आखिर यह माहौल कैसे बनने लगा कि भाजपा के लिए गुजरात को चुनाव चुनौती भरा क्यों साबित होने लगा है? तो यह संदेश भारतीय जनता पार्टी के कारण ही फैल रहा है। उसकी केन्द्र और गुजरात में सरकार है और उन सरकारो ने निर्वाचन आयोग पर दबाव बनाकर हिमाचल प्रदेश के साथ चुनाव तिथियों की घोषणा नहीं होने दी। यह भारत के चुनावी इतिहास में पहली बार हो रहा है कि किसी राज्य के चुनाव के वोटो की गिनती की तारीख तो बता दी गई है, लेकिन यह नहीं बताया गया है कि वोट कब डाले जाएंगे और प्रत्याशी कब नामांकन करेंगे।
कायदे से गुजरात और हिमाचल प्रदेश की चुनावी तारीखें एक साथ ही घोषित होनी चाहिए थीं। ऐसा पिछले तीन चुनावों से लगातार हो रहा है। 2002, 2007 और 2012 के विधानसभा चुनाव दोनों राज्यो में लगभग एक समय ही हुए हैं और दोनो की तारीखे साथ साथ घोषित हुई हैं, लेकिन इस बार सिर्फ हिमाचल प्रदेश के चुनावों की तारीखें घोषित की गई। वहां मतदान 9 नवंबर को होंगे और मतगणना 18 दिसंबर को। दिलचस्प बात यह है कि निर्वाचन आयोग कह रहा है कि 18 दिसंबर के पहले ही गुजरात में मतदान करा लिए जाएंगे, ताकि हिमाचल प्रदेश के चुनावी नतीजों का असर गुजरात के मतदान पर नहीं पड़ सके।
गुजरात के चुनावों की तारीखों की घोषणा नहीं किए जाने का मतलब यह निकाला गया कि वहां भारतीय जनता पार्टी अपने आपको कमजोर समझ रही है और मजबूती पाने के लिए कुछ घोषणाएं करना चाहती हैं। वे घोषणाएं आदर्श चुनावी संहिता के अमल में आ जाने के कारण संभव नहीं हो नहीं हो सकतीं। गौरतलब हो कि चुनाव की तारीखों की घोषणा के साथ ही आदर्श चुनावी संहिता अमल में आ जाती है। इसीलिए निर्वाचन आयोग ने केन्द्र और गुजरात सरकार के आग्रह को मानकर कुछ वैसा कर दिया, जो कभी पहले हुआ ही नहीं था।
लेकिन इसके साथ ही भारतीय जनता पार्टी की हवा भी खराब होने लगी। कांग्रेस के नेता ज्यादा आक्रामक होने लगे। राहुल गांधी गुूजरात चुनाव में पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं और वे मोदी के स्टाइल में आ चुके हैं। चुनाव के पहले समाज के महत्वपूर्ण लोगांे और विपक्षियों को अपनी पार्टी मे शामिल करके भाजपा नेता अपने पक्ष मे हवा बनाने का काम करते रहे हैं। अब वही काम कांग्रेस कर रही है। वैसे कांग्रेस भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को तो नहीं ले रही है, क्योंकि वैसा करने से उसे फायदा की जगह नुकसान ही होगा, लेकिन उसने गुजरात के तीन नेताओं को अपने पक्ष में लाकर भाजपा की हवा खराब करने का काम किया है।
पिछले दो- एक साल मे गुजरात में तीन युवा चेहरे उभरे हैं। उनमें सबसे ज्यादा चर्चित चेहरा हार्दिक पटेल का है, जो इस समय सिर्फ 23 साल के हैं और 25 साल की आयु नहीं प्राप्त करने के कारण चुनाव भी नहीं लड़ सकते। अभी तक हार्दिक पटेल कांग्रेस में शामिल नहीं हुए हैं और न ही उन्होंने शामिल होने के अपने इरादों को जाहिर किया है, लेकिन इतना स्पष्ट कर दिया है वे भाजपा को हराने का काम करेंगे। भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने उन पर देशद्रोह का मुकदमा दर्ज कर रखा है। वे इसके कारण महीनों जेल में गुजार चुके हैं। महीनों उन्हें तड़ीपार होकर राजस्थान में रहना पड़ा। जाहिर है वे भाजपा के खिलाफ ही रहेंगे। अब यह दूसरी बात है कि गुजरात के पाटीदार कितना भाजपा के विरोध मे आते हैं और कितना भाजपा के समर्थन में।
पाटीदार आंदोलन के खिलाफ एक ओबीसी आंदोलन भी हुआ था। पाटीदार ओबीसी की सूची में शामिल होने की मांग कर रहे थे। यदि उनकी मांग पूरी हो जाय, तो जो पहले से ओबीसी की सूची में शामिल हैं, उनका भारी नुकसान हो जाएगा, क्योंकि अधिक विकसित, समृद्ध और शिक्षित होने के कारण पाटीदार ओबीसी के लिए आरक्षित अधिकांश सीटों को झटक जाएंगे। यही कारण है कि उनके आंदोलन के खिलाफ ओबीसी का एक आंदोलन खड़ा हुआ और उसके नेता के रूप में उभरे अल्पेश ठाकोर।
अब अल्पेश ने कांग्रेस में शामिल होने की घोषणा कर दी है। वे कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ने वाले हैं। गुजरात की कुल आबादी में ओबीसी करीब 60 फीसदी हैं। यदि इसका आधा हिस्सा भी किसी पार्टी को मिल जाए, तो वह चुनाव जीत जाता है। जाहिर है, अल्पेश ठाकोर को मिलाकर कांग्रेस ने भारतीय जनता पार्टी के ऊपर एक बड़ी मनोवैज्ञानिक जीत दर्ज कर ली है। हालांकि भाजपा कह रही है कि अल्पेश पहले से ही कांग्रेस में थे, लेकिन उसके इस दावे से मनोवैज्ञानिक युद्ध पर कोई असर नहीं पड़ता।
एक तीसरे युवक हैं जिग्नेश मेवानी। दलितों पर हुए अत्याचार के खिलाफ दलितों द्वारा एक आंदोलन हुआ था और उसके नेता जिग्नेश थे। उन्होंने भी कांग्रेस का हाथ थाम लिया है। वैसे दलित वहां भाजपा के विरोध में ही वोट डालते रहे हैं, लेकिन जिग्नेश द्वारा कांग्रेस में शामिल होने और मीडिया में उसका प्रचार होने का मनोवैज्ञानिक लाभ कांग्रेस को तो मिल ही रहा है और भारतीय जनता पार्टी अपने आपको रक्षात्मक पा रही है।
भारतीय जनता पार्टी ने भी पाटीदार आंदोलन के कुछ नेताओं को मिलाने की घोषणा की, लेकिन उसके तुंरत बाद ही एक पाटीदार नेता ने आरोप लगाया कि उसे भाजपा में शामिल होने के लिए 1 करोड़ रुपये की पेशकश की गई थी और 10 लाख रुपये तो पेशगी में भी दिए गए थे। एक अन्य पाटीदार नेता ने भी आलोचना करते हुए भाजपा से इस्तीफा दे दिया। इस तरह भाजपा की हवा और खराब हो गई।
चुनाव में अंततः किसकी जीत होती है, इसका पता तो बाद में चलेगा, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि मनोवैज्ञानिक युद्ध के पहले दौर में भाजपा कांग्रेस के हाथों परास्त हो गई है। (संवाद)
गुजरात चुनाव में मनोवैज्ञानिक युद्ध
पहले दौर में मात खा गई भाजपा
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-10-24 11:16
कुछ समय पहले तक माना जा रहा था कि गुजरात विधानसभा चुनाव जीतना भारतीय जनता पार्टी के लिए वाएं हाथ का खेल साबित होगा, क्योंकि इसी राज्य के दो नेता पूरे देश भर में भाजपा को जीत दिलवा रहे हैं। लेकिन अब यह धारणा बदल चुकी है। वैसे यह तो नहीं कहा जा सकता कि भाजपा वहां चुनाव हार ही जाएगी, लेकिन यह तो कहा ही जा सकता है कि उसके लिए गुजरात चुनाव जीतना कोई आसान काम नहीं होगा और वहां वह उत्तर प्रदेश व उत्तराखंड के चुनावी नतीजों को दुहरा नहीं पाएगी।