बाद में तो उन्होंने एक असंभव को साधने में मदद की। यह था लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का साथ आना। लालू प्रसाद ने नीतीश कुमार और कांग्रेस से मिलकर मोदी-शाह के विजय रथ को रोक दिया और अपराजय होने के जो मिथक उनके साथ जोड़ा जाने लगा था उसे तोड़ा। क्या शरद यादव के नीतीश कुमार का साथ छोड़ देने और जद-यू के कुछ नेताओं को साथ लाने से विपक्षी एकता संभव हो पायगी? क्या विपक्ष मोदी-शाह की जोड़ी जो तिकड़म और प्रचार में विपक्ष के मुकाबले बीस पड़ती है, को हटा पाएगा? इन प्रश्नों का उत्तर सीधे-सीधे ‘हो’ में देना मुश्किल है। विपक्ष के साथ आने से जो राजनीतिक परिस्थिति बनेगी उसका सामना मोदी कर पाते हैं या नहीं, यह देश की परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।

अववल तेा शरद यादव के बाहर आने से बिहार में जो हताशा भाजपा विरोधी पार्टियों के बीच छा गई थी वह थोड़ी छंटी है। उन्होंने बिहार में जदयू के बैनर तले जो सभाएं की और गठबंधन के जीवित होने की बात कही उससे नीतीश कुमार का नैतिक पक्ष कमजोर हुआ। दिल्ली में शारद यादव का सम्मेलन और पटना में लालू की रैली ने माहौल बनाने में मदद की है।

नीतीश के विपक्षी खेमे से बाहर चले जाने को विश्वासघात के रूप में देखना एक निहायत कमजोर राजनीतिक तर्क है। असलियत यह है कि कांग्रेस विपक्ष का नेतृत्व करने में कमजोर साबित होती रही है। एक वजह यह भी है कि कंाग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गंाधी की छवि ऐसी बना दी गई है जैसे उनकी राजनीतिक हैसियत ही न हो। वास्तव में, यह मीडिया प्रचार से ज्यादा कुछ नहीं है। सच्चाई यह है कि कंाग्रेस में वह ही अकेले नेता हैं जो नई बातें सोच रहे हैं और उनके अंदाज में फरेबी और चालाकी नजर नहीं आती। सिर्फ वह अपनी नई टीम बनाने में कामयाब नहीं हो पाए हैं। राहुल जिस राजनीति का संकेत देते रहते हैं- गरीबोन्मुखी, कारपोरेट विरोधी और साफ-सुथरी-उसके लिए नीतियों तथा कार्यकर्ताओं का जो समर्थन उन्हें चाहिए वह उन्हें मिल नहीं पा रहा है। उनके साथ पी चिंदबरम और आनंद शर्मा जैसे नेता हें जिनका गरीबोन्मुखी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं हे। वे कारपोरेट घरानों और विश्व बैंक की लाबी के साथ घनिष्ठ रिश्ता रखते हैं। कंाग्रेस को पुरानी नीतियों और संबंधों से नाता तोड़ने का काम करना ही पड़ेगा, अन्यथा वह मोदी का विकल्प नहीं हो सकती है। राहुल ने सूट-बूट की सरकार‘ और ‘कारपोरेट समर्थक’ होने का आरोप प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा लगा कर कंाग्रेस को यह पहचान देने की भरसक कोशिश की थी।

नीतियों की इस दुविधा के कारण बिहार में महागठबंधन की जीत का फायदा उठाने में कांग्रेस विफल रही। उत्तर प्रदेश के चुनावों में तो उसने महागठबंधन के विचार को छोड़ दिया। पार्टी में निर्णय लेने के केंद्रीयतावादी तरीके से असम राज्य के गंवाने और गुजरात में शंकर सिंह वाघेला को बाहर धकेल कर पार्टी को कमजोर करने के उदाहरण सामने हैं। अपनी कमजोरियों के कारण महागठबंधंन को मजबूत करने और नीतीश कुमार को काबू में रखने का कोई तरीका कंाग्रेस नहीं निकाल पाई।

मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में कंाग्रेस की कमजोरी के साथ-साथ विपक्ष दूसरी समस्याओं से भी जूझ रहा है ओर मोदी पर हमले के लिए ताकत नहीं जुटा पा रहा है। उत्तर प्रदेश की बड़ी विपक्षी पार्टियां- समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी साथ आने को तैयार नहीं हंै। दोनों पार्टियां भयंकर अंदरूनी फूट से भी जूझ रही है। सपा में अखिलेश यादव को छोड़ कर किसी के बारे में यह पक्का नहीं है कि वह कब भाजपा के पक्ष में खुले आम खड़ा हो जाए। उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में बच्चों की मौत की घटना एक ऐसी घटना थी जिसे लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के खिलाफ बड़ी मुहिम चल सकती थी। योगी ने बजट में धार्मिक पर्यटन और गोरक्षा जैसे धार्मिक एजेंडों पर पैसा खर्च कर डाला और मेडिकल शिक्षा में आबंटन को आधा घटा दिया। इस मुद्दे को उठाने में विपक्ष कामयाब नहीं हो पाया।

उत्तर प्रदेश और बिहार के बाहर भी विपक्ष कोई मजबूत किलेबंदी नहीं कर पा रहा है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के साथ जाने के लिए माकपा तैयार नहीं है और तमिलनाडु में एआइडीएमके के धड़ों को जोड़ने के बाद भाजपा उनके सहारे अपने पैर फैलाने का प्रयास कर रही है।

माकपा की कमजोरी का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि उसने सीताराम येचुरी को राज्यसभा से बाहर रोक रखने का फैसला किया। इसने पश्चिम बंगाल को पहले गंवा चुकी है और अब राष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी बची हैसियत गंवाने के लिए तैयार है।

लेकिन विपक्ष के पक्ष में जाने वाली बात यह है कि प्रधानमंत्री मोदी ने विकास और गरीबों के उत्थान के जो वायदे किए थे उन्हें पूरा नहीं कर पाई है। रोजगार की स्थिति बहुत खराब है और देश आर्थिक मंदी के कगार पर है। सुशासन का जो दावा प्रचार माध्यमों के जरिए सरकार ने कर रखा था उसकी कलई भी रेल हादसे, गोरखपुर में बच्चों की मौत, राम-रहीम समर्थकों का हंगामा और गोरक्षकों के आतंक के कारण खुलने लगी है। तीन साल की कारपोरेट समर्थक और सांप्रदायिक नीतियों का नतीजा सामने आ रहा है। देश को विकल्प की जरूरत है। (संवाद)