कुछ समय पहले तक सरकार घाटी के हालात पर बातचीत का रास्ता अपनाने के प्रति उदासीन बनी हुई थी। वहां सुरक्षा बलों की गतिविधियां तेज हो गई थी और उनके साथ घाटी के नाराज नौजवानों के टकराव की घटनाओं के चलते कश्मीर का मसला अपनी विकृति की चरम अवस्था में पहुंच गया था, जिसके चलते यह बात सामने आ रही थी कि घाटी में जो हालात बन गए हैं, उससे उबरने और आगे बढने का रास्ता बातचीत के जरिये ही निकाला जा सकता है। हालांकि सत्तारूढ भारतीय जनता पार्टी और उसके वैचारिक कुनबे के दूसरे संगठन ऐसी मांग का विरोध कर रहे थे। आखिरकार केंद्र सरकार ने तमाम वाद-विवाद के बाद संवाद के दरवाजे खोलकर उस उम्मीद की दिशा में कदम बढाया है जो करीब दो महीने पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जगाई थी। स्वाधीनता दिवस के मौके पर लाल किले के प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा था कि कश्मीर समस्या न गोली से सुलझेगी न गाली से, बल्कि कश्मीरियों को गले लगाकर ही इस समस्या को सुलझाया जा सकता है।
प्रधानमंत्री के इस कथन से लगा था कि केंद्र की तरफ से जल्दी ही कोई विशेष घोषणा होगी। पर जल्द कुछ न होने से निराशा के स्वर भी उभरे। इसी आशा-निराशा के माहौल में पिछले महीने गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने जम्मू-कश्मीर का दौरा किया था और उस दौरान उन्होंने कई समूहों के नुमाइंदों से मुलाकात की थी। फिर, पिछले दिनों जम्मू-कश्मीर के पुलिस महानिदेशक शेष पाल वैद ने दो टूक कहा कि इस साल एक सौ साठ उग्रवादी मारे जा चुके हैय अब राज्य में राजनीतिक पहलकदमी की दरकार है। इसी तरह की बात कई पूर्व और मौजूदा सैन्य अधिकारी भी कहते आ रहे हैं। विपक्ष तो काफी पहले से इस बात पर जोर देता आ रहा है कि केंद्र को कश्मीरियों से संवाद का रिश्ता कायम करना चाहिए, क्योंकि उनका भरोसा जीते बगैर स्थायी शांति की उम्मीद नहीं की जा सकती। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भी भारत सरकार को यही सलाह मिलती रही है। अच्छी बात है कि सरकार ने इन सभी की राय को तवज्जो दी।
माना जा सकता है कि सरकार की यह पहलकदमी उसकी इस समझदारी के ‘विकसित’ होने का संकेत है कि बंदूकों का जवाब बंदूकें नहीं हो सकतीं। अगर हो सकतीं तो अमेरिका की बंदूकों ने अफगानिस्तान, इराक, सीरिया समेत पूरी दुनिया को अब तक शांत कर लिया होता। दरअसल मिलिटेंसी और उग्रवाद से निबटने में सुरक्षात्मक कदम के साथ ही राजनीतिक पहल की भी बडी भूमिका होती है। ऐसी पहल कभी आमने-सामने के संवाद के जरिये होती है, तो कभी गोपनीय स्तर पर बंद दरवाजों के भीतर भी। औपचारिक समझौते और अनौपचारिक सहमतियां ऐसे संवादों के अहम हिस्से होते हैं। जम्मू-कश्मीर को लेकर ऐसी राजनीतिक पहलकदमी काफी समय से ‘नई दिल्ली’ के एजेंडे से नदारत थी। संतोष की बात है कि सरकार ने देर से ही सही, ऐसी पहलकदमी को अपने एजेंडे में जगह देने का फैसला किया।
सरकार की यह पहलकदमी अपनी जगह, मगर सवाल यह है कि संवाद की प्रक्रिया उस स्थिति में कैसे अपनी तार्किक परिणति तक पहुंच सकती है जबकि सरकार के समर्थक कुछ संगठन अपने सांप्रदायिक आग्रहों के चलते कश्मीर में भी और देश के बाकी हिस्सों में भी कश्मीर की समस्या को हिंदू-मुस्लिम समस्या का रंग देने के घृणित प्रयासों में लगे रहते हैं?
जहां तक कश्मीर के मौजूदा हालात के कारणों की बात है, यह तो हकीकत है कि घाटी के लोगों को सूबे में साझा सरकार चला रही पीडीपी और भाजपा पर कतई भरोसा नहीं है। अलबत्ता इस गठजोड के पहले मुख्यमंत्री दिवंगत मुफ्ती मोहम्मद सईद जरूर कुछ सकारात्मक प्रयास करना चाहते थे। लोगों को उनपर ऐतबार भी था। उनके मुख्यमंत्री बनने और उनकी सरकार में भाजपा की साझेदारी से कई राजनीतिक समीक्षकों और केंद्र में सत्ताधारी दल के रणनीतिकारों को उम्मीद थी उनके नेतृत्व में यह गठजोड सूबे में बडी कामयाबी हासिल करेगा और कश्मीर को देश की मुख्यधारा में लौटा लाएगा। यह मिथक भी गढ़ा गया था कि जम्मू में असर रखने वाली भाजपा और कश्मीर घाटी में मजबूत जनाधार वाली पीडीपी की साझा सरकार बनने से कश्मीर में शांति बहाली और सांप्रदायिक सौहार्द कायम होगा। हालांकि आम कश्मीरी अवाम ने सत्ता की इस साझेदारी को पसंद नहीं किया था। एक तरह से इस गठजोड का बनने और सत्ता संभालने को कश्मीरी अवाम ने अपने जले पर नमक छिडकने जैसा माना था।
यह सही है कि मुफ्ती हीलिंग टच में यकीन रखते थे। यानी वे आहत कश्मीरियों के जख्मों पर मरहम लगाना और राजनीतिक बंदियों को रिहा करना चाहते थे। वे पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर के रास्ते दोनों देशों के बीच व्यापारिक गतिविधियां शुरू करने का इरादा रखते थे। कश्मीर मसले को हल करने के लिए वे सभी संबंधित पक्षों यहां तक कि पाकिस्तान से भी बात करने के पक्षधर थे। उनकी कोशिश थी कि सुरक्षा बल आम लोगों के साथ सह्रदयता से पेश आए और सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून (अफस्पा) का दायरा सीमित हो। यह सारी बातें भाजपा और पीडीपी के न्यूनतम साझा कार्यक्रम (कॉमन एजेंडा) में भी शामिल थीं और आज भी हैं लेकिन इनमें किसी भी मुद्दे पर वे कोई पहल नहीं कर सके। इसकी मुख्य वजह यही रही कि उनकी पार्टी का भाजपा के साथ गठबंधन पूरी तरह बेमेल था। यही वजह रही कि नीतिगत मसलों पर उन्हें अपने हाथ ही नहीं बांधे रखना पडे बल्कि मुंह भी बंद रखना पडा। वे महज दस महीने सत्ता मे रहे लेकिन उनका यह कार्यकाल एक तरह से बिल्कुल निस्तेज रहा। दुखद परिस्थिति में मुख्यमंत्री रहते ही उनका निधन हो गया। मुफ्ती सईद की मौत के बाद लंबे समय तक दुविधा में रहने के बाद उनकी बेटी महबूबा साझा सरकार की मुख्यमंत्री बनीं, लेकिन वे भी मुख्यमंत्री के तौर निस्तेज और बेअसर ही साबित हो रही हैं। उन्होंने भी पीडीपी-भाजपा के साझा एजेंडा पर आगे बढने की इच्छा नहीं दिखाई। चूंकि कश्मीरी अवाम को तो पहले से ही इस सरकार पर एतबार नही था, लिहाजा उसका असंतोष लगातार बढता गया। उस असंतोष ने भी कश्मीरी नौजवानों में अलगाव को बढावा देने का काम किया। ऐसी स्थिति में अब कश्मीर में हालात सामान्य बनाने के लिए संवाद प्रक्रिया शुरू करना ही पर्याप्त नहीं होगा बल्कि सूबे की सरकार को अपने साझा एजेंडा पर ईमानदारी पूर्वक अमल की दिशा में बढने की समझदारी भी दिखानी होगी। इसके साथ ही सबसे बडी जरूरत पूरे देश में कश्मीर को लेकर एक सकारात्मक बनाने की ताकि संवाद प्रक्रिया विश्वास के माहौल में शुरू और संपन्न हो सके। पिछले दिनों जब घाटी में आतंकवादियों के खिलाफ सुरक्षा बलों की कार्रवाई चल रही थी, तब देश के कई इलाकों में कश्मीरियों के खिलाफ आक्रामकता देखी गई थी। नतीजा यह हुआ कि कश्मीर का सवाल देशभक्ति से जुड गया और कश्मीर के लोगों की छवि देशद्रोही जैसी बना दी गई। कई कॉलेजों में कश्मीरी छात्रों पर हमले हुए। बाद में सरकार की सख्ती से यह सिलसिला रुका, लेकिन अभी पूरे देश को कश्मीरियों के साथ खडे होने की जरूरत है, ताकि उन्हें खासकर कश्मीरी नौजवानों को यह महसूस हो सके कि शेष भारत के लोग उनके साथ संवाद करना और उनके जख्मों पर मरहम लगाना चाहते हैं। अगर ऐसा नहीं होता है तो इस संवाद प्रक्रिया का हासिल सिर्फ और सिर्फ शून्य ही होगा। (संवाद)
कश्मीर पर केंद्र की समझदारी विकसित होने का संकेत
घाटी के लोगों को सूबे की साझा सरकार पर कतई भरोसा नहीं
अनिल जैन - 2017-10-30 11:09
जम्मू-कश्मीर को लेकर केंद्र सरकार ने दुविधा के घेरे तथा अपने ‘सैन्यवादी’ सोच के दायरे से बाहर निकलकर आखिरकार संवाद करने का फैसला किया है। इस सिलसिले में उसने खुफिया ब्यूरो के पूर्व निदेशक दिनेश्वर शर्मा को अपना प्रतिनिधि चुना है। केंद्र सरकार के ये नए वार्ताकार कई दशकों से अलगाववाद और आतंकवाद की आग में झुलस रहे इस सूबे के विभिन्न क्षेत्रों, तबकों और संगठनों से बातचीत करके उनकी शिकायतों और अपेक्षाओं को समझने की कोशिश करेंगे। अच्छी बात यह भी है कि बातचीत का कोई दायरा तय नहीं किया गया है। नए वार्ताकार के नाम का एलान करते हुए गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने हालांकि यह साफ नहीं किया कि बातचीत की प्रक्रिया में हुर्रियत के नुमाइंदों को शामिल किया जाएगा या नहीं, लेकिन यह जरूर कहा है कि दिनेश्वर शर्मा को पूरी आजादी होगी कि वे चाहे जिससे बात करे।