इस तरह का मौका बहुत ही कम आता है। यह हाल जुलाई महीने का है और इसी महीने से वस्तु एवं सेवा कर को लागू किया गया है। जाहिर है निर्यात पर अभी वस्तु और सेवा कर का प्रभाव नहीं पड़ा था। और जब उसका प्रभाव पड़ने लगेगा, तो निर्यात में कितनी कमी आएगी, इसका अनुमान लगाना अभी आसान नहीं है।

आर्थिक विकास दर में कमी और निर्यात की विकास दर में आई गिरावट एक दूसरे से जुड़े हैं। पिछले साल नवंबर महीने में 500 और 1000 रुपये के पुराने नोटों का विमुद्रीकरण इन दोनों मंे आई गिरावट के लिए जिम्मेदार है, लेकिन निर्यात में आई गिरावट के कुछ अन्य कारण भी हैं, जो विमुद्रीकरण के प्रभाव के समाप्त होने के बाद भी बने रह सकते हैं। सिले सिलाए कपड़े, चमड़ा उत्पाद और जेवर व गहने भारत के बड़े निर्यातों में से हैं और वे लगातार बदतर प्रदर्शन कर रहे हैं।

बांग्लादेश के निर्यात के विकास की कहानी सिले सिलाए कपड़ों के निर्यात से लिखी जा रही है। भारत भी इस सेक्टर में एक बड़ा स्थान रखता है, लेकिन इसकी निर्यात प्रतिस्पर्धा अब लगातार घटती जा रही है। आखिर ऐसा क्यांे हो रहा है? एक समय था, जब कपड़े और उसके उत्पादों के विदेशी व्यापार पर नियंत्रण था और भारत जैसे विकासशील देश विकसित देशों के कपड़ा बाजार पर कब्जा न कर लें, उसके लिए उनके लिए कोटा तय था। भारत के लिए भी कोटा तय कर दिया गया था। मल्टी फाइबर एरेंजमेंट के समाप्त हो जाने के बाद यह कोटा समाप्त हो गया है। उम्मीद की जा रही थी कि कोटा समाप्त होने से भारत को लाभ होगा, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। इसका मतलब है कि भारत प्रतिस्पर्धी माहौल में इस सेक्टर में व्यापार कर पाने में अपने को कमजोर पा रहा है, जबकि बांग्लादेश जैसा इसका पड़ोसी देश इससे आगे है।

इसका एकमात्र कारण यही है कि हमारे देश में उत्पादन लागत अभी भी ज्यादा बनी हुई है। मजदूरी की दर तो ज्यादा नहीं है, लेकिन हम इसके बावजूद उच्च लागत की अर्थव्यवस्था बने हुए हैं और अंतरराष्ट्रीय बाजार मे वही टिक सकता है, जो अपने लागत खर्च को कम कर सके। भारत की कर व्यवस्था भी उच्च लागत दर के लिए जिम्मेदार रही है, हालांकि भारतीय निर्यातकों को अनेक प्रकार के कर बाद में वापस कर दिए जाते हैं, लेकिन महकमे में भ्रष्टाचार होने के कारण निर्यातकों को अपने कर वापस पाने में खासी मशक्कत करनी पड़ती है और इसका लाभ भी सही लोगों तक नहीं पहुंच पाता।

जीएसटी के द्वारा करों का सरलीकरण किया गया है, लेकिन सक्रांतिकाल निर्यातकों के लिए भारी पड़ने वाला है। जुलाई में निर्यात राजस्व में रुपये की ईकाई में दर्ज की गई गिरावट आने वाले महीनों मंे जारी रह सकती है, क्योंकि जीएसटी की सक्रांतिकाल की जटिलताओं से निर्यातकों को जूझना पड़ रहा है। पहले निर्यातक अपने निर्यात करने वाले आइटम के इनपुट का आयात करते थे, तो उन्हें आयात शुल्क नहीं देना पड़ता था। पर नई जीएसटी व्यवस्था में उनके आयात शुल्क देना पड़ेगा, जो बाद में उन्हें वापस कर दिए जाएंगे। निर्यातक इस व्यवस्था से बहुत नर्वस हैं, क्योंकि वापसी तो बाद में होगी और उत्पादन के समय उसे ज्यादा पूंजी की जरूरत पड़ेगी। इसके अतिरिक्त आने वाले कुछ समय में वे विदेशी बाजारों की खोज से ज्यादा नई जीएसटी व्यवस्था से अपना सामंजस्य बनाने में लगे रहेंगे। जाहिर है कि अगले कुछ महीनों में निर्यात राजस्व प्राप्ति के मोर्चे पर भारत को और भी विफलता का सामना करना पड़ सकता है।

रुपये का मजबूत होना राष्ट्रीय दृष्टिकोण से गौरव की बात होती है, लेकिन निर्यातक इसे कभी भी पसंद नहीं करते। पिछले कुछ समय में रुपया 7 फीसदी मजबूत हो गया है और इसके कारण निर्यातको ंकी रुपये की ईकाई में आय कम हो गयी है। यही कारण है कि जुलाई महीने में डाॅलर की ईकाई में तो 3 फीसदी की वृद्धि देखी जा सकती है, जो पहले से बहुत कम है, लेकिन रुपये की ईकाई में तो निर्यात में ही गिरावट आ गई है। इसलिए मजबूत होता रुपया हमारे निर्यातकों के लिए सिरदर्द साबित हो रहा है, लेकिन रुपये को लगातार गिरने भी नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इसके कारण रुपये की ईकाई में विदेशी कर्ज बढ़ने और आयात महंगा हो जाने जैसी अन्य समस्याएं पैदा हो जाती हैं।

सुरेश प्रभु को रेल दुर्घटनाओं के कारण अब रेल मंत्रालय से हटाकर वाणिज्य मंत्री बना दिया गया है, लेकिन यहां भी उनके लिए चुनौतियां कम नहीं है। जीएसटी और मजबूत रुपये की चुनौती से जूझ रहे निर्यातकों को राहत पहुंचाना और संस्थागत बदलाव लानेकी चुनौती उनके सामने है।

निर्यातकों की सबसे बड़ी चुनौती आमतौर पर विदेशी बाजारों में अपने पैर जमाने की होती है, लेकिन भारतीय निर्यातकों की सबसे बड़ी समस्या अपने ही देश मे उत्पादन करने की होती है। हमारे बड़े बड़े निर्यातक उत्पादन खुद उत्पादन कम करते हैं और अन्य छोटे छोटे उत्पादकों का माल खरीदकर विदेशी बाजार में खपाने का काम ही मुख्य तौर पर करते हैं। उत्पादन का यह काम लघु उद्योग सेक्टर में ज्यादातर होता है, लेकिन नई आर्थिक नीतियों के तहत उनको मिलने वाला संरक्षण बहुत कम होता गया है। उनके प्रोत्साहन को बढ़ाने की जरूरत है। यदि उस स्तर पर उत्पादन लागत कम हो, तो उससे निर्यात भी बढ़ेगा और उसका फायदा निर्यात करने वाले व्यापारी ही नहीं उठा सकेंगे, बल्कि उत्पादक भी उठा सकेंगे।

निर्यात के लिए उत्पादन करने वाला सेक्टर रोजगार पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाता है। उसे मजबूत बनाकर ही बेरोजगारी की समस्या को भी कुछ हद तक दूर किया जा सकता है और भारत विदेशी बाजारों मे अपनी उपस्थिति दर्ज कर सकता है। (संवाद)