हर प्रधानमंत्री अपनी मंत्रिपरिषद के गठन में आम तौर पर जातीय, क्षेत्रीय और गुटीय संतुलन, व्यक्तिगत निष्ठा आदि के साथ ही चुनावी राजनीति के तकाजों का पूरा ध्यान रखता है, लेकिन दावा योग्यता और अनुभव को तरजीह देने का ही किया जाता है। इस लिहाजा से नरेंद्र मोदी भी अपवाद नहीं हैं। उन्होंने भी इस बार के फेरबदल और विस्तार में कई मंत्रियों को इसी आधार पर मंत्रिपरिषद से बाहर का रास्ता दिखाया और नए चेहरों को मंत्री पद से नवाजा। कहने को तो यह प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है कि वे अपनी मंत्रिपरिषद में किसे रखे और किसे नहीं, लेकिन आमतौर पर व्यवहार में ऐसा होता नहीं है। इस बार के फेरबदल और विस्तार में मोदी की सीमाएं साफ नजर आईं जिनसे उनके सर्वशक्तिमान होने की छवि भी टूटी भले ही न हो पर दरक जरूर गई।
पिछले कुछ समय से जिस तरह केंद्र सरकार के प्रदर्शन को लेकर जिस तरह सवाल उठ रहे थे, उससे माना जा रहा था कि मंत्रिपरिषद में बदलाव करते समय अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने और योजनाओं में गतिशीलता लाने के मद्देनजर कुछ नए लोगों को लाया जाएगा और कुछ की जिम्मेदारियों में बदलाव किया जाएगा। मगर ताजा फेरबदल में यह मकसद नजर नहीं आता। बस कुछ पुराने मंत्रियों के विभाग बदल दिए गए और जिन नौ नए चेहरों को बतौर राज्यमंत्री शामिल किया गया, उनसे भी बहुत उम्मीद बंधती नजर नहीं आती। नौ में से चार राज्यमंत्री पूर्व नौकरशाह हैं। इनमें से भी दो- पूर्व राजनयिक हरदीप पुरी और पूर्व प्रशासनिक अधिकारी अल्फॉन्स कन्नाथम तो संसद के सदस्य भी नहीं हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि क्या भाजपा के भीतर काबिल नेताओं की कमी है, जो बाहर से नौकरशाहों को लाकर मंत्री बनाया जा रहा है। सवाल यह भी है कि क्या जिन लोगों के कामकाज से प्रधानमंत्री खुश नहीं थे या जिनके चलते सरकार के सामने मुश्किलें खड़ी होती रही है, उनके विभाग बदल देने भर से उनका प्रदर्शन बेहतर हो जाएगा!
देश की विकास दर (जीडीपी) घटी है। निर्यात में अभूतपूर्व गिरावट आई है। यानी सरकार के लिए अर्थव्यवस्था के अपने लक्ष्य तक पहुंचना कठिन हो गया लगता है। कालेधन और आतंकवाद की समस्या से निबटने के नाम पर की गई नोटबंदी की कवायद पूरी तरह फेल हो गई है। लेकिन इसके लिए वित्त मंत्री के नाते जिम्मेदार माने जाने वाले अरुण जेटली इस फेरबदल की कवायद से बिल्कुल अछूते रहे। गृह मंत्री के तौर पर राजनाथ सिंह का प्रदर्शन भी कतई संतोषजनक नहीं कहा जा सकता लेकिन प्रधानमंत्री उनकी जिम्मेदारी बदलने का साहस भी नहीं जुटा पाए। इसी तरह सीमा पर लंबे समय से लगातार तनाव का माहौल बना हुआ है। प्रतिरक्षा के मामले में चैकस रहने की जरुरत है। इसलिए निर्मला सीतारमण को वाणिज्य से हटा कर रक्षा मंत्रालय की जिम्मेदारी सौंपे जाने पर सवाल उठना भी स्वाभाविक ही है। सवाल इसलिए कि उनके वाणिज्य मंत्री रहते निर्यात दर में अभूतपूर्व गिरावट आई है। यानी वे बतौर वाणिज्य मंत्री अक्षम साबित हुई हैं। रक्षा मंत्रालय का काम वाणिज्य मंत्रालय से कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण है, इसलिए वे अपनी नई जिम्मेदारी में कितनी सफल साबित होगी, देखने वाली बात होगी। इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी का कामकाज असंतोषजनक ही नहीं बल्कि बेहद विवादास्पद रहा है। कपड़ा मंत्री रहते भी वे कोई उल्लेखनीय काम नहीं कर पाईं, अब उन्हें सूचना प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी सौपी गई है। वहां वे अपनी योग्यता कहां तक साबित कर पाती है, इस पर सवाल और संदेह होना स्वाभाविक है। पिछले कुछ समय में हुए बडे रेल हादसों और निरंतर महंगी, असुविधाजनक और असुरक्षित हो रही रेल यात्रा की वजह से सुरेश प्रभु के कामकाज को लेकर लोगों में असंतोष बना हुआ है, तो प्रधानमंत्री की महत्वाकांक्षी गंगा सफाई योजना श्नमामि गंगे’ को लेकर उमा भारती का कामकाज संतोषजनक नहीं रहा, मगर दोनों को ही उनकी जिम्मेदारी बदलकर मंत्रिपरिषद में बनाए रखने की प्रधानमंत्री की मजबूरी उनकी हनक फीकी पडने की गवाही देती है।
मंत्रिपरिषद के ताजा विस्तार में कुछ पुराने मंत्रियों को अक्षम बताकर बाहर कर उनकी जगह नए चेहरों को श्योग्यता’ और ‘अनुभव’ के नाम पर शामिल किया गया है। लेकिन इस पूरी कवायद को 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए सत्तारूढ दल की विशेष तैयारी के तौर पर ही देखा जा रहा है। मंत्रिपरिषद के तीसरे विस्तार में राज्यमंत्री के रूप में नौ नए चेहरों को जगह दी गई है, जबकि छह मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाकर उनकी श्क्षमताओं’ का उपयोग पार्टी संगठन के काम में लेने की बात कही गई है। पहले से काम कर रहे चार राज्यमंत्रियों- निर्मला सीतारमण, धर्मेंद्र प्रधान, पीयूष गोयल और मुख्तार अब्बास नकवी को पदोन्नति देकर उन्हें केबिनेट मंत्री बनाया गया है। चारों राज्यसभा के सदस्य हैं।
दरअसल प्रधानमंत्री मोदी द्वारा अपनी मंत्रिपरिषद में किए गए हर फेरबदल या विस्तार पर चुनावी तकाजों की छाया रही है। हर बार राज्य विधानसभाओं के चुनावों से पहले वे यही कवायद करते रहे हैं। जिन राज्यों में चुनाव हो चुके होते हैं वहां के अतिरिक्त या फालतू प्रतिनिधित्व को बाहर कर दिया जाता है और जहां चुनाव होने होते हैं उन राज्यों को कुछ अतिरिक्त प्रतिनिधित्व दे दिया जाता है, ताकि चुनाव जीतने में मदद मिल सके। इस बार भी ऐसा ही हुआ। अगले वर्ष मध्य प्रदेश, राजस्थान और कर्नाटक में विधानसभा चुनाव होने हैं, लिहाजा वहां के राजनीतिक तकाजों का भी पूरा ध्यान रखा गया है। मध्य प्रदेश से दलित समुदाय के वीरेंद्र खटीक को तथा राजस्थान से राजपूत समुदाय के गजेंद्र सिंह शेखावत को राज्यमंत्री बनाया गया है। इसी तरह कर्नाटक से बाहुबली की छवि वाले अनंत कुमार हेगडे को मंत्रिपरिषद में जगह देना ब्राह्मण मतदाताओं को रिझाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।
उत्तर प्रदेश और बिहार से जिन नए चेहरों को मंत्रिपरिषद में शामिल किया गया और जिन मंत्रियों को बाहर का रास्ता दिखाया गया है, उसका भी संबंध उनके कामकाज से ज्यादा 2019 के चुनाव के लिहाज से उनकी उपयोगिता से है। अन्यथा जिन्हें बाहर किया गया और बनाए रखा गया, उनमें कामकाज के लिहाज से कोई फर्क नहीं है। 120 लोकसभा सीटों वाले दोनों सूबों में चुनावी तैयारी के तहत जातीय समीकरणों को साधने के मकसद से ही चेहरों की अदला-बदल की गई है।
इस फेरबदल और विस्तार का एक अन्य अहम पहलू है- एनडीए में सहयोगी दलों की सिरे से उपेक्षा यानी उन्हें उनकी हैसियत का अहसास कराना। शिवसेना एनडीए में भाजपा की सबसे पुरानी सहयोगी है। उसे उम्मीद थी कि मंत्रिपरिषद के विस्तार में उसके प्रतिनिधित्व में बढोतरी होगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हाल ही में एनडीए के कुनबे में दोबारा शामिल हुआ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाला जनता दल (यू) भी केंद्र की सत्ता में अपनी हिस्सेदारी को लेकर उम्मीद लगाए बैठा था लेकिन हैसियत से ज्यादा हिस्सेदारी की मांग के चलते उसे भी निराश होना पडा। एक तरह से प्रधानमंत्री ने विस्तार और फेरबदल की पूरी कवायद को सिर्फ भाजपा तक ही सीमित रखते हुए सहयोगी दलों के दबाव को झटक कर यह संकेत देने की कोशिश भी की है कि भाजपा अपनी राजनीति का आगामी सफर अपने बूते ही जारी रखने में सक्षम है, इसमें किसी को शामिल होना हो तो वह बिना किसी शर्त या मोल-भाव के शामिल हो सकता है।
कुल मिलाकर मंत्रिपरिषद में फेरबदल और विस्तार की कवायद को महज रस्म अदायगी ही कहा जा सकता है जिसके तहत प्रधानमंत्री ने कुछ खाली पडे पदों को भरने तथा कुछ मंत्रियों को इधर से उधर करने का काम किया है। इस कवायद से सरकार के कामकाज में कोई गुणात्मक सुधार आएगा या आशाजनक नतीजे मिल सकेंगे, इसकी ज्यादा उम्मीद नहीं की जा सकती। मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस’ की बात तो अब शायद प्रधानमंत्री को याद भी नहीं होगी। (संवाद)
न तो मिनिमम गवर्नमेंट, न ही मैक्सिमम गवर्नेंस
प्रधानमंत्री के सर्वशक्तिमान होने की छवि टूटी
अनिल जैन - 2017-09-08 12:11
‘मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस!’ पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने अपनी लगभग हर चुनावी रैली में इस सूत्र वाक्य को दोहराया था। उनकी सरकार भी बन गई और उसने अपने कार्यकाल का दो तिहाई समय पूरा भी कर लिया। इस दौरान उन्होंने अपनी मंत्रिपरिषद का तीन मर्तबा विस्तार और फेरबदल भी कर लिया, लेकिन ‘मिनिमम गवर्नमेंट-मैक्सिमम गवर्नेंस’ वाला उनका सूत्र वाक्य भी महज चुनावी जुमला ही साबित हुआ। न तो वे अपनी सरकार का आकार छोटा रख पाए और न ही कामकाज के स्तर पर वैसे परिणाम दे पाए जिसका वायदा उन्होंने सत्ता में आने से पहले किया था। तीसरे विस्तार और फेरबदल के बाद अब उनकी मंत्रिपरिषद में उनके सहित 76 सदस्य हो गए हैं। यह संख्या निर्धारित सीमा से छह कम है, यानी अभी छह मंत्री और बनाए जा सकते हैं।