इस बार हो रहे मंत्रिपरिषद विस्तार और फेरबदल से उन सहयोगियों को तो उम्मीद थी ही, जिन्हें सरकार में जगह नहीं मिल पाई है और जिन्हें जगह मिली हुई है, वे भी अपनी संख्या बढ़ने की उम्मीद कर रहे थे। लेकिन उन्हें विस्तार में शामिल करना तो दूर, उनकी शिकायत है कि विस्तार करने के पहले उनसे इसके बारे में पूछा तक नहीं गया।

भारतीय जनता पार्टी का अपने सहयोगियों से संबंध बहुत सुगम नहीं रह पा रहा है। शिवसेना, अकाली दल और तेलुगू देशम जैसी पार्टियां अपने साथ सही बर्ताव नहीं किए जाने की शिकायत कर रही हैं। शिवसेना की तो 2014 की विधानसभा चुनाव के समय से ही भाजपा के साथ ठनी हुई है। उस साल महाराष्ट्र में विधानसभा का चुनाव हुआ है। उसमें दोनों में सीटों का गठबंधन नहीं हो सका था और चुनावी नतीजे भाजपा के पक्ष में आए थे। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और शिवसेना से उसे बहुत ही ज्यादा सीटें आई थीं। पर बाद में शिवसेना भाजपा के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल हो गई।

शिवसेना भाजपा की एकमात्र ऐसी सहयोगी पार्टी है, जो लगातार उसकी आलोचना करती रहती है और अनेक बार वह अपना स्वतंत्र राजनैतिक निर्णय लेती है। इस बार हुए मंत्रिपरिषद के विस्तार पर भी उसने तीखी टिप्पणी की है। उसकी शिकायत है कि भाजपा उसके साथ सलाह मशविरा नहीं करती। शिवसेना के प्रवक्ता संजय राऊत का कहना है कि लोकसभा में अपना बहुमत होने के कारण भाजपा को घमंड हो गया है, इसलिए महत्वपूर्ण मसले पर भी वह किसी अन्य सहयोगी से बातचीत तक नहीं करती।

जनता दल(यू) का भी यही कहना है। वह भी राजग का पुराना घटक है, हालांकि कुछ सालों तक यह उससे बाहर भी रहा, पर पिछले दिनों वह फिर राजग में लौट आया है। राजग में लौटने के पहले उसकी भाजपा के समर्थन से सरकार भी बनी है। इस मंत्रिपरिषद विस्तार से उसे भी बहुत उम्मीदें थीं।

राजग में शामिल होने के बाद उसे लग रहा था कि उसे भी केन्द्र सरकार में शामिल किया जाएगा। उसके सांसद मंत्री बनने के लिए बहुत लालायित दिखाई पड़े और अंत अंत तक मंत्री बनाए जाने का आमंत्रण पाने के लिए आस लगाए रहे, लेकिन उन सबको निराशा हाथ लगी। उन्हें मंत्री बनने के लिए आमंत्रित नहीं किया गया। आमंत्रित करने की बात तो दूर, उनसे विस्तार के पहले बातचीत भी नहीं की गई। उन्हें इस बात का संकेत भी नहीं दिया गया कि उन्हें मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं किया जाएगा।

यही कारण है कि जिस तरह की शिकायत शिवसेना कर रही है, उसी तरह की शिकायत जनता दल(यू) भी कर रहा है। उसके प्रधान महासचिव के सी त्यागी का कहना है कि यह भाजपा पर निर्भर करता है कि वह अपने सहयोगियों से सलाह मशविरा करे या नहीं। उनका मानना है कि भाजपा को लोकसभा में बहुमत प्राप्त है और इसके कारण वह सहयोगियों से बातचीत करने की जरूरत नहीं समझती।

तमिलनाडु के आॅल इंडिया अन्ना डीएमके को भी मंत्रिविस्तार से उम्मीदें थीं और उसे लग रहा था कि उसके दो सांसदों को मंत्री बनाया जाएगा, लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ। वे भी इंतजार करते रहे।

इस समय राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का कोई संयोजक नहीं है। एक समय था, जब इसके संयोजक जाॅर्ज फर्नांडीज हुआ करते थे। बाद में शरद यादव बने। जनता दल(यू) की राजग में वापसी के बाद नीतीश कुमार को लग रहा था कि वे इसके संयोजक बन जाएंगे। उधर चन्द्र बाबू नायडू के संयोजक बनने की संभावना भी कुछ लोग देख रहे थे। लेकिन वैसा कुछ नहीं हुआ और न ही वैसा होने की कोई संभावना दिखाई दे रही है। (संवाद)