पर एक साल बीतने के बाद क्या वैसी ही स्थिति है, जैसा 8 नवंबर के 8 बजे शाम से शुरू होकर कुछ समय तक रही थी? इसका जवाब एक ही है और वह यह है कि सरकार की इस घोषणा ने लोगों में जो उम्मीदें जताई थीं, वे धराशाई हो गईं। पूरी दुनिया की नजर नोटबंदी के नतीजों को देखने के लिए टिकी हुई थी। विदेशों में भी आमतौर पर इसकी सराहना ही की जा रही थी, लेकिन समय बीतने के साथ साथ आशा ने निराशा का स्थान लेना शुरू कर दिया। लगातार निराश होते जा रहे इसके समर्थक भ उम्मीद की कुछ किरणों को संजोये हुए थे। यही कारण है कि भारतीय जनता पार्टी को चुनावी सफलता भी मिलती रही। इस फैसले से प्रधानमंत्री मोदी ने अपना मूल समर्थन आधार ही बदल लिया था और वे देश के उन लोगों के मसीहा बन गए थे, जो गरीबी रेखा के इर्द गिर्द या उसके नीचे रहकर जीवन यापन करते हैं।
लेकिन क्या उन लोगों का समर्थन बनाए रखने में मोदीजी आगे भी सफल रहेंगे? इन सवाल का जवाब आने वाले चुनावांे में मिलेगा, लेकिन आर्थिक सिद्धातों के पैमाने पर सरकार के इस फैसले को नीतिगत हादसा ही कहा जा सकता है। उसके पहले देश की अर्थव्यवस्था अच्छे ढंग से काम कर रही थी। भारत पहली बार दुनिया का सबसे तेज गति से विकास करने वाली अर्थव्यवस्था का गौरव प्राप्त कर चुका था और विकास के द्वारा देश के सबसे नीचले पायदान पर जीवन बसर कर रहे लोगांें की अंधेर जिंदगी को भी रोशन करने की उम्मीद की जा सकती थी।
फैसले के कुछ दिनों के अंदर ही यह जाहिर हो गया था कि नोटबंदी के फैसले से उत्पन्न होने वाली स्थितियों का सामना करने की तैयारी सरकार ने नहीं कर रखी थी। पुराने नोटों को तो बाजार से हटा दिया गया था, लेकिन उसकी जगह लेने के लिए नये नोटों को पर्याप्त मात्रा में छापकर तैयार नहीं रखा गया था। इस तैयारी की कमी के कारण सरकार ने पुराने नोटांे को बदलने के लिए 50 दिनों का समय दे दिया और इतने बड़े समय अंतराल का फायदा उठाकर उन सारे नोटों को तरह तरह के तरीकों को अपनाकर सफेद बना लिया गया और जब भारतीय रिजर्व बैंक ने आंकड़े जारी किए तो पता चला कि लगभग सभी नोट उसके खजाने में वापस आ चुके हैं। यानी मिशन को गुप्त रखने की रणनीति पूरी तरह पराजित हो गई। इस पूरे अभियान में काला धन को पकड़ा नहीं जा सका। ज्यादा से ज्यादा हम कह सकते हैं कि इस काले धन का एक खास तरीके से पुनर्वितरण हो गया, जिसमें कुछ हिस्सा देश के गरीबों के पास भी गया होगा, क्योंकि काले धन के मालिक अपने काले धन की सफाई में उसका एक हिस्सा तो गंवा ही बैठे और उन गंवाए गए एक हिस्से का लाभ गरीबांे को भी मिला होगा।
नकली नोटों पर हमला भी इसका एक उद्देश्य था। इसमें यह कितना सफल रहा, यह तो नहीं कहा जा सकता, क्योंकि नकली नोट तो जहां थे, वहीं समाप्त हो गए और उनका एक बहुत ही छोटा हिस्सा बैंकों के पास पहुंचा। कश्मीर में नकली असली नोटों के द्वारा आतंक की फंडिग समाप्त करना भी इसका एक घोषित उद्देश्य था। वह उद्देश्य कितना सफल हुआ, इसके बारे में यही कहा जा सकता है कि इस घोषणा के बाद भी वहां आतंकवाद जारी रहा। इधर कुछ दिनों से वह कमजोर जरूर पड़ा है, लेकिन इसका कारण सुरक्षा बलों द्वारा उनके खिलाफ की जा रही सक्रिय कार्रवाई है।
नोटबंदी की घोषणा के बाद कुछ और उद्देश्य सरकार द्वारा जोड़े गए। उनमें से एक तो डिजिटल भुगतान की ओर अर्थव्यवस्था को ले जाना था। इसमें कोई दो मत नहीं कि डिजिटल भुगतान के प्रति लोगों मे सजगता बढ़ी और इस तरह का भुगतान भी करेंसी संकट के दौरान अच्छा खासा हुआ, लेकिन संकट खत्म होने के बाद फिर कैश पर भुगतान की प्रवृति बढ़ती चली गई। फिर भी हम कह सकते हैं कि पहले की अपेक्षा अब ज्यादा लोग गैर कैश माध्यम से भुगतान कर रहे हैं, लेकिन इस उपलब्धि के लिए जो कीमत चुकाई गई है, वह बहुत ज्यादा है।
एक और उपलब्धि नये नये लोगों को टैक्स नेट में लाने की बताई जा रही है। इसमेे सच्चाई भी है, लेकिन क्या टैक्स नेट में ज्यादा लोगों को लाने के लिए नोटबंदी के रूप में चुकाई गई कीमत को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है?
नोटबंदी के पूर्व घोषित उद्देश्य हासिल नहीं किए जा सके हैं, लेकिन इससे यह तो स्पष्ट हो गया है कि देश की जनता भ्रष्टाचार और कालेधन के खिलाफ सरकार द्वारा शुरू किए गए किसी भी अभियान के साथ खड़ी दिखाई देगी, भले ही इसके कारण उन्हे असुविधा ही क्यों नहीं उठानी पड़े। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ जो हमारे देश का सामुदायिक मनस है, वह इस फैसले के बाद सामने आ गया है। यह सरकार के लिए अच्छा संकेत है, लेकिन क्या शुरुआती विफलता के बाद भी सरकार इसी संकल्प के साथ भ्रष्टाचार पर हमले करने को तैयार है? (संवाद)
नोटबंदी के एक साल: खोदा पहाड़ निकली चूहिया
उपेन्द्र प्रसाद - 2017-11-04 12:33
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश के दो बड़ी करेंसी नोट को प्रचलन से रोकने की घोषणा के एक साल पूरे होने हैं। आजादी के बाद किसी सरकार द्वारा लिया गया यह सबसे बड़ा नीतिगत फैसला था और फैसले के बाद जिस तरह का इसे समर्थन मिला था, वह भी अभूतपूर्व था। इसे एक बड़ी क्रांति माना गया था, जिसमें बिना किसी एक गोली चलाए व्यवस्था परिवर्तन को अंजाम दिया गया मान लिया गया था। लगने लगा था कि काला धन रखने वालों के बुरे दिन शुरू हो गए हैं और देश एक ऐसे काल में प्रवेश कर गया है, जिसमें अवैध रूप से धन संग्रह करना अतीत की बात बन जाएगी। लिहाजा इस घोषणा को देश के आमलोगों का जबर्दस्त समर्थन मिला। जो लोग इसका विरोध कर रहे थे, उन्हें या तो लोगों ने गंभीरता से लिया ही नहीं या उन्हें काले धन के मालिकों का हमदर्द मान लिया गया।