भाजपा की जीत के बाद उसके विरोधी नेताओं ने नोटबंदी के खिलाफ बोलना बंद कर दिया। वे जनता के मूड को देखकर बोलते हैं। उन्हें महसूस हुआ कि तमाम परेशानियों के बावजूद जनता का मूड नोटबंदी के पक्ष में है। इसलिए उन्होंने इसके खिलाफ बोलना बंद कर दिया। बस कुछ अर्थशास्त्री टाइप के लोग अपनी बातों पर अड़े रहे और कहने लगे कि सरकार के लिए नोटबंदी अच्छी राजनीति हो सकती है, लेकिन यह देश की अर्थव्यवस्था के लिए बुरी अर्थनीति थी।
लेकिन अब एक बार फिर नोटबंदी को लेकर सरकार को घेरा जा रहा है। जिन नेताओं ने उत्तर प्रदेश के नतीजों के बाद नोटबंदी को एक समाप्त हो गया राजनैतिक मसला मान लिया था, वे अब फिर पुरानी सुर में सुर मिलाने लगे हैं। अब ये राजनीतिज्ञ फिर एक बार अर्थशास्त्री की भूमिका में आने लगे हैं। खासकर, यह तब हो रहा है जब भारतीय रिजर्व बैंक ने यह स्वीकार कर लिया है कि अवैध घोषित किए गए 99 फीसदी नोट उसके पास वापस आ चुके हैं। अभी पड़ोसी देशों से कुछ और भी नोट आने वाले हैं। इसलिए यह मान लिया गया है कि लगभग सारे नोट वापस आ गए हैं।
प्रधानमंत्री और उनकी तरह देश के करोड़ों लोगों का उम्मीद थी कि करीब 3 लाख करोड़ रुपया रिजर्व बैंक में वापस नहीं आएगा। इस तरह उतना काला धन समाप्त हो जाएगा और वह सरकार के खजाने में रिजर्व बैंक द्वारा वापस आ जाएगा। यही कारण है कि इसे काले धन पर किया गया अबक का सबसे बड़ा हमला माना गया था। सरकार ने काले धन के मालिकों को प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना के तहत अपना धन सफेद करने का भी एक विकल्प दिया था, जिसके तहत करीब 50 फीसदी धन उनको वापस कर दिया जाना था। लेकिन उस योजना पर भी लोगों ने ध्यान नहीं दिया और काले धन को सफेद करने के उन्होंने अन्य तरीके अपना लिए। इस तरह काला धन पर हमला विफल रहा और हमले के शिकार ज्यादातर वे लोग हो गए, जो काले धन के स्वामी नहीं थे, बल्कि वे तो काले धन की समानान्तर अर्थव्यवस्था के पीड़ित थे।
अर्थव्यवस्था से संबंधित आ रहे अन्य नकारात्मक आंकड़े भी नोटबंदी को एक बड़ा राजनैतिक मुद्दा बनाने के लिए राजनीतिज्ञों को प्रेरित कर रहा है। विकास दर गिर रही है। इसके लिए वे नोटबंदी को जिम्मेदार बता रहे हैं। निर्यात भी गिर रहा है। इसका ठीकरा भी नोटबंदी के सिर पर ही फोड़ा जा रहा है। मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर कमजोर पड़ रहा है। उसके लिए भी उसे ही जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। जीएसटी को अमल के लाने के कारण भी शुरुआती समस्याएं आनी ही आनी हैं। देश के ज्यादा लोग तो जीएसटी को उतना नहीं जानते जितना नोटबंदी को जानते हैं। इसलिए जीएसटी के क्रियान्यवन से जनित समस्याओं के लिए भी नोटबंदी को ही जिम्मेदार ठहराया जाने वाला है। यानी अब अगले कुछ समय देश की अर्थव्यवस्था मंे जो भी कमियां दिखाई देंगी, चाहे वे किसी भी कारण से हों, उसके लिए मोदी सरकार के नोटबंदी फैसले को जिम्मेदा ठहराया जाएगा।
सवाल उठता है कि क्या वास्तव में नोटबंदी पूरी तरह विफल रही? ऐसा कहना सच भी नहीं होगा, क्योंकि नोटबंदी के फैसले के घोषित उद्देश्य भले विफल हो गए हों, लेकिन कुछ तो हासिल हो ही गया है। इसका सबसे सकारात्मक असर यह रहा है कि इसके कारण करीब 30 फीसदी काले धन उनके मूल मालिकों की जेब से निकलकर दूसरे लोगों के पास चला गया है। एक अनुमान के अनुसार काले धन को सफेद करने में करीब 30 फीसदी का खर्च हुआ और वह राशि उन लोगों के पास गई, जो आर्थिक रूप से कमजोर थे। यानी धन का पुनर्बटवारा हुआ, जिससे देश का गरीब तबका भी लाभान्वित हुआ। जनधन योजना वाले खातों में भी हजारों करोड़ रुपये पहुंच गए और उनका एक हिस्सा उन खातों के मालिकों को भी मिला। इसलिए आंशिक रूप से ही सही, लेकिन धन का फिर से बंटवारा हुआ और उसका लाभ आपेक्षिक रूप से कमजोर आर्थिक हैसियत रखने वालों को हुआ।
कुछ और फायदे हुए, जिसे वित्तमंत्री और सरकार के अन्य लोग बता रहे हैं, हालांकि उन फायदों के लिए इतनी बड़ी कीमत चुकाने को शायद हम न्यायसंगत नहीं मानें। लेकिन फिर भी यदि डिजिटल पेमेंट को बढ़ाकर हम लेस कैश की अर्थव्यवस्था की ओर बढ़ रहे हैं, तो इसे हम अनदेखा नहीं कर सकते। अनेक लोगों ने अपने काले धन बैंकों में जमा करा दिए हैं। अब आयकर विभाग की जिम्मेदारी है कि सरकार की नीतियों के तहत उस काले धन पर टैक्स लगाकर सरकारी खजाने में लाए। लेकिन उसकी अपनी एक प्रक्रिया है और उसमें समय लगेगा। इसमें दो से तीन साल या उससे भी ज्यादा का समय लग सकता है। इसलिए हम कह सकते हैं कि जितनी उम्मीदें थीं वे तो पूरी नहीं हुईं, लेकिन यह पूरी तरह व्यर्थ भी नहीं गया। (संवाद)
नोटबंदी पर अब फिर विपक्षी हमला तेज
क्या यह पूरी तरह विफल हो गई है?
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-10-07 11:24
उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजे आने के बाद विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने नोटबंदी पर सरकार के खिलाफ बोलना बंद कर दिया था। उस चुनाव में इसे विपक्ष ने अपना सबसे बड़ा चुनावी मुद्दा भी बनाया था। लोगों को नोटबंदी के दौरान काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा था। 100 से ज्यादा लोग लाइन में खड़े खड़े मारे गए। अनेक बैंककर्मियों की काम के दबाव के तहत मौत हो गई। कई शादियां रुक गईं और कई फीकी हो गईं। अनेक लोग बेरोजगार हो गए और अनेक लोगों को अपनी मजदूरी नहीं मिल पाई। कई धंधें बंद हो गए। इसलिए विपक्षी पार्टियों को लग रहा था कि चुनावी मुद्दा बनाकर वह उत्तर प्रदेश और पड़ोसी उत्तराखंड में भाजपा को सत्ता में आने से रोक सकती हैं। पर हुआ बिल्कुल उल्टा। दोनों राज्यों मंे भारतीय जनता पार्टी की अभूतपूर्व जीत हुई। सच कहा जाय तो दोनों राज्यों में किसी भी पार्टी की उतनी बड़ी जीत हुई ही नहीं जितनी बड़ी 2017 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हुई।