लगभग वही नजारा जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रसंघ चुनाव नतीजों के निकलने के समय देखा गया। वहां वाम एकता के उम्मीदवार सभी सीटों पर जीत रहे थे और भाजपा की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के उम्मीदवार तीसरे स्थान पर खिसक गए थे। जीत रहे उम्मीदवारों से तो वे बहुत पीछे हो गए थे और वे ज्यादा से ज्यादा दूसरे स्थान पर आने की उम्मीद कर सकते थे। एक जातिवादी गठजोड़ के उम्मीदवार दूसरे स्थान पर चल रहे थे। हार तो वहां भाजपा के छात्रों को निश्चित थी, लेकिन गिनती के अंत अंत तक वे दूसरे स्थान पर आने में सफल रहे।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय भारतीय जनता पार्टी का गढ़ कभी नहीं रहा, लेकिन पिछले कुछ सालों मे वहां उसकी उपस्थिति बढ़ रही है। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वहां बहुत ही आक्रामक तरीके से अपना विस्तार कर रही है। उसकी आक्रमकता वहां न केवल हिंसा का रूप ले रही है, बल्कि कुछ छात्रों पर तो राजद्रोह के मुकदमे तक लगा दिए गए। केन्द्र की सरकार और दिल्ली पुलिस ने भी उनकी आक्रामकता को प्रश्रय दिया और परिषद विरोधी छात्रों के साथ ज्यादती की गई। विश्वविद्यालय प्रशासन ने भी परिषद विरोधी छात्रों के साथ ज्यादती करने में कंजूसी नहीं दिखाई। एक छात्र नजीब तो परिषद के कुछ छात्रों के साथ हुई मारपीट के बाद अब तक लापता ही है।

भाजपा को लग रहा था कि इस बार वह कुछ सीटें तो वहां जीत ही लेंगी। लेकिन उसे भारी निराशा हाथ लगी और जितने मत उसे पिछले साल आए थे, उतने मत भी इस बार उसे हासिल नहीं हो सके। भाजपा ने वहां जीत हासिल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी थी। वाम एकता भी वहां अधूरी ही थी, क्योंकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की छात्र ईकाई दो केन्द्रीय पैनल के पोस्ट पर अलग से लड़ रही थी। आॅल इंडिया स्टूडेंट्स फेडरेशन की उम्मीदवार को भी अच्छे खासे मत मिल गए थे, लेकिन वाम फूट का लाभ भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को नहीं मिला।

बवाना और जनेवि मे हार के बाद भाजपा को सबसे बड़ा झटका दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के चुनाव में लगा। उसके पहले दिल्ली शिक्षक संघ के चुनाव में भी भाजपा शिकस्त खा चुकी थी। उस चुनाव में वामपंथी शिक्षकों के संगठन ने जीत दर्ज की थी और तमाम कोशिशों और सत्ता के लालच से शिक्षकों को अपनी ओर अच्छी खासी संख्या में जुटाने के बावजूद भी भारतीय जनता पार्टी की वहां हार हो गई थी। शिक्षक संघ चुनाव में हार के बाद भारतीय जनता पार्टी की छात्र शाखा अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की छात्र संघ चुनाव में भी दुर्गति हो गई।

कहने को तो भाजपा कह सकती है कि उसकी छात्र ईकाई ने चार में से दो सीटों पर जीत हासिल करके मामला बराबरी पर ला दिया, लेकिन यह कथित बराबरी भी उसकी हार ही है, क्योंकि पिछले 4 सालों से लगातार उसी की वहां जीत हो रही थी। जब से कांग्रेस के बुरे दिन शुरू हुए हैं, तब से भाजपा के अच्छे दिन दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ में चल रहे थे। कांग्रेस के बुरे दिन तो अभी भी समाप्त नहीं हुए हैं। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में उनके उम्मीदवारों को नोटा से भी कम वोट मिले थे। अध्यक्ष पद पर चुनाव लड़ रही उम्मीदवार को तो 100 वोट भी नहीं मिले थे, लेकिन कांग्रेस की उसी छात्र शाखा एनएसयूआई के उम्मीदवारों के हाथों अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष और उपाघ्यक्ष उम्मीदवार पिट गए।

कांग्रेस की बुरी स्थिति के बावजूद दो पदों पर उसके दो छात्रों की जीत वास्तव में भाजपा विरोधी मतों के कारण संभव हो सकी थी। चूंकि वहां वही संगठन भाजपा को हरा सकती थी, इसलिए भाजपा को हराने के लिए प्रतिबद्ध छात्रों ने कांग्रेस के छात्रों को ही मत दिए। वैसे वामपंथी छात्र संगठनों के मतो को मिला दिया जाय, तो उन्हें भी करीब 11 से 12 हजार मत मिले। यदि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की तरह वह यहां भी मिलकर लड़ते तो चुनाव जीत भी सकते थे।

बहरहाल हार भाजपा की हुई है और दिल्ली की इन हारों से उसके नेताओं के चेहरे पर जरूर सिकन पड़ रही होगी। इसका कारण है कि भाजपा युवकों को पार्टी से जोड़ने के लिए बहुत कोशिश कर रही है। प्रधानमंत्री अपने भाषणों में युवाओं का बार बार जिक्र करते हैं और विश्वविद्यालयों में भाजपा की आक्रामकता के पीछे का राज यही है कि वहां पैठ जमाना वह अपनी राजनीति के लिए आवश्यक मानती है। लेकिन इन दोनों विश्वविद्यालयों में छात्रों के बीच भाजपा के खिलाफ दिख रही बेरुखी का संदेश स्पष्ट है कि युवाओं पर भाजपा की पकड़ मजबूत होने की बजाय कमजोर पड़ती जा रही है। दिल्ली के इन दो विश्वविद्यालयों के पहले असम, राजस्थान और पंजाब विश्वविद्यालय में भी भाजपा की छात्र शाखा को हार का मुह देखना पड़ा था। जाहिर है, विश्वविद्यालयों में अपनी पैठ बढ़ाने की रणनीति भाजपा के लिए नुकसानदेह साबित हो रही है। (संवाद)