीन बार तलाक बोलकर शादी समाप्त कर देने की एक गैरइस्लामिक परंपरा चल रही थी। और इसे परंपरा के नाम पर धार्मिक रंग दे दिया गया था।
कोर्ट में जो तीन तलाक की पैरवी कर रहे थे, वे भी यह साबित नहीं कर पाए कि एक बार में तीन तलाक बोलकर या लिखकर शादी तोड़ देना इस्लाम को अभिन्न भाग है। साबित करना तो दूर, वे इसका दावा भी नहीं कर सके कि यह परंपरा इस्लामसम्मत है। वे सिर्फ परंपरा की दुहाई देते रहे और इसके आधार पर इस मामले में अदालत के हस्तक्षेप का विरोध करते रहे। वे चाहते थे कि अदालत इसमें हस्तक्षेप न करे और समाज खुद इस समस्या का कोई न कोई हल निकाल लेगा, लेकिन जो लोग अदालत मे इस तरह का दावा कर रहे थे, वे पूरे समाज का प्रतिनिधि होने का दावा कैसे कर सकते थे? उसी अदालत में वे मुस्लिम महिलाएं भी न्याय खोज रही थीं, जिन्हें तीन तलाक के द्वारा घर से बाहर किया जा चुका था।
सच कहा जाय, तो टेक्नालाॅजी के इस्तेमाल से तीन तलाक के इस प्रावधान का भारी दुरुपयोग हो रहा था। पत्र लिखकर ही नहीं, बल्कि फोन करके भी तलाक दिए जा रहे थे। फोन के साथ साथ तलाक के लिए एसएमएस का भी इस्तेमाल हो रहा था। व्हाट्सऐप जैसे सोशल मीडिया का इस्तेमाल भी तीन तलाक के लिए किया जा रहा था। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद तीन बार तलाक बोलकर या लिखकर शादी तोड़ने का वह मनमाना प्रचलन समाप्त हो जाएगा। कोर्ट के फैसले के बाद अब सरकार को कानून बनाकर इसे नियमित करना होगा और एक ऐसी कानूनी व्यवस्था करनी होगी, जो इस्लामसम्मत भी हो और जिसके द्वारा महिला के अधिकारों की रक्षा भी होती हो। सबसे ज्यादा जरूरी यह है कि ऐसी कानूनी व्यवस्था बननी चाहिए, जो मुस्लिम महिलाओं को स्वीकार्य हो। इस पूरे मामले मे गौर करने की बात यह भी है कि तीन तलाक की प्रथा को चुनौती देने वाली किसी महिला ने न तो इस्लाम के खिलाफ कुछ कहा और न ही कुरान के खिलाफ। वे इस्लाम और कुरान के हवाले से ही तीन तलाक की इस कुप्रथा को चुनौती दे रही थीं।
तीन तलाक के बाद बहुविवाह का मामला भी उठना अपरिहार्य है। इस्लाम में एक पुरुष को चार बीवियां रखने की इजाजत है। लेकिन इस प्रकार की इजाजत उसी हाल में दी जाती है, जब पुरुष अपनी चारों बीवियों के साथ एक प्रकार का व्यवहार कर सके। जिस समय यह व्यवस्था तैयार की गई थी, उस समय का समाज सरल था। जरूरतें सीमित थीं, और उन जरूरतों को देखते हुए यह शायद संभव था कि पुरुष अपनी चारों बीवियों के प्रति समान रवैया अपनाए, लेकिन आधुनिकता के साथ संबंधों में जटिलता आई हैं और जरूरतों में भी बहुलता आई है। ऐसे माहौल में क्या यह संभव है कि कोई पुरुष अपनी दो बीवियों के प्रति समान भाव रखता हुआ, दोनों को संतुष्ट रख सके? और यदि यह संभव नहीं है, तो फिर एक से ज्यादा शादी करने की इजाजत ही क्यों मिले?
मध्ययुग में पुरुष आपस में बहुत मारकाट किया करते थे। इसके कारण वे कम उम्र में ही मरते रहते थे, जिससे महिलाओं की संख्या समाज में ज्यादा हो जाया करती थी। यदि महिला ज्यादा हो और पुरुष कम तो, शायद एक पुरुष द्वारा एक से ज्यादा शादी करना सामाजिक जरूरत भी हो जाया करती थी। इसलिए तब शायद बहुविवाह प्रथा के लिए एक अतिरिक्त कारण मिल जाता था। पर आज हमारे देश में प्रति 1000 पुरुष के पीछे महिलाओं की संख्या 1000 से कम है। मुस्लिम समुदाय में भी यही स्थिति है। इसलिए एक से ज्यादा शादी करने का वह मध्ययुगीन तर्क खारिज हो जाता है।
अनेेक इस्लामी देशों में पुरुष द्वारा दूसरी शादी करने के पहले अपनी पहली बीवी की सहमति ली जाती है। अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान में भी बिना पहली बीवी की इजाजत के कोई दूसरी शादी नहीं कर सकता, लेकिन दुर्भाग्य से भारत की मुस्लिम महिलाओं को यह अधिकार प्राप्त नहीं है। मजहब के नाम पर उनका मुह बंद कर दिया गया है। यदि वे विरोध करें, तो उनके सामने तीन तलाक की तलवार लटकी रहती है। लेकिन अब तीन तलाके के असंवैधानिक घोषित होने के बाद बहुविवाह प्रथा के खिलाफ भी मुस्लिम महिलाएं मुखर हो जाएंगी। मुस्लिम समाज को बदलते हुए समय के साथ अपने को बदलना चाहिए और महिलाओं के बराबरी के अधिकार का सम्मान करना चाहिए। (संवाद)
तीन तलाक पर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
मुस्लिम समुदाय को समय के साथ बदलना चाहिए
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-08-24 02:59
मुस्लिम सुन्नी समुदाय में तीन तलाक देने के मसले पर आया सुप्रीम कोर्ट का फैसला ऐतिहासिक है। इसके कारण न केवल मुस्लिम महिलाओं को न्याय मिला है, बल्कि मुस्लिम समुदाय को भी एक अमानवीय परंपरा से छुटकारा पाने का मौका मिला है। इसे मुस्लिम समुदाय को सहर्ष स्वीकार कर लेना चाहिए। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट ने छह महीने तक तीन तलाक पर रोक लगा दी है और सरकार से कहा है कि इस बीच वह कानून लाकर इसपर पूर्ण पाबंदी का कानूनी प्रबंध करे। यदि यह सरकार कोर्ट द्वारा तय समयसीमा में कानून नहीं लाती है, तो सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई पाबंदी आगे भी जारी रहेगी।