वर्तमान में केन्द्र में एनडीए सरकार का पूर्ण बहुमत है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का वजूद है एवं इसे 2019 के लोकसभा चुनाव के नजरिये से भी आंका जा रहा है पर संसद में इसका वास्तविक स्वरुप क्या हो पायेगा ? जहां इस तरह के प्रसंग आज तक अप्रासंगिक होते रहे है, क्या प्रासंगिक हो पायेंगे , कह पाना मुश्किल है। इसके वास्तविक कारणों को जानने के लिए, इससे जुड़े तथ्यों को परखना बहुत जरूरी है। जिसके कारण महिला आरक्षण का मुद्दा आज तक अप्रासंगिक स्वरूप धारण करता रहा है।
देश में जब कभी संसद का नया सत्र शुरू होता है, हर बार जोर-शोर से महिला आरक्षण का मुद्दा उछलता नजर आता है तथा तत्काल ही स्वहित परिधि में उठे मुक्त कंठ से एक स्वर के नीेचे दबकर टांय-टांय फिस्स हो जाता है। इस तरह का अर्थहीन क्रम कई वर्षों से यहां चल रहा है। स्वार्थ की परिधि में घिरे परिवेश के तहत इसे अमल में होने का स्वरूप कहीं दूर-दूर तक नजर नहीं आता दिखाई देता है। जहां आज यह स्परुप उभर कर सामने आया है ,वहां इसकी जो स्थिति दिख रही है, वह महिला आरक्षण के स्वरूप को अभी तक विकृृत ही करती पाई गई हैं । इस दिशा में पंचायती राज्य के उभ्रते स्वरूप को देखा जा सकता है। ंजहां आरक्षित महिला प्रत्याशी पर आज भी पुरुष वर्ग ही हावी है। यदि इसी तरह के हालात संसद में पारित महिला आरक्षण पर उभर कर सामने आये, तो इस तरह के मुद््दे की प्रासंगिकता का क्या स्वरुप होगा ? विचारणीय पहलू है?
लोकतंत्र में जनप्रतिनिधि ही सर्वेसर्वा होता है। शासन की बागडोर उसके हाथ में होती है। राजतंत्र बनाम लोकतंत्र में जनता द्वारा चुना गया प्रतिनिधि जनसेवक न होकर राजतंत्र के राजा की तरह सुख, सुविधा एवं शक्ति का धारक बन गया है। जनप्रतिनिधि बनते ही वह अपने आपको आम जनता से अलग समझने लगता है तथा प्राप्त सुविधाओं के बीच लोकतंत्र की मर्यादा को भूल जाता है। इस दौरान मिली सुविधाओं एवं संचित धन व शक्ति का मोह इस तरह के परिवेश से उसे अलग कर ही नहीं पाता। जिसके कारण भारतीय लोकतंत्र में नेतृत्वधारी कुर्सी से सदा जीवन भर चिपका रहना चाहता है। इस प्रक्रिया में आयु की सीमा कहीं आड़े नहीं आती, जिसके कारण कब्र में लटके पांव में भी नेतृत्व को पकड़े रहने की चाहत सदा बनी देखी जा सकती है। इस मोह में फंसे नेतृत्व के बीच कोई आड़े आये, यह भी स्वीकार्य नहीं। महिला आरक्षण का मुद्दा निश्चित रूप से इस दिशा में बंदर बांट की स्थिति पैदा करता है। जिसकी गाज किसी न किसी नेता पर अवश्य गिरती, जो यहां के वर्तमान सुविधाभोगी नेतृत्वधारियों को कभी स्वीकार्य नहीं होगा। जिसके कारण इस तरह मुद्दे आज तक सर्वसम्मति से अमान्य होते रहे हैं। आज लोकतंत्र के बीच आज तक जिन लोगों का वर्चस्व नेतृत्व के माध्यम से बना हुआ है वे किसी भी तरह का संकट मोल नहीं लेना चाहते, जिससे उनके वर्चस्व को चुनौती मिले। महिला आरक्षण निश्चित रूप से उनके वर्चस्व को चुनौती दे रहा है, जिसके कारण प्रदेश एवं देश की राजनीति के बीच इस तरह के मुद्दे गौण होते जा रहे हैं।
जहां तक आरक्षण के इतिहास को देखे तो इसका भी यहां राजनीतिकरण ही हुआ है। पंचायती राज में इसके दुरूपयोग की तस्वीर साफ-साफ देखी जा सकती है। महिला आरक्षित सीटों पर प्रायः पूर्व नेतृत्वधारी परिवार का ही कब्जा ऐन-केन-प्रकारेण देखा जा सकता है। सरपंच, प्रधान, अध्यक्ष पदों पर विराजमान महिलाओं के निर्णय की डोर आज भी पूर्व नेतृत्वधारी इनके पति, जेठ, ससुर के हाथ दिखाई देती है, जिससे इस आरक्षण का कोई सीधा लाभ महिला वर्ग को मिल पाया हो, ऐसा भारतीय परिवेश में नजर नहीं आता है। जिसके कारण इस क्षेत्र में महिला आरक्षण का मुद्दा प्रभावहीन होकर अप्रासंगिक स्वरूप ही धारण करता जा रहा है, जहां महिला आरक्षण का वास्तविक स्वरूप उजागर नहीं हो पा रहा है।
जहां तक लोकसभा में महिला आरक्षण की उठी आवाज को अमल में लाने में स्वार्थपूरित पूर्व में जो सुझाव उभरकर पूर्व में सामने आते रहे हैं, राष्ट्र पर अनावश्यक बोझ बनते नजर आ रहे हैं जिसे राष्ट्रहित में कदापि नहीं माना जा सकता। स्वार्थ में लिप्त नेतृत्वधारियों की ओर अपने वर्चस्व के बीच महिलाओं की हिस्सेदारी प्रदान कर लोकसभा की सीटें बढ़ाने का भी जो सुझाव पूर्व में इस दिशा में रहा है, देश को अनावश्यक आर्थिक बोझ तले डालकर गलत नेतृत्व की एक और परंपरा से जोड़े जाने का कुत्सित समायोजित चाल की पृष्ठभूमि तैयार कर रहा है। जहां महिला आरक्षित पदों पर भी नेतृत्वधारियों का ही कब्जा पंचायती राज की तरह होता दिखाई दे रहा है। जिसे लोकतंत्र एवं राष्ट्रहित में सही कदम कभी नहीं माना जा सकता। राष्ट्रहित में जरूरी है कि इस नजरिये को स्वार्थ की परिधि से दूर कर स्वयंभू नेताओं की राजनीति से बचाकर महिला आरक्षण लागू करने की ऐसी प्रक्रिया अमल में लाने पर विचार किया जाय जहां सही रूप में महिलाओं का वास्तविक अधिकार मिल सके। लोकतंत्र में शासन की बागडोर जनप्रतिनिधियों के हाथ होती है। महिला एवं पुरूष दोंनो की सही भागीदारी इस दिशा को सकारात्मक रूप दे सकती है। महिला आरक्षण का मुद्दा गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि से अलग होकर ही जीवन्त पक्ष को साकार कर सकता है। इस पर की जा रही विभिन्न प्रकार की राजनीति इस तरह के गंभीर मुद्दे को अप्रासंगिक बनाते जा रहे हैं। जिस पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में महिला आरक्षण संबंधित विधेयक पूर्व की भाॅति इस बार भी स्वार्थपूर्ण परिवेश के बीच उलझकर सामने न आ जाय जिसे संसद पटल तक पहुंचना भी काफी मुश्किल प्रतीत होने लगे। इस तरह के उभरते परिवेश पर मंथन करना बहुत जरूरी है । नारी को अबला नहीं सबला की पहचान बनाकर इसके वास्तविक स्वरूप को उजागर किया जाना जरूरी है। (संवाद)
अप्रासंगिक बन चुका है महिला आरक्षण का मुद्दा
क्या शीत्र सत्र में पास हो पाएगा यह?
भरत मिश्र प्राची - 2017-09-21 12:08
जब जब इस देश में संसदीय सत्र शुरू होता है हर बार महिला आरक्षण का मुद््दा जोर - शोर से उछलता है, पर पुरूष प्रधान लाॅबी वाले इस देश में टाॅय - टाॅय फिस हो जाता है। इस बार फिर शीतकालीन सत्र से पूर्व वर्तमान केन्द्र की नरेन्द्र मोदी के नेतृृत्व में एन.डी. ए.. सरकार द्वारा संसद में महिला आरक्षण का मुद््दा लाने व इसे पारित कराने की चर्चा जोर - शोर पर है। उसे संसद में पारित कराने का पूर्व में कांग्रेस की ओर से भी पूरी कोशिश जारी रही एवं श्रीमती सोनियां गांधी द्वारा महिला दिवस पर पूर्व से ही इसे उपहार के रुप में जानने के क्रम में संसद में पूर्ण बहुमत वाली कांग्रेस से इस बिल को संसद में पारित हो जाने की पूरी उम्मीद भी की जा रही थी पर उस समय भी पुरुष लाॅबी स्वयं भूपरिवेश के कारण बिल पारित न हो सका और आज तक यह मुद्दा अप्रासंगिक बना हुआ है।